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उर्दू में शायरी लिखने वाले को शायर और लिखने वाली को शायरा कहते हैं और उर्दू शायरी का जब भी ज़िक्रहोता है तो हमारे शहर जौनपुर की बात उसमें करना लाज़मी हो जाता है। जौनपुर में उर्दू के मुशायरों का एक बेहद पुराना और बा-तहज़ीब इतिहास रहा है। जौनपुर से कई उर्दू शायरी के दिग्गज उभर कर सामने आये हैं।
निम्नलिखित कुछ चंद नाम ऐसे है जिनकी जड़े जौनपुर से जुडी है: क़ैसर-उल जाफ़री, हादी मछलीशहरी, हफ़ीज़
जौनपुरी, इबरत मछलीशहरी, करामत अली जौनपुरी, मोहम्मद बाक़र शम्स, शफ़ीक़ जौनपुरी, वामिक़ जौनपुरी,
अब्बास क़मर, आलोक मिश्रा, हसन आबिदी, होश जौनपुरी, महताब आलम, मतीन सरोश, नक़्क़ाश काज़मी,
निर्मल नदीम, अख़लाक़ बन्दवी, अली अब्बास उम्मीद, अज़ीज़ रब्बानी अज़ीज़, फ़ैज़ राहील ख़ान, हुसैन फ़ारूक़ी,
इब्न-ए-सईद, जावेद बर्क़ी, कमल उपाध्याय, मेहदी बाक़र ख़ान मेराज, मुख़्तार आशिक़ी जौनपुरी, नीरजा माधव,
निज़ामुद्दीन निज़ाम, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, रज़ा जौनपुरी, शहीर मछलीशहरी, शौकत परदेसी, शिफ़ा
कजगावन्वी, सय्यद मख़दूम अशरफ़ जहाँगीर समनानी, उस्मान अहमद क़ासमी, वसीम हैदर हाश्मी, ज़ेबा
जौनपुरी आदि। शायरों की इतनी लंबी सूची जौनपुर के शायराना अंदाज को बखूबी दिखाती है।
परन्तु आज हम जिनकी बात करने जा रहे है वो महिला उर्दू शायरी में एक उभरता हुआ सितारा है और जिन्हें जौनपुर में सभी शहनाज़ रहमत के नाम से जानते है।
शहनाज रहमत की शायरी प्रेमियों के बीच बहुत मशहूर है। इनकी शायरी पढ़ना सभी को पसंद है। इनकी उर्दू
शायरी का विशाल संग्रह यूट्यूब चैनल
और कई ऑनलाइन
प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है। शहनाज़ रहमत ने कई उर्दू नज्में, गजलें , क़तात, उदास शायरी, दोस्ती की शायरी, मुशायरी शायरी, मुहब्बत भरी शायरी, उदास ग़ज़लें, दुख भरी शायरी, सामाजिक मुद्दों पर शायरी लिखी हैं। उनमें से कुछ प्रमुख ग़ज़लें निम्नलिखित हैं:
-क्या ग़म के साथ हम जिएँ और क्या ख़ुशी के साथ
-मेरी ख़ामोश मोहब्बत की ये क़ीमत दी है
-बात करनी है तो आ अब फ़िक्र-ओ-फ़न की बात कर
-कितनी तरकीबें कीं बातिन के लिए
-आसमाँ आसमाँ था मेरा कब हुआ मैं ज़मीं बे-सदा ये न मालूम था
इनमे से “मेरी ख़ामोश मोहब्बत की ये क़ीमत दी है” काफी मशहूर है, इसकी कुछ लाइनें निम्नलिखित हैं :
“मेरी ख़ामोश मोहब्बत की ये क़ीमत दी है
उस ने ठुकरा के मुझे दर्द की दौलत दी है
आप को भूल सकूँ दिल को कहीं बहलाऊँ
आप की याद ने कब मुझ को ये मोहलत दी है
पास बैठूँ तेरे और तुझ को ही देखे जाऊँ
मेरी आँखों को कहाँ इतनी इजाज़त दी है
दर्दमंदी से मोहब्बत से मिलूँ मैं सब से
मेरे अज्दाद ने विर्से में ये फ़ितरत दी है
काम औरों के मैं आती रहूँ मरते दम तक
मेरे ख़ालिक़ ने मुझे जितनी भी ताक़त दी है
कितनी दिलकश है हसीं है ये धनक-रंग फ़ज़ा
मौसम-ए-गुल को मुसव्विर ने क्या रंगत दी है
मेरी ज़ुल्फ़ों को सँवारे मेरा आँचल झूले
ऐ हवा किस ने तुझे आज ये जुरअत दी है
क्यों मेरे साथ ही रोया है मेरा आईना
नौहागर तू ने उसे कौन सी सूरत दी है
तेरी दुनिया में है मजरूह मेरी सादा-दिली
क्या इसी वास्ते ये सादा तबीअत दी है
ज़ख़्म-ए-दिल भर गए कुछ और इनायत कर दें
इतनी सी बात है साहब जो यूँ ज़हमत दी है
मुझ को इस दहर के दोज़ख़ में जलाया है सदा
कहने को क़दमों के नीचे मेरे जन्नत दी है
उस ने मुझ को फ़क़त ग़म ही नहीं बख़्शे हैं
मेरे लहजे को जुनूँ सोच को वहशत दी है
सब से मिलता है तो हँस हँस के सितम ढाता है
मेरे जज़्बों को कहाँ तू ने ये क़ुर्बत दी है
तुझ को अल्लाह बचाए सदा नज़र-ए-बद से
तुझ को “शहनाज़” ख़ुदा ने हसीं सूरत दी है,”
है नहीं यह बेहतरीन शायरी!
