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शर्की राजवंश के शासनकाल के दौरान हमारे जौनपुर शहर को, उर्दू और सूफी ज्ञान तथा सूफी संस्कृति का प्रमुख केंद्र माना जाता था। शर्की राजवंश, मुसलमानों और हिंदुओं के बीच अपने उत्कृष्ट सांप्रदायिक संबंधों के लिए जाना जाता था।
हालांकि, 1480 में सिकंदर लोधी के आक्रमण के साथ ही जौनपुर की स्वतंत्रता भी छिन गई थी। इसके बावजूद शर्की शासकों ने सत्ता को फिर से हासिल करने के लिए कई वर्षों तक ढेरों प्रयास किये, लेकिन अंततः वह असफल ही रहे।
लोधियों के कब्जे के साथ ही जौनपुर के कई शर्की स्मारक भी नष्ट हो गए। हालांकि, इसके बावजूद शहर की कई महत्वपूर्ण मस्जिदें (अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद,लाल दरवाजा मस्जिद ) अभी भी बची हुई हैं। जौनपुर की मस्जिदें एक अनूठी स्थापत्य शैली प्रदर्शित करती हैं, जिसमें पारंपरिक हिंदू और मुस्लिम रूपांकनों को विशुद्ध रूप से मूल तत्वों के साथ जोड़ा गया है। मस्जिदों के साथ ही इब्राहीम लोधी ने जौनपुर में कई ऐतिहासिक इमामबाड़े भी तोड़ डाले। हालांकि, इनमें से कुछ इमामबाड़े जैसे हमजापुर ,पंजेशरीफ़, कदम ऐ रसूल, इमामबाडा मीर घर, इमामबाडा ज़ुल्कादर बहादुर, इमामबाडा बुआ बीबी बाज़ार भुआ, कल्लू का इमामबाड़ा, इत्यादि आज भी मौजूद हैं। शर्की साम्राज्य के दौरान जौनपुर अपनी शिक्षा के लिए जाना जाता था और उस समय इस्लामिक समुदाय के हर घर में इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं पर महत्व दिया जाता था। हालांकि, धीरे-धीरे चीजें बदलने लगी और शिक्षा का स्तर भी गिरने लगा।
यदि हम वर्तमान की बात करें, तो जौनपुर जिले में शिया समुदाय की आबादी लखनऊ के बाद दूसरे नंबर पर आती है। किंतु जौनपुर में आज जनसंख्या की तुलना में शिक्षण संस्थानों की संख्या काफी कम है। जीवन स्तर भी अच्छा नहीं है, अधिकांश लोगों को गरीबी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है और उनकी आर्थिक पृष्ठभूमि असंतोषजनक होती जा रही है। लेकिन इस्लाम में शिक्षा की यह दुर्दशा कई मायनों में आधुनिक मानी जाती है। आपको जानकर हैरानी होगी कि एक समय ऐसा भी था जब इस्लाम और इल्म (ज्ञान) एक दूजे के पर्याय माने जाते थे।
इस्लाम में ज्ञान अथवा इल्म की अहमियत को आप एक रोचक घटना से बेहतर समझ सकते हैं। दरअसल, एक बार इमाम अली इब्न अबु तालिब और सय्यदा फ़ातिमा बिन्त मुहम्मद के पहले बेटे इमाम हसन ने अपने परिवार के सदस्यों को बुलाया और कहा कि समाज में प्रतिष्ठित होने और सम्मान प्राप्त करने के लिए उन्हें कम उम्र से ही ज्ञान प्राप्त करना शुरू कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ज्ञान की खोज करना बेहद जरूरी है, क्योंकि यह एक व्यक्ति को अल्लाह के करीब ले जाता है। साथ ही यह व्यक्ति को समाज का एक प्रतिष्ठित और सम्मानित सदस्य भी बना सकता है। हमें हर दिन ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और अपना खाली समय तुच्छ कार्यों को करने में बर्बाद नहीं करना चाहिए। ज्ञान को इबादत के रूप में गिना जाता है। ज्ञानी व्यक्ति की प्रार्थना की दो इकाइयाँ (अजान) उपासक की एक हजार इकाइयों की प्रार्थना से बेहतर हैं।
हमें अपने बच्चों को कम उम्र से ही पढ़ाना शुरू कर देना चाहिए, ताकि वे उचित जीवन कौशल सीख सकें । हमें स्वयं उदाहरण बनकर अपनी पीढ़ियों को ज्ञान प्राप्त करने की अहमियत समझानी चाहिए। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों का मार्गदर्शन करें और दूसरों द्वारा उन्हें भ्रष्ट करने से पहले उनमें ज्ञान प्राप्त करने के लिए रूचि पैदा करें। हमारे बच्चे अल्लाह द्वारा हमें दिया गया एक विश्वास हैं, इसलिए हमें उनके साथ पवित्र पैगंबर और इमाम से हमें दिए गए अनमोल ज्ञान को साझा करके इस विश्वास का सम्मान करना चाहिए।
