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काम की जगहों पर श्रमिकों का शोषण एक घिनौना सच है। कपड़ा उद्योग इससे अछूता नहीं है। इस उद्योग में पुरषों के साथ साथ महिलाएं भी भारी संख्या में काम करती हैं। अक्सर आप जो भी ब्रांड (Brand) के कपड़े पहनते हैं उसके निर्माण के पीछे इन श्रमिकों की बहुत मेहनत छिपी होती है। लेकिन कपड़ा विक्रेता अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए इन श्रमिकों का शोषण और उत्पीड़न करने पर उतारू है। सरकारी श्रम कानूनों के अभाव और,, ब्रांड्स एवं आपूर्तिकर्ताओं के प्रति आंतरिक शिकायत समिति के उदासीन रवैये के चलते वस्त्र उद्योग में श्रमिकों के शोषण की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं ।
लेकिन इस तरह के आरोप सिर्फ़ कपड़ा उद्योग तक ही सीमित नहीं हैं। सस्ती मज़दूरी और कमज़ोर श्रम क़ानूनों ने लंबे समय से भारत को विदेशी ब्रांडों के लिए एक आकर्षक जगह बना दिया है, विदेशी ब्रांड अक्सर भारतीय कर्मचारियों को काम बाह्य स्रोत के तौर पर देते हैं। निजी सेक्टर में कर्मचारी यूनियन ना के बराबर हैं जिसकी वजह से निजी क्षेत्र में ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों का शोषण आसान हो जाता है। जाँच अनिवार्य तो होती है लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से क़ानून तोड़ने वाली फ़ैक्ट्रियां दंड से बच जाती हैं। लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान कपड़ा उद्योग पर ही जाता है क्योंकि ये निर्यात पर आधारित है और दुनिया के सबसे बड़े ब्रांड इससे जुड़े हैं। चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा परिधान निर्माता और निर्यातक है। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कपड़ा निर्माता सीधे तौर पर 1 करोड़ 29 लाख लोगों को रोज़गार देते हैं जबकि फ़ैक्ट्रियों के बाहर भी दसियों लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं जिनमें से बहुत से अपने घरों से ही काम करते हैं।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) के अध्ययन के अनुसार, ऐसे लाखों लोग घर से काम करते हैं, जो भारत के गृह-आधारित श्रमिकों पर केंद्रित हैं, जिनमें ज्यादातर अल्पसंख्यक या हाशिए के समुदायों की महिलाएं और लड़कियां हैं। प्रमुख पश्चिमी ब्रांड भारतीय परिधान श्रमिकों को इस कार्य के लिए प्रति घंटे के हिसाब से औसतन केवल 11 पैसे का भुगतान करते हैं जोकि एक श्रमिक के कार्य के बदले बहुत ही कम भुगतान है। ये श्रमिक परिधान उत्पादन के कई कामों को करते हैं - आस्तीन काटने से लेकर बटन सिलने तक, कढ़ाई, मनके का काम और कपड़ों की वस्तुओं को अन्य "फिनिशिंग टच" देना आदि। एक अध्ययन के अनुसार एक कपड़ा फैक्ट्री में महिलाओं को केवल 35 पैसे प्रति घंटे के हिसाब से भुगतान किया जाता था। भारत में 1,452 श्रमिकों में से 19 प्रतिशत तक 10-18 वर्ष की आयु के दर्जनों छोटे बच्चे भी श्रमिकों के रूप में कार्यरत हैं। अध्ययन में कहा गया है कि न्यूनतम मजदूरी से वंचित किए जाने के अलावा, गृह-श्रमिकों के पास अपमानजनक या अनुचित परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। कपड़े की एक फ़ैक्ट्री में काम कर रही कई महिलाओं ने कार्यस्थल पर डर के माहौल और उत्पीड़न का ज़िक्र किया। उनका कहना है कि सुपरवाइज़र उन्हें अतिरिक्त काम करने के बारे में पहले से जानकारी नहीं देते, बल्कि काम पूरा न हो पाने पर या देर हो जाने पर नौकरी से निकालने की धमकी देते हैं। एक अन्य विधवा महिला, जिस पर पूरे परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी है वो बताती हैं, "वो हमसे इतनी देर तक काम करवाते हैं कि मैं घर लौटकर अपने बच्चों को खाना तक नहीं खिला पाती। वो हमें ग़ुलामों की तरह रखते हैं, उन्हें हमें कुछ तो इज़्ज़त देनी चाहिए।"
इन श्रमिकों के शोषण में जो थोड़ी बहुत कसर रह गयी थी वो इस बार कोरोना महामारी ने पूरी कर दी। कोरोना काल में कपड़ा उद्योग इस महामारी से उभरने की जद्दोजहद में लगा हुआ था, फैशन ब्रांड्स दाम में कटौती करने और माल के बदले में भुगतान में देरी की मांग कर रहे थे जिस वजह से लाखों श्रमिकों पर नौकरी जाने का संकट गहरा होता गया । भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों में, दसियों हज़ार श्रमिकों ने अपनी नौकरी खो दी और हजारों लोग बीमार हो गए क्योंकि COVID-19 काफी तेजी से फैल गया; लोगों को असुरक्षित या अनुचित परिस्थितियों का सामना पड़ा ।कई विशेषज्ञों का मानना है कि महामारी ने दुनिया की परिधान आपूर्ति श्रृंखलाओं की शोषक प्रकृति को उजागर किया है, जो हाल के दशकों में परिवर्तन के दौर से गुजरी है।
