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भारत और तुर्की (Turkey) के बीच का संबंध काफी प्राचीन है।दिल्ली के सुल्तानों और शुरुआती मुगलों
के तहत भारतीय राजनीति पर तुर्की भाषा का उल्लेखनीय प्रभाव रहा है। तुर्की के कई शब्दों का उपयोग
आमतौर पर हिंदी, उर्दू और अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी किया जाता है। मुगल सम्राट बाबर,तुर्क-
उज़बेक (Turko-Uzbek) भाषा का उपयोग करने वाले एक सफल लेखक और कवि थे।
उन्हें गद्य और
पद्य दोनों में एक विशेष शैली के आविष्कारक के रूप में भी जाना जाता है। रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी में
50 ऐसी दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों का संग्रह मौजूद है, जो तुर्की भाषा में हैं। महत्वपूर्ण बात यह है,
कि पुस्तकालय में बाबर की बयाज़(Babur's Bayaz) की एक अनूठी पांडुलिपि है,जिसे दीवान-ए-बाबर
(Diwan-i-Babur) भी कहा जाता है। इसमें एक तुर्की रुबाई है, जिसे बाबर ने स्वयं लिखा है। इसके मुख
पृष्ठ पर अकबर (Akbar) के जनरल, मुहम्मद बैरम खान (Muhammad Bairam Khan) की मोहर
और हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने गलत तरीके से दीवान के लेखन का श्रेय बाबर को दिया। बाद में इस गलती
को बादशाह शाहजहाँ (Shah Jahan) ने अपने हाथ से लिखकर सही किया, कि केवल रूबाई ही फिरदौस
मकानी (Firdaus Makani - बाबर) द्वारा लिखी गयी है। स्पष्ट रूप से यह A.H.935 (1528 ईस्वी)
की शाही प्रति है। इसमें बाबर की उर्दू में लिखी गयी एक उल्लेखनीय कविता भी है।
तुर्की भाषा की अन्य दुर्लभ पांडुलिपियों में नस्तलिक (Nastaliq) लिपि में तुर्की भाषा में दीवान-ए-बैरम
खान (Diwan-i-Bairam) की एक अनोखी लेकिन अधूरी प्रति भी है। पक्षियों और फूलों की चित्रकारी से
बनाया गया इसका किनारा अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। तुर्की भाषा के नवीनतम कार्यों
में से एक शास्त्रीय कवि इंशा अल्लाह खान इंशा (Insha Allah Khan Insha) की डायरी (रोज़नामचाह -
Roznamchah) भी है, जिसमें अवध के दरबार के सम्बंध में महत्वपूर्ण जानकारियां दी गयी हैं।
भारत-तुर्की संबंध, भारत और तुर्की के बीच द्विपक्षीय संबंधों को संदर्भित करता है। भारत और तुर्की के
बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना 1948 में हुई, तथा इसके बाद से गर्मजोशी और सौहार्द इस
राजनीतिक और द्विपक्षीय संबंधों की विशेषता रहा है।हालाँकि, दोनों के बीच कुछ तनाव भी देखने को
मिलता है, क्यों कि तुर्की भारत के प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान का समर्थक है, तथा पाकिस्तान को भारत की
अपेक्षा अधिक महत्व देता है।
प्राचीन भारत और एंटोलिया (Anatolia) के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध वैदिक युग (1000 ईसा
पूर्व से पहले) से हैं। मध्यकालीन युग में भारतीय मुसलमानों और तुर्की के बीच एक मजबूत ऐतिहासिक
संबंध था, जिसे 19 वीं और 20 वीं सदी की अंत तक बढ़ावा मिलता रहा। भारत और तुर्की के बीच
सांस्कृतिक सम्बंध भी देखने को मिलते हैं।तुर्की का प्रभाव भारत में भाषा, संस्कृति,सभ्यता,
कला,वास्तुकला, वेशभूषा, व्यंजन आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से देखने को मिलता है। हिंदी और तुर्की
भाषाओं में 9,000 से भी अधिक शब्द समान हैं।सन् 1912 में बाल्कन युद्धों के दौरान प्रसिद्ध भारतीय
स्वतंत्रता सेनानी, डॉ एम. ए. अंसारी के नेतृत्व में तुर्की के लिए चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करायी गयी
