जौनपुर ज़िले में स्थित ज़फ़राबाद शहर को भारत में कागज़ निर्माण के शुरुआती केंद्रों में से एक माना जाता है। भारत सहित दुनियाभर में कागज़ के विस्तार की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है। 751 ई. में तलास के निकट अतलाख की लड़ाई के बाद, चीनी युद्धबंदियों को समरकंद ले जाया गया था। इन सैनिकों को लिनन, सन या भांग के लत्ता से कागज़ बनाने की तकनीक पहले से पता थी। कागज़ निर्माण की तकनीक अरबों तक पहुँचने के बाद, हारून-अल-रशीद (786-809 ई.) के शासनकाल के दौरान, बग़दाद में भी कागज़ का निर्माण शुरू हो गया। सिंध पर अरबों की विजय के साथ ही खुरासानी कागज़ को पहली बार आठवीं शताब्दी ई. में, भारत में लाया गया। आज हम मध्यकालीन युग के दौरान, भारतीय कागज़ उद्योग के इतिहास को समझेंगे। साथ ही, हम भारत में कागज़ निर्माण के कुछ केंद्रों पर प्रकाश डालेंगे। इसके अलावा हम, मध्यकालीन भारत में इस्तेमाल की जाने वाली कागज़ बनाने की विभिन्न तकनीकों का भी पता ।
भारत में मशीन से बने कागज़ की यात्रा 1812 में शुरू हुई। उस समय, कागज़ बनाने के लिए, मुख्य रूप से सॉफ़्टवुड (Softwood) का इस्तेमाल किया जाता था। हालाँकि आज, बढ़ती ज़रूरतों के कारण सॉफ्टवुड के बजाय, लकड़ी के रेशे ने पसंदीदा विकल्प के रूप में बढ़त ले ली है।
भारत में पहला कागज़ उद्योग, कश्मीर में सुल्तान ज़ैनुल आबेदीन द्वारा 1417 से 1467 ई. के बीच स्थापित किया गया था।
भारत की पहली पेपर मिल, 1812 में पश्चिम बंगाल के सेरामपुर में स्थापित की गई थी। दुर्भाग्य से, उस समय कागज़ की मांग कम होने के कारण यह मिल सफल नहीं हो पाई। हालांकि गुज़रते समय के साथ, भारत में कागज़ की मांग बढ़ने लगी। इसी के साथ ही भारत में कागज़ निर्माण कंपनियाँ भी बढ़ने लगीं। प्राचीन काल में हमारे जौनपुर के ज़फ़राबाद शहर को काग़दी शहर यानी "कागज़ के शहर" के रूप में जाना जाता था। इस शहर को बांस से बने बढ़िया और चमकदार कागज़ के निर्माण के लिए भी जाना जाता था। यहाँ आमतौर पर दो तरह के (पॉलिश किया हुआ कागज़, जो बहुत चमकदार होता था और बिना पॉलिश किया हुआ कागज़) बनाए जाते थे।
मुग़ल काल के दौरान, दौलताबाद और औरंगाबाद (महाराष्ट्र) भारतीय कागज़ उद्योग के दो सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरे। मैसूर में टीपू सुल्तान द्वारा भी कागज़ निर्माण केंद्रों की स्थापना की गई। यहाँ निर्मित कागज़ों का उपयोग राजकीय उद्देश्यों के लिए किया जाता था। बाद में लेखन सामग्री की बढ़ती मांग के कारण, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कागज़ निर्माण केंद्रों की स्थापना हुई। भारत के कुछ सबसे पुराने और उल्लेखनीय कागज़ निर्माण केंद्रों में पंजाब में सियालकोट, जौनपुर में ज़फ़राबाद, बिहार में अज़ीमाबाद , गया में अरवल, बंगाल में मुर्शिदाबाद और हुगली, गुजरात में अहमदाबाद, खंबात और पाटन तथा दक्षिण में औरंगाबाद और मैसूर शामिल थे ।
इन सभी में:
पंजाब, कागज़ उत्पादन के अग्रणी केंद्र के रूप में उभरा। सियालकोट में उत्पादित कागज़ को अपने सफ़ेद रंग और मज़बूती के लिए जाना जाता था। इस कागज़ का उपयोग पूरे पंजाब में किया जाता था।
मध्यकाल में बिहार के अज़ीमाबाद और गया जिले में अरवल , दो महत्वपूर्ण कागज़ निर्माण केंद्र हुआ करते थे।
मध्यकाल में बंगाल में, मुर्शिदाबाद और हुगली को प्रमुख कागज़ निर्माण केंद्रों के रूप में अलग पहचान हासिल थी। बाद में, दिनाजपुर में भी कागज़ निर्माण शुरू किया गया।
