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स्‍वामी दयानंद सरस्वती जी का शैक्षिक दर्शन

जौनपुर

 28-01-2023 10:27 AM
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा

'वेदों की ओर लौटो' का प्रसिद्ध नारा देने वाले स्वामी दयानंद जी एक महान शिक्षाविद्, समाज सुधारक और एक सांस्कृतिक राष्ट्रवादी थे । दयानंद सरस्वती जी का सबसे बड़ा योगदान ‘आर्य समाज’ की नींव रखना था जिसने शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में क्रांति ला दी। स्वामी दयानंद सरस्वती वर्तमान भारत के सबसे महत्वपूर्ण सुधारकों और आध्यात्मिक शक्तियों में से एक हैं ।
उन्होने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म तथा सन्यास को अपने दर्शन का स्तम्भ बनाया । दयानंद सरस्वती के दर्शन को उनकी प्रसिद्ध कृतियों जैसे "सत्यार्थ प्रकाश", “सत्यार्थ भूमिका”, " ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" आदि द्वारा जाना जा सकता है । जहाँ एक ओर वे वेदों और अन्य पवित्र ग्रंथों के प्रबल समर्थक थे, वहीं उनका दृष्टिकोण तर्कवादी भी था। उन्होंने कभी भी किसी चीज के गुण-दोष पर विचार किए बिना उसे स्वीकार नहीं किया । उनकी महान रचना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ उनके तर्कवाद का एक शानदार प्रमाण है । इस पुस्तक के उद्देश्य के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा कि मनुष्य को सत्य और असत्य में अंतर करना आना चाहिए क्योंकि सत्य के अलावा कोई अन्य वस्तु मनुष्य को नहीं सुधार सकती। दयानंद जी का शैक्षिक दर्शन वैदिक दर्शन के समान ही है, हालांकि वैदिक दर्शन की उनकी व्याख्या अद्वितीय है। जब उन्होंने पहली बार अपने वैदिक दर्शन के पाठ का प्रचार किया, तो हिंदू धर्म और दर्शन को मुसलमानों और ईसाई धर्मों के हमलों से बचाने की सबसे ज्‍यादा आवश्यकता थी। उन्होंने अपने वैदिक दर्शन के प्रचार एवं प्रभाव से हिन्दू समाज को बचाया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई संस्कृतियों के प्रभाव से प्राचीन हिंदू मूल्यों की रक्षा की और सोच के पारंपरिक तरीकों को बनाए रखने की कोशिश की। शिक्षा पर उनके विचारों का समकालीन शैक्षिक दर्शन के लिए बहुत महत्व है । शिक्षा के दर्शन और अभ्यास के प्रति स्वामी दयानंद जी का योगदान उल्लेखनीय है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आधुनिक भारत की शिक्षा का इतिहास उनके गौरवशाली योगदान के बिना पूरा नहीं हो सकता।
स्वामी दयानन्द के अनुसार शिक्षा गुरु, आत्म-विकास और सभी जीवों के कल्याण के बारे में सही और वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। शिक्षा मनुष्य में सेवा की भावना और दूसरों की मदद करने की भावना उत्पन्न करती है । इस प्रकार स्वामी जी के अनुसार शिक्षा मानव जाति के विकास के लिए एक सर्वोच्च और सबसे महत्वपूर्ण नैतिक प्रक्रिया है।
स्वामी दयानंद जी कहते हैं, "शिक्षा के बिना व्यक्ति केवल नाम का व्यक्ति है। शिक्षा प्राप्त करना, सदाचारी बनना, द्वेष से मुक्त होना और धर्म को आगे बढ़ाना एवं लोगों की भलाई के लिए कार्य करना मनुष्य का कर्तव्य है । शिक्षा में इनाम और सजा के मनोवैज्ञानिक महत्व को स्वीकार करते हुए दयानंद जी ने उन्हें प्रत्येक प्रकार की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना है। उनके अनुसार बच्चे की शिक्षा में इनाम और सजा (मौखिक) का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
स्वामी दयानन्द के अनुसार नैतिक शिक्षा में सद्गुणों को प्रोत्साहित करना और दूसरी ओर दोषों को निरुत्साहित करना शामिल है। बच्चों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए माता-पिता और शिक्षकों को स्वयं उच्च आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए। स्वामी दयानन्द के अनुसार मनुष्य तभी विद्वान होता है जब उसके पास तीन उचित प्रशिक्षक माता, पिता और गुरु हों । वह उस बच्चे को सबसे अधिक भाग्यशाली मानते हैं जिसके माता-पिता धर्म और विद्या से युक्त होते हैं।