थी। भारत ने 1920 के दशक में तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम और तुर्की गणराज्य के गठन में भी सहयोग
दिया था।इसके अलावा प्रथम विश्व युद्ध के अंत में तुर्की पर हुए अन्याय के खिलाफ महात्मा गांधी ने
भी उनका साथ दिया था। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता की घोषणा के ठीक बाद तुर्की ने भारत को
मान्यता दी और दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हुए।
चूंकि,शीत युद्ध के दौर में तुर्की
पश्चिमी गठबंधन और दूसरी तरफ भारत, गुटनिरपेक्ष आंदोलन का हिस्सा था, इसलिए द्विपक्षीय संबंध
वांछित गति से विकसित नहीं हुए। हालांकि, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से, दोनों पक्षों ने हर क्षेत्र में
अपने द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने का प्रयास किया।दोनों ही देश प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के G20
समूह के सदस्य हैं, जहां दोनों ही देशों ने विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के लिए निकटता से सहयोग
किया है। भारतीय पूंजी वाली 150 से अधिक कंपनियों ने तुर्की में अपना कारोबार पंजीकृत किया है, जो
कि संयुक्त उद्यमों, व्यापार और प्रतिनिधि कार्यालयों के रूप में है। तुर्की का पहला नैनो उपग्रह
“ITUpSAT1", जिसे इस्तांबुल (Istanbul) तकनीकी विश्वविद्यालय के वैमानिकी संकाय में निर्मित किया
गया था, को 23 सितंबर 2009 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा PSLV C-14 रॉकेट पर
अंतरिक्ष में भेजा गया था।
आधुनिक समय में भारत में तुर्की लोगों की संख्या बहुत कम रह गयी है। 1961 की जनगणना में, 58
लोगों ने कहा था,कि उनकी मातृभाषा तुर्की है।2001 की जनगणना के अनुसार, भारत के 126 निवासियों
ने अपना जन्म स्थान तुर्की बताया। भारत में तुर्क मूल के लोग उत्तर भारत में मौजूद हैं, मुख्य रूप से
दिल्ली, गाज़ियाबाद, अमरोहा, मुरादाबाद, रामपुर, संभल, बिजनौर, मुजफ्फर नगर, मेरठ, उधमसिंह नगर,
नैनीताल, हल्द्वानी,देहरादून, भोपाल और गुजरात के जूनागढ़ में।ऐसा माना जाता है, कि तुर्क सैनिक
बनकर भारत आए, जिन्होंने 11 वीं शताब्दी के योद्धा-संत गाजी सय्यद सालार मसूद (Ghazi Saiyyad
Salar Masud) (लगभग 1014 - 1034) का साथ दिया था।
इसके बाद भारत में तुर्कों का बसना शुरू
हुआ।वास्तव में कुछ तुर्क समूह, विशेष रूप से वे जो रामपुर में हैं, मूल रूप से मध्य एशिया (Asia) के
प्रवासी हैं, और अलाउद्दीन खिलजी (AlauddinKhalji), शहाबुद्दीन गोरी (Shahabddin Ghori) और
अमीर तैमूर लेन (Amir Timur lane) की सेना में आए थे।वहीं बात करें, तुर्क की, तो यहां भारत के
लोगों की संख्या बहुत कम है। लगभग 100 भारतीय परिवार तुर्क में रहते हैं,जिनमें से अधिकांश
बहुराष्ट्रीय निगमों में डॉक्टर और कंप्यूटर इंजीनियर या कर्मचारी के रूप में काम करते हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3hpWBtO
https://bit.ly/3vZsSM4
https://bit.ly/3tNJ2a1
चित्र संदर्भ
1. तुर्की नृत्य को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. नस्तलिक (Nastaliq) लिपि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. हैदराबाद हाउस, नई दिल्ली में भारत और तुर्की के बीच समझौतों के आदान-प्रदान को को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. PSLV C-14 को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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