कम वेतन के साथ, वैश्विक स्तर पर परिधान श्रमिकों ने वर्षों से जीवित रहने के लिए संघर्ष किया है जिस कारण आपातकालीन स्थिति के लिए बचत करना उनके लिए लगभग असंभव था। जिसका अर्थ है कि जब कोरोना महामारी फैली, तो उनकी स्थिति और भी ख़राब हो गयी। बांग्लादेश सेंटर फॉर वर्कर्स सॉलिडैरिटी (Bangladesh Center for Workers Solidarity) की कार्यकारी निदेशक कल्पोना अक्तर (Kalpona Akter) ने कहा "कोविड ने हमें व्यवसायों, ब्रांडों, खुदरा विक्रेताओं और निर्माताओं के द्वारा किए गए खाली वादों की वास्तविकता दिखा दी है। श्रमिकों ने उन्हें वर्षों तक मुनाफा कमा कर दिया, और उन्हें एक शानदार जीवन दिया, लेकिन जब महामारी शुरू हुई तो उन्होंने श्रमिकों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया।" हाल के एक अध्ययन में, जिसमें नौ देशों के 400 परिधान श्रमिकों का साक्षात्कार लिया गया था, ‘वर्कर राइट्स कंसोर्टियम’ (Worker Rights Consortium) ने पाया कि मार्च और अगस्त 2020 के बीच उन कर्मचारियों की आय में भी 21% की कमी दर्ज की गई जो अपनी नौकरी पर बने रहने में कामयाब रहे।
ये दावे भारत के फ़ैक्ट्री एक्ट का उल्लंघन करते हैं जिनके तहत किसी कर्मचारी से सप्ताह में 48 घंटे और अधिक समय तक काम(over time) के साथ 60 घंटे से अधिक काम नहीं करवाया जा सकता। भारतीय क़ानून के मुताबिक़, महिलाओं से रात में काम तब ही करवाया जाएगा जब वो अपनी मर्ज़ी से काम करें, ओवरटाइम सिर्फ़ मर्ज़ी से ही करवाया जाएगा और कर्मचारियों को गालियां देना या डांटना भी निषेध है। कपड़ा उद्योग में लगे कर्मचारियों के लिए अधिक वेतन की माँग करने वाले संगठन ‘एशिया फ्लोर वेज अलाएंस ऑर्गेनाइज़ेशन’ (Asia Floor Wage Alliance Organization) ने भारत में कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन कम से कम 18,727 रुपए महीना तय किया है। परन्तु देखने को मिला है कि कई महिलाएं तो रोज़ाना सिर्फ़ ढाई सौ रुपए तक ही कमाती हैं।
कई बार तो वो ऐसे कपड़े बना रही होती हैं जो दसियों हज़ार रुपए में बिकते हैं। कई फैक्ट्रियां एशिया फ्लोर वेज अलायंस के प्रस्तावित न्यूनतम भत्ते के आसपास भी वेतन नहीं दे रही हैं। ‘लेबर बिहाइंड द लेबल’ (Labor Behind the Label) समूह के लिए काम करने वाली एना ब्रायहर (Anna Bryher) कहती हैं कि “ये ब्रांड की ज़िम्मेदारी है कि वो काम करने के लिए सुरक्षित और उचित परिस्थितियां सुनिश्चित करें, अगर आप एक ब्रांड हैं और आप दुनियाभर में अपने लिए कपड़े तैयार करवा रहे हैं तो ये भी आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप ये सुनिश्चित करें कि आपके लिए काम करने वाले कर्मचारियों को सम्मानजनक जीवन जीने ,लायक़ वेतन मिल रहा है या नहीं।“
श्रम अधिकारों के प्रचारक वरुण शर्मा का कहना है कि "उद्योगों ने अपने काम करने के तरीकों को बदल दिया है और श्रमिकों को घर से काम करने को दिया है जिसके कारण वे सरकारी विभागों और अंतरराष्ट्रीय प्रमाणन एजेंसियों की जांच से बच जाते हैं क्योंकि अधिकारी केवल कारखानों का दौरा करते हैं।" अधिकांश लोगों के लिए घर से काम करना ही आय अर्जित करने का एकमात्र तरीका है, लेकिन उद्योगों में उनकी भूमिका आधिकारिक आंकड़ों में नहीं दिखाई जाती है जिस कारण ये शोषण बढ़ता ही जा रहा है।
इसके साथ ही उनकी निगरानी के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है, जिसका फायदा कपड़ा निर्माता बखूबी उठा रहे हैं। भारत के ‘श्रम और रोजगार मंत्रालय’ के श्रम कल्याण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी अजय तिवारी ने कहा कि “घर से काम करने वाले परिधान श्रमिकों का शोषण बड़े पैमाने पर हो रहा है, हम परिधान निर्माण समेत 125 क्षेत्रों में असंगठित कामगारों की गणना करके और उन्हें एक पहचान संख्या देंने जा रहे हैं जिससे उन्हें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ उठाने में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि गृह-आधारित श्रमिकों को लाभ और सहायता प्रदान करने की नई योजना जल्द ही पूरी हो जाएगी। किंतु यह अभी तक महज बाते ही हैं।
संदर्भ:
https://bbc.in/3WI1KPK
https://bit.ly/3CnkT1f
https://reut.rs/3igN371
चित्र संदर्भ
1. कपड़ा मिल में काम करते श्रमिकों को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. एक कपड़ा फैक्ट्री को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. फैशन डिज़ाइनर को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. सिलाई करती महिला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. भारत के ‘श्रम और रोजगार मंत्रालय’ के लोगो को दर्शाता एक चित्रण (ustomercarecontacts)
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