उर्दू शायरी ने हमेशा से ही इंसान की भावना को मूर्त रूप दिया है और पीढ़ियों से संस्कृति तथा साहित्य पर इसका
नाटकीय प्रभाव पड़ा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी गई गजलें, शेर और नज्में हमारी चेतना में आज भी ज़िंदा है। उर्दू शायरी का नाम सुनने पर अधिकांश लोगो के मन में सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब का ख्याल ही आता है ,बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जिनेक ज़ेहन में महिला शायरा की छवि आई होगी। पुराने समय में बहुत कम ही ऐसी महिलाएं थी जिन्होंने उर्दू शायरी की शुरुआती नींव में अपनी हिस्सेदारी निभाई हो । उस समय ‘रेख्ती’ शब्द नारीवादी उर्दू शायरी का एक रूप थी और इसे ग़ज़ल प्रारूप में लिखा जाता है। इसकी खासियत और पहचान यह है कि इसमें पुरुष शायर औरतों की जुबान में शायरी करते है। रेख्ती में शायर औरतों के भाव, उनके जज्बात, दो महिलाओं की बातचीत, औरतों से संबधित मुद्दों पर शेर कहते है और यह सभी शेर औरत की जुबान में होते है। ग़ालिब, जौक और मीर तकी मीर रेख्ती कहने में बहुत माहिर थे। रेख्ती के द्वारा शायरों ने महिला इच्छा के बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। हालांकि रेख़्ती जल्द ही आम हो गई, इसने उर्दू शायरी में महिलाओं के लिए जगह बनाने में मदद की।
आइए जानते हैं उन महिलाओं के बारे में, जिन्होंने उर्दू शायरी को आगे बढ़ाया:
महा लाक़ा चंदा 18वीं सदी की पहली मशहूर ऊर्दू शायरा थीं। साथ ही वह पहली महिला थी जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को एक किताब की शक्ल दी थी। उन्होंने आने वाली पीढ़ियों में नई शायराओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 1768 में चंदा बीबी के रूप में जन्मी महा लाक़ा चंदा एक मशूहर तवायफ़ थीं। उन्होंने कम उम्र में तीरंदाजी और घुड़सवारी जैसे कई कौशलों को सीखा और उनमें महारत हासिल की। उन्होंने ऐसे समय में लिखने का साहस किया जब काव्य और लेखन साहित्य पुरुषों तक ही सीमित था। सारी बाधाओं को पार करते हुए उन्होंने 18वीं शताब्दी में हैदराबाद के एक पुरुष प्रधान कविता दृश्य में अपना नाम बनाया और प्रसिद्धि हासिल की। उन्होंने अपनी गज़लों की किताब छपवाई जिसका नाम ‘गुलज़ार-ए-महलका’ रखा। उन्होंने यह किताब साल 1798 में लिखी और इस किताब में 39 गज़लें थीं।
इसके बाद नाम आता है अदा जाफरी का, जो उर्दू में कविता लिखने वाली पहली महिला बनी और जिन्होंने उर्दू कविता में मुक्त छंद के साथ प्रयोग किया। इनका काम महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमता है और समाज में अमानवीयकरण के बारे में विस्तार से बोलता है। इसलिए यह अपने समय की एक विवादास्पद कवियित्री रही। कवयित्री होने के साथ-साथ वे एक लेखिका भी थी और समकालीन उर्दू साहित्य मे उनका विशिष्ठ स्थान है।
सारा शगुफ़्ता, जिन्होंने जीवन भर अपने काम में कई कठिनाइयों और आरोपों का सामना किया,की यह खूबी थी कि वे अपने तमाम गम और दर्द को ग़ज़ल और नज़्म में तब्दील कर देतीं थीं। उन्होंने जल्द ही साहित्यिक दुनिया में एक शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज कर ली थी। सारा की दोस्ती मशहूर भारतीय उपन्यासकार अमृता प्रीतम से थी। पाकिस्तान की इस शायरा ने दोस्ती में कभी भी सरहदों का कोई बंधन नहीं माना।
किश्वर नाहिद, पाकिस्तान की एक नारीवादी उर्दू कवियित्री है जो खासतौर पर अपने स्त्रीवादी विचारों के लिए मशहूर है। इन्होंने अनगिनत महिलाओं के अनुभव का दस्तावेजीकरण किया है जो पितृसत्तात्मक मानदंडों के अधीन हैं। उनका काम अक्सर उन प्रथाओं के खिलाफ बोलता है जो एक महिला को पुरुषों की एकमात्र संपत्ति के रूप में देखतीं हैं।
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