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भारत में लगभग दो दशक पहले विलुप्त हो चुकी गिद्ध की कुछ प्रजातियों को हाल ही में उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में संभवतः उनके संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप देखा गया है जो हमारे पर्यावरण के लिए एक उत्साहजनक संकेत है। पक्षी प्रेमियों के लिए यह एक बहुत अच्छी खबर है कि हमारे जौनपुर जिले के सैदपुर गदौर गांव में भी एक हिमालयी गिद्ध को देखा गया है। दरअसल घायल होने के कारण वह गिद्ध उड़ नहीं पा रहा था। तब वन अधिकारियों ने गिद्ध का इलाज किया, जिसके बाद उसे आसमान में छोड़ दिया गया।
‘अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ’ (International Union for Conservation of Nature (IUCN) की लाल सूची में ‘संकटग्रस्त’ घोषित किया गया हिमालयन ग्रिफॉन (Himalayan Griffon), जिसे आम भाषा में हिमालयी गिद्ध कहा जाता है, लगभग 15 वर्षों बाद उत्तराखंड के तराई वन क्षेत्र के पत्रमपुर और बेल पाराओ भाग में देखा गया है। 23 साल पहले आईयूसीएन द्वारा ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ घोषित किए गए सफेद पूंछ वाले गिद्ध को भी चंपावत जिले के बनबासा इलाके में देखा गया है। साथ ही, ‘दुधवा टाइगर रिजर्व’ में आईयूसीएन द्वारा “गंभीर रूप से संकटग्रस्त” सूचीबद्ध लाल सिर वाले गिद्ध को भी देखा गया है।
हिमालयी गिद्ध या हिमालयन ग्रिफॉन गिद्ध, हिमालय और तिब्बती पठार का मूल निवासी है। इसका वैज्ञानिक नाम जिप्स हिमालयेंसिस (Gyps Himalayensis) है। यह विश्व के दो सबसे बड़े प्राचीन गिद्धों और शिकारी पक्षियों में से एक है। हिमालयी गिद्ध के पंख, पंखुड़ियाँ और पूंछ गहरे भूरे रंग के होते हैं। इसके भूरे रंग के पैर बादामी रंग के पंखों से ढके होते हैं। अंदरुनी पंख भी हल्के भूरे या बादामी रंग के होते हैं, जबकि कुछ गिद्धों में ये लगभग सफेद रंग के ही होते हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, इन पक्षियों की भारत में वापसी, मुख्य रुप से डाइक्लोफेनाक (Diclofenac) दवा पर लगाए गए प्रतिबंध के कारण संभव हुई है, जो पहले पशुओं के लिए उपयोग में लाई जाती थी। मरे हुए पशुओं के शवों पर गिद्ध भक्षण करते थे, जिसके कारण यह दवा उनके शरीर में जाकर उनकी मृत्यु का कारण बनती थी। डाइक्लोफेनाक के सेवन से गुर्दों को गंभीर क्षति होती है और इससे अक्सर गिद्धों की मृत्यु हो जाती है।
सफेद सिर और बड़े भारी पंखों के साथ, यह गिद्ध जिप्स प्रजाति का सबसे बड़ा सदस्य है।
इस गिद्ध का वजन 8-12 किलोग्राम के बीच होता है; शरीर की लंबाई 95-130 सेमी होती है और यह 5,500 मीटर की ऊंचाई तक उड़ सकता है। ये गिद्ध 40- 45 वर्ष की आयु तक जीवित रहते हैं। इस वर्ष पत्रमपुर में इस प्रजाति के लगभग 50 गिद्ध देखे गए हैं; जबकि, बेल पाराओ क्षेत्र में 150 से अधिक गिद्ध हैं, जबकि पहले इनमें से केवल पाँच से छह पक्षी ही सर्दियों के दौरान प्रवास करते थे। इनकी बढ़ती संख्या पर्यावरणीय दृष्टिकोण से सच में एक उत्साहजनक संकेत हैं।
बनबासा क्षेत्र में दिखे सफेद पूंछ वाले गिद्धों की प्रजाति म्यांमार (Myanmar), थाईलैंड (Thailand), लाओस (Laos), कंबोडिया (Combodia), नेपाल और भारत में मुख्य रूप से हरियाणा और आंध्र प्रदेश राज्यों में पाई जाती है। अन्य सभी गिद्धों की तरह, इनकी संख्या भी डाइक्लोफेनाक विषाक्तता से गंभीर रूप से प्रभावित हुई है। उत्तराखंड में इस गिद्ध को अंतिम बार वर्ष 2000 में देखा गया था। अतः यह खोज संरक्षण प्रयासों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है और लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के महत्व पर प्रकाश डालती है।
