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विश्व के कालीन निर्माता देशों में भारत का अग्रणी स्थान है। भारत में बनने वाले 90 फिसदी कालीन निर्यात किये जाते जाते हैं, जिसमें से 55% अमेरिका द्वारा और 25% यूरोपीय देशों द्वारा आयात किया जाता है। भारत में कालीन उद्योग का अनुमानित वार्षिक कारोबार लगभग 12,500 करोड़ रुपये के करीब है और जिसमें से 60% का कारोबार जौनपुर के निकट स्थित भदोही में किया जाता है। भदोही का कालीन विश्व भर में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां कालीन बनाने की कला को 16 वीं शताब्दी में ईरानी यात्रियों द्वारा लाया गया था। हमारे जौनपुर शहर के कालीन की भी विश्व भर में मांग है। वर्तमान समय में, जौनपुर का कालीन उद्योग लगभग 3500 लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा है, कालीन जौनपुर के मुख्य निर्यातित वस्तुओं में से एक है और यह एक जिला एक उत्पाद योजना के तहत आता है। कुछ पूरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि कालीन का निर्माण लगभग 8 से 9 हजार वर्ष पूर्व से ही किया जा रहा है, इसे पहले भेड़-बकरी आदि के बाल से बनाया जाता था। इन प्राप्त साक्ष्यों से माना जाता है कि इसका उपयोग पहले गर्म वस्त्र के रूप में किया जाता था बाद में इसे विश्वभर में घर की साज सज्जा के लिए उपयोग किया जाने लगा।
यह मुख्यत: हस्तनिर्मित उत्पाद था जिसे हथकरघे से तैयार किया जाता था, किंतु अब इसे मशीनों से भी बनाया जा रहा है। इसको बनाने की कला को ताना-बाना (ताना और कपड़ा) कहा जाता है। ताना-बाना हथकरघा चलाते समय किए गए हाथों की गति है। हस्तनिर्मित कालीन को तैयार करने में बहुत अधिक समय लगता है, इसके एक 5 बाई 8 फीट के निम्न गुणवत्ता वाले कालीन को बनाने के लिए 15 से 20 दिन का समय लगता है, इसी आकार के उच्च गुणवत्ता वाले कालीन को बनाने में लगभग दो से छह महीने लग जाते हैं।
एक हस्तनिर्मित (या हाथ से बुना हुआ) कालीन एक विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए करघे से बनाया जाता है, मशीन द्वारा बनायी जाने वाले कालीन के लिए पावर लूम या विद्यूतीकृत हथकरघे का उपयोग किया जाता है जो स्वचालित होता है, इसे सामान्यत: कम्प्यूटर द्वारा संचालित किया जाता है। यह कालीन हाथ से बनी कालीन की अपेक्षा अधिक तेजी से तैयार होती है, जबकि हस्त निर्मित कालीन को तैयार करने में कई साल तक लग जाते हैं। मशीन से बने कालीनों में कृत्रिम सामग्रियों का उपयोग भी अधिक होता है, जबकि हस्तनिर्मित कालीनों में ऊन का उपयोग किया जाता है। विद्यूतीकृत हथकरघे का निर्माण औद्योगिकीकरण के दौरान किया गया था।
फ्रिंजेस – हस्त निर्मित कालीन एक ताने से शुरू होती है और आगे उसी का विस्तार किया जाता है इसमें बीच बीच में कोई सिलाई नहीं जोड़ी जाती है जबकि मशीनीकृत कालीन की बुनाई में बीच बीच में सिलाई जोड़ी जाती है।
किनारा: यह कालीन का बाह्य लंबा हिस्सा है। यह बाहरी धागे के बाहरी किनारों को मोड़कर बनाया जाता है, जिसे बाद में लपेटकर एकसाथ रख दिया जाता है। किनारे का उपयोग अक्सर कालीन की उत्पत्ति की पहचान करने के लिए भी किया जाता है, क्योंकि विभिन्न बुनाई क्षेत्रों में किनारों को पूरा करने के लिए विभिन्न शैलियों और तरीकों का उपयोग किया जाता हैं। मशीन से बने कालीन की किनारियां बारिक और सटीक होती हैं। जबकि हस्तनिर्मित कालीन में किनारों को हाथ से सिला जाता है, जिसमें अक्सर कुछ असमानता देखने को मिल जाती है।
पैटर्न और डिज़ाइन - मशीन से बने कालीन पर पैटर्न आम तौर पर बहुत सटीक होता है और डिज़ाइन को एक तरफ से दूसरी तरफ प्रतिबिंबित किया जाता है। मशीन से बने कालीन के डिजाइन में शायद ही कोई विसंगतियां होती हैं, जो हाथ से बनाए गए सामानों में सामान्य बात है।
