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जौनपुर शहर को अनेकता में एकता की मिसाल के तौर पर देखा जाता है। इस शहर में विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं, तथा अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आने वाले विविध संस्कृतियों के लोग, एक साथ मिलकर रहते हैं। हालांकि, आज भी इन सभी संस्कृतियों के लोग, अपनी मूल परंपराओं और रीति- रिवाज़ों को संजोकर रखे हुए हैं। लेकिन सभी क्षेत्रों के लोग, जौनपुर के निवासियों की तरह भाग्यशाली नहीं होते।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के दूरदराज़ के क्षेत्रों में कई आदिवासी समुदाय, बढ़ते खनन के कारण अपनी प्राचीन परंपराओं, रीति- रिवाज़ों, जानवरों, और यहां तक कि अपनी पुश्तैनी ज़मीन को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। खनन कार्य, हमारे वन पारिस्थितिकी तंत्र और जनजातीय समुदायों को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। खनन के दुषप्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिए, हम झारखंड के करमपोट गाँव (Karampot Village) पर ध्यान केंद्रित करेंगे और देखेंगे कि कोयले के खनन ने वहाँ के जनजातीय लोगों के जीवन को किस प्रकार बदल दिया है। इसके अलावा, हम यह भी जानेंगे कि खनन कार्यों ने कैसे नागरिकों के बीच असमानता और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर दी है।
विश्व वन्यजीव कोष (World Wildlife Fund) ने हाल ही में "निष्कासित वन: खनन से संबंधित वनों की कटाई की भूमिका का पता लगाना ("Extracted Forests: Unearthing the role of mining-related deforestation as a driver of global deforestation")" शीर्षक के साथ एक नई रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि खनन गतिविधियों का हमारे जंगलों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान में, खनन को वनों की कटाई का चौथा सबसे बड़ा कारण माना जाता है। इसके अलावा, खनन कार्य, पूरी दुनिया के वन पारिस्थितिकी तंत्र के एक-तिहाई हिस्से को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। खनन के अप्रत्यक्ष प्रभावों में सड़कों, शहर और खेत जैसी संरचनाओं का निर्माण शामिल है, जिन्हें खनन स्थलों के निकट बनाया जाता है। इनके निर्माण के दौरान, जंगलों की कटाई होती है। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप, जल और मृदा प्रदूषण जैसी जटिलताएं भी उत्पन्न होती हैं।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि केवल छह देश, जो खनन स्थलों से काफ़ी दूर हैं, खनन से संबंधित वनों की कटाई के 51% के लिए ज़िम्मेदार हैं। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ (European Union) के देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए की जाने वाली वनों की कटाई का 85% हिस्सा यूरोपीय संघ की सीमाओं के बाहर होता है।
खनन से होने वाली, 80% से अधिक प्रत्यक्ष वनों की कटाई केवल दस देशों में होती है। इससे उष्णकटिबंधीय वर्षावनों को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। इन वनों में 29% खनन स्थल हैं, लेकिन खनन से संबंधित वनों की कटाई का 62% हिस्सा, यहीं होता है।
इसका वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्रों पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। ग्रेटर मेकोंग क्षेत्र (Greater Mekong Region) में, नई सड़कों और इमारतों के कारण आवास के नुकसान के चलते इंडोचाइनीज़ बाघों (Indochinese Tigers) की संख्या तेज़ी से घट रही है। वहीं, अमेज़न बेसिन (Amazon Basin) में, सोने के लिए किए जा रहे खनन ने टुकुक्सी नदी डॉल्फ़िन (Tucuxi River Dolphin) जैसी लुप्तप्राय प्रजातियों में पारे (Mercury) के स्तर को बढ़ा दिया है।
चलिए अब ग्राउंड ज़ीरो (Ground Zero) पर उतरते हैं और देखते हैं कि कोयले के खनन ने भारत के जनजातीय समुदायों को कैसे प्रभावित किया है?
झारखंड के करमपोट (Karampot) में एक आदिवासी गांव है, जो भारत के मुख्य कोयला उत्पादक क्षेत्रों में से एक है। यहाँ के ज़्यादातर घर, मिट्टी से बने हैं और कुछ ईंटों के घर भी हैं। हालाँकि, यहाँ आपको कुछ बड़े, रंगीन कंक्रीट के घर भी दिखाई देंगे। ये घर सभी घरों से अलग से दिखते हैं और अक्सर इनके सामने बड़ी मोटरबाइक खड़ी रहती हैं।
आज से दस साल पहले, यहाँ पर रहने की स्थितियों में इतना बड़ा अंतर नहीं था। यह बदलाव या अंतर, कोयले के खनन के कारण पैदा हुआ है।
दरअसल, खनन साइट शुरू करने के लिए आदिवासियों से बहुत सारी ज़मीन छीन ली गई है। इस कारण, ये समुदाय, गरीबी की गर्त में जा चुके हैं। उनके जीवन जीने के पारंपरिक तौर तरीके भी नष्ट हो गए हैं। ये समुदाय जीवित रहने के लिए ज़मीन और जंगलों पर निर्भर हैं।
विडंबना यह है कि खनन परियोजनाओं के लिए ली गई ज़मीन की मुआवज़ा नीति ही इस समस्या की जड़ है। 2008 में, करमपोट के पास एक खनन परियोजना के तहत, यह घोषणा की गई कि ‘नई खदान बनाने के लिए पास के एक आदिवासी गाँव को कब्ज़े में लिया जाएगा।’
बाद में इस खदान की वजह से कई आदिवासियों को अपना घर छोड़ना पड़ा। वहां के कुछ गिने-चुने लोगों को नौकरी मिल गई और उन्होंने बड़े सीमेंट के घर बनाए। अब वे वहां पर स्थिर नौकरियों वाले एक धनी अल्पसंख्यक हैं। इसके उलट, करमपोट के अन्य लोग, कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं। वे अभी भी अपनी सीमित ज़मीन पर खेती करते हैं। लेकिन खनन ने उन पर भी असर डाला है। खदानों से निकलने वाले विस्फ़ोटों से उनके मिट्टी के घरों की दीवारें टूट जाती हैं। कोयले की धूल, हवा और मिट्टी में भर जाती है। गाँव के आस-पास के आम चरागाह और जंगल भी नष्ट हो गए हैं।
एक अन्य उदाहरण के तौर पर देखते हैं कि असम के आदिवासी समुदाय खनन से कैसे पीड़ित हैं?
