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किसी भी देश के आर्थिक विकास में वन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन हमें ऑक्सीजन, आश्रय, रोजगार, जल, पोषण और ईंधन प्रदान करते हैं। वन, भूमि पर रहने वाले जानवरों, पौधों और कीड़ों की आधे से अधिक प्रजातियों का घर हैं। साथ ही वनों में उगाई जाने वाली लकड़ी ग्रामीण परिवारों के लिए ऊर्जा के स्रोत के रूप में कार्य करती है। वातावरण से कार्बन हटाने और इसे संग्रहीत करने की क्षमता से वन जलवायु परिवर्तन से भी मुकाबला करते हैं। किंतु आज वनों द्वारा प्रदत इतने अधिक लाभों को दरकिनार करते हुए इनका अतिक्रमण किया जा रहा है। हमारे अपने देश भारत में वन भूमि का असीमित रूप में अतिक्रमण किया जा रहा है।
अगस्त 2022 में वन भूमि के अतिक्रमण और इससे निपटने के लिए मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में पूछे गए सवालों का जवाब देते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्री, भूपेंद्र यादव ने संसद में बताया कि देश में लगभग 7,400 वर्ग किमी वन भूमि का अतिक्रमण किया जा चुका है। जिसमें कुल अतिक्रमित वन भूमि का आधा हिस्सा अकेले असम राज्य में है।
असम में लगभग 3,775 वर्ग किमी वन भूमि का अतिक्रमण हुआ है। वनों के इतने अधिक अतिक्रमण के कारण के बारे में बताते हुए असम के अतिरिक्त प्रधान, मुख्य वन संरक्षक और मुख्य वन्यजीव वार्डन (Warden) महेंद्र कुमार यादव ने कहा कि आज, असम में भूमि अतिक्रमण एक जटिल मुद्दा है। यहां लंबे समय से वन अतिक्रमण हो रहा है। इसकी शुरुआत उन लोगों से हुई, जिन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा हुए भूमि के कटाव के कारण अपनी जमीन खो दी थी। आसपास के राज्यों द्वारा असम की वन भूमि का अतिक्रमण भी एक चिंता का विषय है। दरअसल, मेघालय, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश सहित अन्य सीमावर्ती राज्यों द्वारा भी असम की वन भूमि पर अतिक्रमण किया गया है।
कुल मिलाकर, हमारे देश के 37 राज्यों में 7,40,973 हेक्टेयर वन भूमि का अतिक्रमण किया गया है। हालांकि, लक्षद्वीप, पुडुचेरी और गोवा प्रशासनों का कहना है कि उनके राज्यों में वन भूमि का अतिक्रमण नहीं हुआ है। हालांकि भूमि, राज्य का विषय है अतः वन अतिक्रमण से निपटने का मुख्य दायित्व राज्यों का है। फिर भी, केंद्रीय मंत्रालय द्वारा मौजूदा अधिनियमों के अनुसार अतिक्रमण हटाने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि आगे कोई अतिक्रमण न हो, राज्य और केंद्र शासित सरकारों को निर्देश जारी किए गए हैं।
केंद्र सरकार ने 2021-22 में अतिक्रमण को रोकने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 544 करोड़ रुपये का अनुदान जारी किया था जिसमें ग्रीन इंडिया मिशन (Green India Mission), प्रोजेक्ट टाइगर (Project Tiger) और अन्य परियोजनाओं के तहत निधि शामिल थी। हालांकि, ये योजनाएं विशेष रूप से अतिक्रमण के मुद्दों से निपटने के लिए लक्षित नहीं है।
दूसरी ओर, हमारे देश का वनविभाग पिछले 20 वर्षों से अधिक समय से विलंबित वन अतिक्रमण, वन्यजीवों के अवैध शिकार और वन नियमों के उल्लंघन से जुड़े हजारों मामलों के तहत की गई अपनी स्वयं की एफआईआर (FIR) पर कार्रवाई करने में विफल रहा है। प्राप्त जानकारी के अनुसार, सरकार द्वारा वन भूमि से अतिक्रमण को हटाने का निर्देश जारी किए जाने के बाद अक्टूबर 1980 से अब तक कर्नाटक राज्य के शिव मोग्गावन क्षेत्र में 2,208 एफआईआर दर्ज की जा चुकी हैं। किंतु इनमें से सिर्फ 130 मामलों में ही चार्जशीट (Chargesheet) दाखिल की गई है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, पश्चिमी घाट के आठ जिलों में 1.58 लाख एकड़ वन क्षेत्र में अतिक्रमण हुआ है।