जहां तक स्त्री शिक्षा की बात है , स्वामी जी इस बात की ओर पुरजोर वकालत करते हैं कि सभी महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए । माता-पिता द्वारा बेटियों को भी बेटों के समान स्कूल जाने के समान अवसर दिए जाने चाहिए। हालांकि, वह सह-शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, और लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग स्कूलों की वकालत करते थे । उनके अनुसार पढ़ाई का पाठ्यक्रम भी लड़कों और लड़कियों के लिए थोड़ा अलग होना चाहिए । उचित शिक्षा एवं छात्रों के पूर्ण विकास के लिए स्वामी दयानंद जी ने शिक्षक की भूमिका को बहुत महत्व दिया है। उनके अनुसार शिक्षकों को विद्वान, अच्छे चरित्र वाले और अपने कार्य के प्रति समर्पित होना चाहिए। शिक्षकों को अहंकारी भी नहीं होना चाहिए ।गुरु और शिष्य के बीच पिता और पुत्र जैसा घनिष्ठ संबंध होना चाहिए।शिक्षा की अपनी योजना में दयानंद जी ने पुरुषों और महिलाओं के लिए लगभग समान प्रकार की शिक्षा निर्धारित की। चार वर्णों के शिक्षार्थियों के लिए एक सामान्य पाठ्यक्रम के अलावा, उन्होंने प्रत्येक वर्ण के लिए कुछ विशेष अध्ययन भी निर्धारित किए। प्राचीन भारतीय परंपरा में मातृभाषा और संस्कृत भाषा के पक्षधर होने के कारण उन्होंने सभी उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में संस्कृत की दृढ़ता से वकालत की। उन्होंने संस्कृत सीखने और उसमें महारत हासिल करने के लिए पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों के बारे में भी विस्तार से लिखा। दयानंद जी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा का उद्देश्य ‘पूर्णता के लिए शिक्षा’ था। वह शिक्षा के द्वारा सर्वांगीण पूर्णता का अनुभव करना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने चरित्र और आचरण के बहुत उच्च स्तर की मांग की। स्वामी जी ने छात्रों को वेदों और समकालीन अंग्रेजी शिक्षा दोनों का ज्ञान प्रदान करने के लिए एक अद्यतन पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया जिसके लिए उन्होंने एंग्लो-वैदिक (Anglo-Vedic) स्कूलों की शुरुआत करके भारत की शिक्षा प्रणाली का संपूर्ण कायापलट कर दिया।
मानवतावादी आदर्श के रूप में पूर्णता के आदर्श के अलावा, दयानंद जी ने सभी अंधविश्वासों, अवैज्ञानिक विश्वासों, अमरताओं और धोखे की कड़ी निंदा करते हुए अपनी मानवतावादी प्रवृत्ति दिखाई। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अपने समर्थन में, वह कई समकालीन प्रत्यक्षवादियों की तुलना में अधिक सकारात्मक थे। वह मानव जीवन के हर क्षेत्र में कारण के उपयोग पर जोर देने वाले अग्रणी तर्कवादियों में से एक थे। जहाँ एक ओर, वे वेदों के प्रति पूर्ण सम्मान रखते थे, जिन्हें वे दिव्य मानते थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सभी को सलाह दी कि वे सत्य और असत्य में भेद करें और तर्कसंगत मानदंड का उपयोग करें और केवल वही स्वीकार करें जो ध्वनि तर्क द्वारा समर्थित हो। इस प्रकार, अगर उनकी शिक्षा की योजना में कुछ पुराना प्रतीत होता भी है तो शायद ही वह इसके मूल्य को कम करता है । आर्य समाज की स्थापना: स्वामी दयानंद जी ने 7 अप्रैल, 1875 को बंबई (वर्तमान मुंबई) में 10 सिद्धांतों के साथ आर्य समाज की स्थापना की, जो विशुद्ध रूप से ईश्वर, आत्मा और प्रकृति पर आधारित हैं । आर्य समाज ने कई अलग-अलग धर्मों और समुदायों की कुप्रथाओं की निंदा की, जिसमें मूर्ति पूजा, पशु बलि, तीर्थयात्रा, पुजारी शिल्प, मंदिरों में चढ़ावा, जाति, बाल विवाह, मांस खाने और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव जैसी प्रथाएं शामिल हैं । उन्होंने तर्क दिया कि ये सभी प्रथाएं सही समझ और वेदों के ज्ञान के विपरीत हैं । संगठन ने अपनी मान्यताओं और विचारों से भारतीयों की धार्मिक धारणाओं में भारी बदलाव लाये । इस समुदाय की स्थापना करके, उन्होंने इस विचार को स्थापित किया कि सभी कार्यों को मानव जाति को लाभ पहुंचाने के मुख्य उद्देश्य के साथ किया जाना चाहिए।
दयानंद सरस्वती का मुख्य उद्देश्‍य हिंदुओं को उनके धर्म के मूल, जो कि उनके अनुसार वेद हैं की ओर ले जाना था । उनका मानना था कि वेदों के ज्ञान की सहायता से हिंदू उस समय देश में प्रचलित अवसादग्रस्त धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों को सुधारने में सक्षम होंगे । उनके अनुयायियों में श्री अरबिंदो, एस राधाकृष्णन और बाबा रामदेव शामिल हैं।

संदर्भ:
https://bit.ly/3kpitZy
https://bit.ly/3IRE1Iw
https://bit.ly/2P37Lb7

चित्र संदर्भ
1. वेदों की ओर लौटो का संदेश देते हुए दयानंद सरस्वती को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
2. सत्यार्थ प्रकाश को संदर्भित करता एक चित्रण (amazon)
3. दयानंद सरस्वती की छवि को संदर्भित करता एक चित्रण (amazon)
4. आर्य समाज को समर्पित 2000 का डाक टिकट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)



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