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आलू 16वीं-17वीं शताब्दी के मध्य भारत पहुँचा।सम्भवतः पुर्तगाल से जहाज़ों द्वारा। आज भारत दुनिया के सबसे ज़्यादा आलू उत्पादन करने वाले देशों में तीसरे नम्बर पर है।2007 में भारत में 26 मिलियन टन आलू पैदा हुआ।1960 से 2000 तक आलू उत्पादन 850% बढ़ गया।ऐसा शायद बड़ी कमाई वाले धनाढ़्य परिवारों की बढ़ती माँग के चलते हुआ।1990 से, प्रति व्यक्ति आलू की खपत एक साल में 12 से 17 Kg. बढ़ी। भारत में आलू एक देहाती उपज नहीं है बल्कि नक़दी फ़सल है जिससे किसानों को अच्छी-ख़ासी आमदनी होती है।2005 की कटाई 3.6 मिलियन डॉलर की हुई और 80,000 टन का निर्यात हुआ।भारत की जलवायु , लम्बी तेज़ गर्मियाँ और छोटे जाड़े आलू की उपज के लिए बहुत अनुकूल हैं।भारत में उत्तर प्रदेश में आलू उत्पादन सबसे ज़्यादा है और जौनपुर इसका गढ़ है।
उत्तर भारत में गिरता आलू उत्पादन :
बाज़ार में आलू की बिक्री के बढ़ते ग्राफ़ के बावजूद किसान हर बार आलू न बोकर बीच-बीच में प्याज़,लहसुन,गन्ना और रबी के मौसम की अन्य चीज़ें बोना पसंद करते हैं।आलू के खुदरा और थोक मूल्यों में बढ़ती दूरी, विश्व के दूसरे नम्बर के आलू निर्यातक देश भारत के प्रमुख राज्यों उत्तर प्रदेश,पंजाब और हरियाणा में बड़े किसानों को आलू की फ़सल बोने से रोक रही है।आलू के संरक्षण के बाद बिक्री में हुए घाटे के बाद बड़े किसानों ने आलू उत्पादन से हाथ खींच लिए।आलू का निर्यात मध्य पूर्व के देशों और श्रीलंका में पिछले कुछ वर्षों में बहुत बढ़ा है।
नए उगे आलू के नए गुण :
चाहे इनके टुकड़े कर लें, इन्हें तल लें, भून लें - आलू लगभग सभी भारतीय पकवानों का लज़ीज़ हिस्सा होता है।इसका भारतीय उपभोक्ताओं से रिश्ता और मज़बूत होगा जब आलू की नई क़िस्म का पदार्पण होगा।इसमें ऐंटीऑक्सीडेंट (antioxidant) की भरपूर मात्रा और ज़बरदस्त स्वाद होता है।इस नए आलू का विकास शिमला के केंद्रीय आलू शोध संस्थान (CPRI) ने किया है।इसका उत्पादन भी भारी मात्रा में होता है।इस आलू का नाम ‘कुफ़्री नीलकण्ठ’ है।औसतन ये 35-38 टन प्रति हैक्टेयर उपज देता है। यह ख़ासतौर से भारत के उत्तरी क्षेत्रों के मैदानों में बोने के लिए उपयुक्त होता है। पंजाब में इस आलू की उपज 30 टन प्रति हैक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आँकड़ा 23 टन प्रति हैक्टेयर है।यह आलू को उत्तरभावी अंगमारी रोग (Late Blight) से बचाता है।पकाने में आसान है, पकाने के बाद इसका रंग नहीं बदलता।व्यावसायिक खेती के लिए यह प्रजाति विकसित हुई और सेंट्रल वैरायटी रिलीज़ कमेटी (CVRC) द्वारा अनुमोदित।इस संकर प्रजाति के आलू गहरे बैंजनी/काले/ अंडाकार आकार और मध्यम गहरी आँखों वाले होते हैं।इसका गूदा बादामी रंग का होता है।स्टोर में अच्छे से संरक्षित होता है, बीज निद्रा मध्यम होती है।
कोविद-19 में खाने की मेज़ पर फिर पहुँचा आलू :
कोविद-19 में एक बार फिर ताज़े आलुओं की माँग दुनिया के सुपर मार्केट और सब्ज़ियों की दुकानों में छा गई है।लोग इस सस्ती सब्ज़ी का संग्रह कर रहे हैं।लॉक्डाउन में इसे चावल, गेहूं के आटे, ब्रेड और पास्ता के साथ खाया जाता है।पश्चिमी देशों में जहां संसाधित (Processed) उत्पादों में आलू भारी मात्रा में इस्तेमाल होता है, आलू की माँग आसमान छू रही है।लॉक्डाउन में विकासशील देशों में ताज़े आलू की खपत बढ़ गई है।यहाँ तक कि भारत के दक्षिणी राज्यों में जहां आलू का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता था, आजकल आलू लोकप्रिय हो गया है।इसका कारण है दूसरी सब्ज़ियों के मुक़ाबले आलू का ज़्यादा दिन ताज़ा बना रहना।
आलू की इतनी खपत बढ़ना ज़्यादा आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है क्योंकि यह तीसरी बड़ी खाद्य उपज है।चावल,गेहूं के बाद आलू का ही उत्पादन काफ़ी होता है।पूरी दुनिया में 1.3 बिलियन लोग इसका प्रमुख रूप से प्रयोग करते हैं।इनमें भारत के पूर्वी क्षेत्रों के ग़रीब लोग, बांग्लादेश और चीन के पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं।इतना इस्तेमाल होने के बावजूद आलू की महिमा उस तरह नहीं बखानी जाती जैसे चावल गेहूं की बताई जाती है।इस कठिन दौर में विनम्र आलू चुपचाप लोगों की सेवा कर रहा है।
कुछ ज़रूरी कदम :
अगले आने वाले 12-18 महीनों के लिए दुनिया को उचित दामों में खाने-पीने की सामग्री की उपलब्धता तय करना बहुत आवश्यक है तभी हम इस महामारी के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त हो सकेंगे।इस मामले में आलू वैश्विक खाद्य आपूर्ति की मुख्य चाभी है।आलू उत्पादन के क्षेत्र में लगाई गई पूँजी कभी बेकार नहीं जाती।लेकिन किसानों को इसके और ज़्यादा उत्पादन के लिए कुछ मूलभूत चीज़ों की ज़रूरत है- बेहतर नस्ल के अच्छी गुणवत्ता वाले सही मूल्य के बीजों की नियमित आपूर्ति, इनको सहेजने की व्यवस्था और बाज़ार का सहयोग।आलू उत्पादन चावल और गेहूं के मुक़ाबले ज़्यादा ऊर्जा प्रति हेक्टेयर तो देता हाई है, किसानों की ज़िंदगी के स्तर को बेहतर बनाने और कृषि व्यवस्था को टिकाऊ बनाने में भी मददगार होता है।