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"तिलिस्म-ए-होशरूबा" (Tilism-e-Hoshruba) 14वीं शताब्दी की एक महाकाव्य कथा है,जो कि महान फ़ारसी नायक अमीर हमज़ा (हमजानामा के नायक),उनके बेटे और पोते के कारनामों से सम्बंधित है। महाकाव्य की शुरूआत इस्लामी सेना के कमांडर-इन-चीफ, हमजा के साथ होती है, जो देवीय शक्ति के झूठे दावे करने वाले लका (Laqa) का पीछा करता है।लका, होशरूबा से सटे कोहिस्तान में जाकर शरण लेता है,जहां साहिरों का दुर्जेय राजा,अफरासियाब जादू का शासन है। अफरासियाब,हमजा से लड़ने में लका की मदद करने के लिए अपने साहिरों या जादूगरों को नियुक्त करता है।हमजा का पोता असद तब होशरूबा को जीतने के लिए निकल पड़ता है, जिसे चतुर चालबाज अमर द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।
अमर के पास दिव्य कलाकृतियाँ हैं जैसे कि अदृश्य करने वाला लबादा और एक जादुई थैली।शक्तिशाली सहयोगियों की सहायता से और हर कदम पर जादुई जालों, खतरनाक मंत्रों और मोहक जादूगरों का सामना करते हुए इस्लामी सेना अंत में होशरुबा पर विजय प्राप्त कर लेती है।
तिलिस्म-ए-होशरुबा ने अपने वीर नायकों, लुभावनी सुंदर राजकुमारियों, शक्तिशाली साहिरों और राक्षसों की कहानी के साथ हर पीढ़ी के पाठकों को मंत्रमुग्ध किया है। तो चलिए तिलिस्म-ए होशरुबा के सबसे पहले प्रदर्शित किए गए दास्तानगोई प्रदर्शनों में से एक पर नजर डालें, जिसे हिमांशु त्यागी ने 2005 में दिल्ली में पहली बार आईआईसी उत्सव (IIC, India International Centre) में प्रस्तुत किया।
संदर्भ:
https://bit.ly/3Sw5hhk
https://bit.ly/3Srnhtp
https://bit.ly/3S8OWzF
https://bit.ly/3UDHA8E
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