समय के साथ, गुजरात भारत में सबसे बड़ा कागज़ उत्पादक क्षेत्र बन गया। यह देश के अन्य हिस्सों को कागज़ की आपूर्ति करता था। इसके अलावा, गुजरात से पश्चिम, विभिन्न एशियाई देशों और तुर्की को भी कागज़ का निर्यात किया जाता था। अहमदाबाद को गुजरात में सबसे बड़ा कागज़ निर्माण केंद्र माना जाता था। यहाँ पर सफ़ेद और चमकदार कागज़ का उत्पादन किया जाता था।
उस समय, कागज़ बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मुख्य औज़ारों में ढेगी (हथौड़ा), छपरी, साचा (सागौन की लकड़ी का फ़्रेम ), कुंचवा (मुलायम खजूर का ब्रश) और पॉलिश करने वाला पत्थर शामिल थे। कागज़ बनाने की तकनीकें, पूरे देश में एक समान थीं। लेकिन उनकी अलग-अलग सामग्रियों से लुगदी तैयार करने की प्रक्रिया भिन्न थी।
इन सभी में कच्चा या रफ़ कागज़ बनाने की प्रक्रिया बहुत आसान थी। कच्चे कागज़ को टुकड़ों में फाड़कर रंग के अनुसार छांटा जाता था। फिर इसे पानी से गीला , पत्थरों से पीटा और तीन दिनों तक धोया जाता था। इसके बाद, भीगे हुए रफ़ कागज़ को लगभग 7 फ़ीट x 4 फ़ीट x 4 फ़ीट गहरे एक टैंक में रखा जाता था, जो आधा पानी से भरा होता था। इसकी लुगदी को तब तक हिलाया जाता था जब तक कि यह पूरी तरह से घुल न जाए।
टैंक के किनारे पर खड़ा एक व्यक्ति एक चौकोर फ़्रेम को पानी के नीचे एक स्क्रीन के साथ डुबोता और धीरे-धीरे इसे सतह पर उठाता था। इस प्रक्रिया के बाद, स्क्रीन पर लुगदी की एक समान फ़िल्म छूट जाती थी। फिर स्क्रीन को पलट दिया जाता, और कागज़ की फ़िल्म को एक चीर कुशन पर रखा जाता था। एक बार जब पर्याप्त परतें जमा हो जातीं, तो उनके ऊपर एक चीर बिछा दिया जाता और भारी पत्थरों से लदे एक तख़्त को इसके ऊपर रख दिया जाता था ।
पानी और अतिरिक्त नमी निकल जाने के बाद, पत्थरों को हटा दिया जाता था । इसके बाद कागज़ को हाथ से दबाया जाता था । जब कागज़ पर्याप्त रूप से संकुचित हो जाता था, तो उसे छीलकर इमारत की दीवारों पर या धूप में फैलाकर सुखाया जाता था। आखिर में सूखने के बाद, प्रत्येक शीट को एक खोल से तब तक रगड़ा जाता था जब तक कि वह चमक न जाए।
चलिए अब ग्लेज़्ड पेपर (Glazed Paper) बनाने की प्रक्रिया को समझते हैं:
सबसे पहले, कागज़ निर्माण के लिए प्रयुक्त होने वाली सामग्री को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता था। फिर इसे पानी से गीला किया जाता था और ढेगी नामक भारी स्थिर हथौड़े से पीटा जाता था। इसके बाद, सामग्री को साफ पानी से धोया जाता था। फिर इसे चूने से गीला किया जाता था और सात से आठ दिनों के लिए फर्श पर छोड़ दिया जाता था। इसके बाद, इसे दोबारा पीटा जाता, इसका ढेर बनाया जाता था और चार अतिरिक्त दिनों के लिए छोड़ दिया जाता था।
फिर वो सामग्री, जिसे रैग कहा जाता था, को सादे पानी से धोया जाता था। फिर इसे 1 खार और 38 भाग लुगदी के अनुपात में खार (सोडा का अशुद्ध कार्बोनेट) के साथ मिलाया जाता था और रात भर छोड़ दिया जाता था। रैग को फिर से धोया जाता और 1 खार और 40 भाग लुगदी के नए अनुपात में खार के साथ मिलाया जाता था। फिर इसे धूप में सुखाया जाता था।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2a4hjqss
https://tinyurl.com/27amx8qr
https://tinyurl.com/2xpqwttn
चित्र संदर्भ
1. मध्यकाल की पाण्डुलिपि में रामायण के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
2. कागज़ के ढेर को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक पेपर मिल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. जापान में कागज़ बनाने की प्रक्रिया को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. हानेमूलेह (Hahnemühle) नामक एक पुरानी जर्मन कागज़ मिल में कागज़ निर्माण की प्रक्रिया को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)