स्वचालित करघे का पहला विचार 1678 में पेरिस में एम डे गेनेस द्वारा और 1745 में वोकनसन द्वारा दिया किया गया था, लेकिन इन डिजाइनों को कभी विकसित नहीं किया गया था। 1784 में पहला विद्यूतीकृत हथकरघा एडमंड कार्टराइट द्वारा डिजाइन किया गया था और जिसे पहली बार 1785 में बनाया गया था। इसमें बुनाई की प्रक्रिया को तेज करने के लिए जल शक्ति का उपयोग किया गया। उनके विचारों को पहले मैनचेस्टर के ग्रिमशॉ द्वारा लाइसेंस प्राप्त किया गया था, जिन्होंने 1790 में मैनचेस्टर में एक छोटे भाप से चलने वाले बुनाई कारखाने का निर्माण किया, लेकिन कारखाना जल गया। कार्टराइट की मशीन व्यावसायिक रूप से सफल मशीन नहीं रही; उसके करघे को ताना बाना बंद करना पड़ा। अगले दशकों में, कार्टराइट के विचारों को एक विश्वसनीय स्वचालित करघा में बदल दिया।
ये डिज़ाइन जॉन के के फ्लाइंग शटल (flying shuttle) के आविष्कार से पहले के थे और उन्होंने लीवर का उपयोग करके शेड के माध्यम से शटल को पास किया था। जिससे बुनाई की गति बढ़ी और बुनकर स्पिनरों के निर्माण से अधिक धागे का उपयोग करने में सक्षम हुए। 1790 से लेकर 1841 तक इसके विभिन्न संस्करण आये, अंतत: यह एक स्वचालित मशीन के रूप में तैयार किया गया जो अत्यंत तीव्रता से कार्य कर सकता था। यह सभी अविष्कार मेन्चेस्टर के आसपास किए गए क्योंकि औद्योगिक काल के दौरान मेन्चेस्टर वस्त्र उद्योग का केन्द्र बिंदु था यहां कई मीलों का निर्माण किया गया और इन करघों का उपयोग किया गया।
मूल रूप से, विद्यूत करघे में बायीं ओर से कपड़ा निकालने के लिए एक शटल का उपयोग किया जाता था, लेकिन 1927 में तेजी से और अधिक कुशल शटल रहित करघा उपयोग में आया। आज, प्रौद्योगिकी में प्रगति ने विशिष्ट प्रकार की सामग्री के लिए उत्पादन को अधिकतम करने के लिए डिज़ाइन किए गए विभिन्न करघों का उत्पादन किया है। इनमें से सबसे आम सुल्जर शटललेस वीविंग मशीन, रैपियर लूम, एयर-जेट करघे और वॉटर-जेट करघे हैं।
विद्यूत करघे ने कुशल दस्तकारों की मांग को कम कर दिया, जिससे शुरुआत में मजदूरी में कमी और बेरोजगारी पैदा हुई। जिसके परिणामस्वरूप विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। उदाहरण के लिए, 1816 में दो हजार दंगाई कैल्टन बुनकरों ने पावर लूम मिलों को नष्ट करने की कोशिश की और मजदूरों को पत्थर मारे गये। कपड़ा अधिक किफायती बनाने के कारण पावर लूम की मांग और निर्यात में वृद्धि हुई, जिससे औद्योगिक रोजगार में वृद्धि हुई और भुगतान कम किया जाने लगा। विद्यूत करघे ने महिला मिल श्रमिकों के लिए भी अवसर खोले। विद्यूत करघे के प्रभाव का एक गहरा प्रभाव यह पड़ा विद्यूत करघा मिलों में बच्चों के रोजगार की वृद्धि हुयी। आज भी व्यापक रूप से इनका उपयोग किया जा रहा है। किंतु वर्तमान समय में कालीन कोरोना के कारण कालीन का व्यवसाय प्रभावित हो रहा है।
कालीन का निर्यात मुख्यत: सर्दियों के मौसम किया जाता है, किंतु कोरोना के कारण इसके निर्यात में तीव्रता से कमी आयी है। जिसका विपरित प्रभाव भदोही के मुख्य कारोबार पर पड़ रहा है। कोरोना के चलते अधिकांश मजदूर अपने घर चले गए हैं और उनके लौटने की अभी कोई संभावना नहीं है। कोरोना के कारण श्रमिकों की कमी आ गयी है, जिससे कालीन व्यापारियों को मांग के अनुसार आपूर्ति करना कठिन हो रहा है। कालीन निर्माता अपने उद्योग के भविष्य के लिए चिंतित हैं, यह मुख्यत: कारीगरों पर निर्भर करता है जिसमें महिलाओं की भूमिका प्रमुख है।
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