वैसे तो उत्तराखंड में गिद्धों का दिखना दुर्लभ है। लेकिन उनके प्रवास काल के दौरान देहरादून, हरिद्वार और तराई क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में गिद्धों की चार–पांच प्रजातियां देखी जा सकती हैं; जबकि अन्य प्रजाति के कुछ पक्षी अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ही रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में मंत्रालय और विभाग के प्रयास रंग लाए हैं और अब राज्य में गिद्धों की संख्या बढ़ रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि हाल के दशकों में गिद्धों की लगभग सभी प्रजातियों की संख्या में 99% तक की गिरावट आई है।
डाइक्लोफेनाक विषाक्तता के अलावा, शहरीकरण और मनुष्यों द्वारा उत्पन्न हुए संघर्षों ने इन प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। गिद्धों की आबादी में कमी के लिए उनके निवास स्थान का नुकसान एक प्रमुख कारक रहा है। एक तरफ जहां शहरीकरण के कारण गिद्धों से उनके प्राकृतिक आवास छिन रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ कृषि जैसी मानवीय गतिविधियों के साथ संघर्ष के कारण ये पक्षी निरंतर मारे जा रहे हैं।1980 के दशक तक भारत में नौ विभिन्न प्रजातियों के 40 दशलक्ष गिद्ध थे। परंतु, अब केवल 30,000 से 50,000 गिद्ध ही शेष बचे हैं।
इनकी संख्या में निरंतर बढ़ती गिरावट के कारण भारत सरकार ने गिद्धों की रक्षा के लिए 2006 में डाइक्लोफेनाक दवा के पशु चिकित्सा में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। आज हरियाणा के पिंजौर में गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र भी हैं। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के अलावा, मध्य प्रदेश के कई हिस्सों जैसे पन्ना, बांधवगढ़ और गांधी सागर, हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और देश के दक्षिणी हिस्सों में गिद्धों के घोंसले और प्रजनन के देखे जाने की सूचना मिली है।
गिद्धों के देशव्यापी संरक्षण प्रयासों के तहत, ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ (Bombay Natural History SOCIETY (BNHS) द्वारा हरियाणा, पश्चिम बंगाल, असम और मध्य प्रदेश में गिद्ध प्रजनन केंद्र स्थापित किए गए हैं। बीएनएचएस ने मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, असम, मजौली द्वीप और तराई क्षेत्र आदि में लगभग 30,000 वर्ग किमी में फैले गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र भी बनाए हैं। इन क्षेत्रों में विशेषज्ञ यह सुनिश्चित करते हैं कि पक्षियों के लिए पर्याप्त भोजन और प्राकृतिक आवास उपलब्ध हो और मानव गतिविधियों के साथ इनका संघर्ष न हो।
संदर्भ
https://bit.ly/3NtWNs7
https://bit.ly/40B0leH
https://bit.ly/3V20sPx
चित्र संदर्भ
1. हवा में उड़ते हिमालयी गिद्ध को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. पत्थर पर बैठे हिमालयी गिद्ध को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. मांस भक्षण करते हिमालयी गिद्ध को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. झुण्ड में बैठे हिमालयी गिद्ध को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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