शिवमोग्गा 81,502 एकड़ वन अतिक्रमण क्षेत्र के साथ इस सूची में शीर्ष पर है। इस संदर्भ में वन अधिकारियों द्वारा कार्रवाई की कमी के लिए भ्रष्टाचार एक प्रमुख कारण बताया जा रहा हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय समिति का आरोप है कि “रेंज वन अधिकारी (RFO) अतिक्रमणकारियों के साथ कपटसंधि करते हैं। इसलिए ये अधिकारी चार्जशीट दाखिल नहीं करते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों के नाम पर रिश्वत भी ली जाती हैं। अतः आरएफओ के खिलाफ उचित जांच की जानी चाहिए। विलंबित मामलों ने अतिक्रमण के वैधीकरण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। इसे ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest Rights Act) के तहत, भूमि के हक के लिए प्रस्तुत आवेदनों की संख्या में देखा जा सकता है; जो बढ़कर 90,000 हो गए हैं”।
जिला स्तर पर वन विभाग ने अपनी प्राथमिकताओं को बदल दिया है। कुछ वन अधिकारी जानबूझकर निचले स्तर के अधिकारियों से एफआईआर दर्ज कराते हैं ताकि अदालतें उन मामलों को खारिज कर दें।
पिछले हफ्ते ही, भद्रावती शहर की एक संबंधित अदालत ने इन अधिकारियों को एक नोटिस जारी कर, किसी घटना के खिलाफ एफआईआर दर्ज ना करने की उनकी गलती के लिए स्पष्टीकरण मांगा था। तब, एक वरिष्ठ अधिकारी ने रिश्वतखोरी के आरोप को नकारते हुए राजनीतिक दबाव और क्षमता की कमी को इस गलती का प्रमुख कारण बताया। हालांकि, वास्तविकता तो यह है प्रशासन में वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा विलंबित एफआईआर पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता है। अतिक्रमण के विरुद्ध की गई एफआईआर के प्रति अधिकारियों का यह रवैया तथा नव नियुक्त तथा शीर्ष अधिकारियों को प्रशिक्षण की कमी के कारण यह एक अन्य बड़ी समस्या बन गई है। इसके अलावा, कुछ अधिकारियों पर कार्रवाई न करने के लिए विधायकों का दबाव भी होता हैं।
अक्टूबर 2000 में कर्नाटक वन अधिनियम में एक संशोधन के माध्यम से, सरकार ने आरएफओ को स्टेशन हाउस ऑफिसर (Station House Officer) के समान अधिकार प्रदान किए थे। इसके जरिए आरएफओ वन अधिनियम की धाराओं के उल्लंघन के संदर्भ में एफआईआर दर्ज करा सकते थे। हालांकि, वन विभाग के पास इन मामलों की स्थिती की जांच करने के लिए कोई प्रणाली नहीं है।
वन अतिक्रमण जैव विविधता को भी प्रभावित करता है। इससे जंगल में रहने वाले आदिवासियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और तो और, इससे कुछ विवादों को भी बढ़ावा मिलता है। अतः उचित सरकारी प्रयास एवं वन अधिकारियों द्वारा सहयोग द्वारा ही इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3NtCFGx
https://bit.ly/3LCrNnd
चित्र संदर्भ
1. वृक्ष अभियान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. जंगल में लगी आग को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. कटे हुए पेड़ों को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
4. आदिवासियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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