इसी कड़ी में अली शरियाती की सीख आज शियाओं के लिए उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके जीवन काल में थी । क्रांतिकारी ईरानी विचारक और कार्यकर्ता अली शरियाती, आधी सदी पहले एक सुधारवादी, प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारक के रूप में पूरे ईरान में छा गए थे। शरियाती के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक, तशी अल्वी-ओ-ताशी सफवी ('अल्वी शियावाद और सफविद शियावाद' (Tashii Alavi-o-Tashii Safavi (‘Alavi Shiism and Safavid Shiism’) का अनुवाद एक पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था। अली शरियाती द्वारा लिखित इस पुस्तक में, उन्होंने शिया धर्म को दो अलग-अलग अवधियों और दो विरोधी दृष्टिकोणों में विभाजित किया है। पहली अवधि ईरान में अली (इस्लाम के चौथे खलीफा) से पूर्व- सफ़वीद काल तक चलती है; और दूसरी अवधि सफ़विद साम्राज्य के आगमन से लेकर आज तक चल रही है। उन्होंने पहले प्रकार के शियावाद को ‘अलवी शियावाद' की संज्ञा दी है, जिसके मानक-वाहक स्वयं अली ही थे। दूसरे प्रकार को ‘सफ़विद शियावाद' कहा जाता है, जिसके संस्थापक सफ़वीद साम्राज्य के शासक सुल्तान शाह अब्बास सफ़वी थे। शिया धर्म के इतिहास को इस प्रकार दो भागों में विभाजित कर शरियाती ने यह सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों में वैचारिक, सांस्कृतिक, सैद्धान्तिक, तार्किक, शैक्षिक और सामाजिक अन्तर उतना ही बड़ा है जितना कि धरती और आकाश के बीच फासला है।
शरियाती अल्वी शियावाद को समझौते और व्यक्तिगत हितों से स्वतंत्रता पर आधारित और प्रतिरोध, क्रांति, एकता ,ज्ञान और चेतना पर आधारित मानते हैं। दूसरी ओर, वह सफ़वीद शियावाद को एक ऐसे रूप में देखते है जिसका उपयोग सफ़वीद परिवार द्वारा सत्ता के उद्गम के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए किया गया था ।
अली शरियाती कहते हैं आज सामान्य शिया स्वीकार करते हैं कि हुसैन की प्रथाएं उनके विश्वास की नींव हैं। एक स्तर पर मजलिस (सभाएं) और शोक जुलूस शिया समुदाय के स्थायित्व की गारंटी हैं - कोई भी जागरूक शिया इससे इनकार नहीं कर सकता है।” शरियाती सवाल पूछते हैं कि “क्या इमामों की आस्था सिर्फ यही थी? क्या इमामों में लोगों का विश्वास केवल उनके जन्म और शहादत को याद करने और उनके गुणों और कष्टों के बारे में व्याख्यान सुनने तक सीमित था? यदि नहीं, तो कर्मकांडों तक सीमित यह विश्वास कहां से आया - और उस बिंदु तक पहुंच गया जहां शियाओं का एकमात्र कर्तव्य इमामों की शहादत पर रोना और उनके जन्म पर खुश होना प्रतीत होता है?”
अंत में शिया समुदाय में अपना विश्वास दिखाते हुए शरियाती ने लिखा है “शिया उन नेताओं का खंडन करते हैं जिन्होंने पूरे इतिहास में पैगंबर के उत्तराधिकार के माध्यम से मुसलमानों पर शासन किया । शिया इस्लाम के ख़लीफ़ाओं की भव्य मस्जिदों और शानदार महलों से मुंह मोड़ लेते हैं और फातिमा के अकेले मिट्टी के घर की ओर मुड़ जाते हैं। शिया, जो खिलाफत व्यवस्था में उत्पीड़ित, न्याय चाहने वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे इस घर में जो कुछ भी और जिसे वे खोज रहे हैं उसे पाते हैं।”
संदर्भ
https://bit.ly/3kmi7n4
https://bit.ly/3EupK1r
https://bit.ly/3EqtSPZ
https://bit.ly/3EuyYeq
चित्र संदर्भ
1. पढाई करती छात्राओं को दर्शाता एक चित्रण (Pixnio)
2. जौनपुर की अटाला मस्जिद को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
3. एक इस्लामिक दरबार को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
4. क्रांतिकारी ईरानी विचारक और कार्यकर्ता अली शरियाती को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. डॉ. अली शरियाती फैकल्टी ऑफ लेटर्स एंड ह्यूमैनिटीज सदस्यों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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