पूर्वी असम के देहिंग पटकाई (Dehing Patkai) की तलहटी में खामती, सिंगफ़ो, सेमा नागा, तांगसा, ताई-फाके, स्याम, ऐतोम और नोक्टे सहित कई आदिवासी समुदाय रहते हैं। करमपोट की भांति इन समुदायों को भी खनन और वनों की कटाई के कारण गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कई वर्षों से, उन्हें अपनी पुश्तैनी ज़मीनों से बेदखल किया जा रहा है।
असम के वर्षावन भी विशेष रूप से देहिंग पटकाई वन्यजीव अभयारण्य (Dehing Patkai Wildlife Sanctuary) के आसपास, वैध और अवैध कोयला खनन दोनों से प्रभावित हैं। खनन ने इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। हालांकि, सबसे अधिक पीड़ा, आदिवासी समुदायों को ही सहनी पड़ रही है, जिन्हें बार-बार विस्थापन और प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। आदिवासी लोग, यह दावा करते हैं कि वहां अवैध खनन भी होता है, और वे इसके नकारात्मक प्रभावों से बचाव की गुहार लगा रहे हैं।
इस क्षेत्र के कई निवासी, पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) के तिरप ज़िले में चले गए हैं। देहिंग पटकाई की तलहटी में कम से कम, 500 गाँव अब खनन और वनों की कटाई के ख़तरे का सामना कर रहे हैं। कुछ जनजातियों में सदस्यों की संख्या 5,000 से भी कम रह गई है। खनन ने वनों पर निर्भर रहने वाले लोगों और अवैध खनन तथा कटाई करने वालों के बीच आय के अंतर को भी बढ़ा दिया है। एक ओर आदिवासी आबादी घट रही है, वहीं दूसरी ओर अवैध खनन और कटाई की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही हैं।
खनन का प्रभाव, मानव-पशु संघर्ष (Human-Wildlife Conflict) के रूप में भी देखा जा रहा है। अंधाधुंध कोयला खनन का असर, मोरन-मोटोक (Moran-Motok) जैसे बड़े समुदायों पर भी पड़ रहा है, जिससे मनुष्यों और जानवरों के बीच संघर्ष बढ़ गया है।
ऊपरी देहिंग रिज़र्व (Upper Dehing Reserve) में 6-7 किलोमीटर की भूमि को गोलाई कॉरिडोर (Round Corridor) कहा जाता है। हाथी टास्क फ़ोर्स (Elephant Task Force) द्वारा की गई जनगणना के अनुसार, यह क्षेत्र, लगभग 300 हाथियों के लिए महत्वपूर्ण है। अभयारण्य के विभिन्न हिस्सों के बीच आने-जाने के लिए, हाथी इसी मार्ग का उपयोग करते हैं। देहिंग पटकाई के दक्षिण-पश्चिमी भाग में डिगबोई (Digboi) शहर के पास, वन गांव पानबारी (Panbari) को हाथियों के झुंडों के साथ संघर्ष का सामना करना पड़ता है। ये हाथी अभयारण्य के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने की कोशिश कर रहे होते हैं।
इस प्रकार, खनन गतिविधियों का प्रभाव न केवल आदिवासी समुदायों के जीवन पर पड़ रहा है, बल्कि यह वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए भी गंभीर खतरा बन रहा है। खनन के कारण, उत्पन्न होने वाले पर्यावरणीय संकटों के साथ-साथ सामाजिक असमानताएँ भी बढ़ रही हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि सरकार और संबंधित संस्थाएँ, इस मुद्दे को गंभीरता से लें और आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करें।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2yznrmh7
https://tinyurl.com/22xrvv68
https://tinyurl.com/ytae35ek
चित्र संदर्भ
1. एक आदिवासी महिला को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)
2. जंगल में हो रहे खनन कार्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. जंगल में काटे गए पेड़ों को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
4. तेघुत खदान, आर्मेनिया को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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