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हमारा शहर मेरठ अपनी अनेकों विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है, जिनमें से एक विशेषता यहां मौजूद ‘सेंट जॉन्स चर्च’ (St. John’s Church) भी है। सेंट जॉन्स चर्च अत्यंत लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण चर्चों में से एक है जिसे 1819 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित किया गया था। बैठने की क्षमता के मामले में इस चर्च को सबसे पुराना और सबसे बड़ा माना जाता है। वर्तमान में यह चर्च आगरा के चर्च के सूबे के तहत आने वाला एक चर्च है । चर्च के निकट ही सेंट जॉन कब्रिस्तान मौजूद है। चर्च के करीब ही ‘सेंट जॉन्स सेकेंडरी स्कूल’ (St. John’s Secondary School) भी स्थित है, जिसे चर्च के प्रशासनिक निकाय द्वारा संचालित किया जाता है।
सेंट जॉन चर्च का 200 वर्षों पुराना एक शानदार इतिहास रहा है और वर्तमान समय में भी यह चर्च एंग्लिकन काल (Anglican Period) की महिमा को दर्शा रहा है। तो आइए, आज गुड फ्राइडे (Good Friday) के इस मौके पर मेरठ के ‘सेंट जॉन्स चर्च’ के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, तथा साथ ही यह भी जाने कि ईसाई धर्म में “क्रॉस के स्टेशनों” जिन्हें दुख के मार्ग के रूप में भी संदर्भित किया जाता है, का क्या महत्व है?
सेंट जॉन्स चर्च की इमारत का निर्माण 1819 से 1821 के बीच किया गया था तथा यह चर्च उत्तर भारत का सबसे पुराना चर्च माना जाता है। इस चर्च की स्थापना एक पैरिश (Parish) चर्च के रूप में 1819 में स्थानीय स्तर पर तैनात सैन्य चौकी की सेवा के लिए की गई थी। इस चर्च के संस्थापक ब्रिटिश सेना के पादरी ‘रेव हेनरी फिशर’ (Rev. Henry Fischer) थे, जिन्हें मेरठ में तैनात किया गया था।
सेंट जॉन्स चर्च की इमारत को अंग्रेजी पैरिश चर्च की वास्तुकला शैली के अनुरूप बनाया गया था। यह शैली गॉथिक (Gothic) शैली के आगमन से पहले अत्यधिक लोकप्रिय शैली मानी जाती थी। इस चर्च का निर्माण प्रसिद्ध यूरोपियन पैलेडियन (Palladian) वास्तुकला शैली या शास्त्रीय शैली पर आधारित है, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होती है। उदाहरण के लिए यहां प्रार्थना के लिए एक बड़ा खुला आंतरिक स्थान बनाया गया था, जिसमें गर्म तापमान में भी प्राकृतिक ठंडी हवा स्वतंत्र रूप से प्रसारित हो सकती थी। इसमें ऊपर की ओर बैठने के लिए जगह बनाई गई थी, जिसे बालकनी कहा जा सकता है। हालांकि, यह स्थान अब उपयोग नहीं किया जाता है। लगभग 200 साल पुराने इस चर्च में कुछ बदलाव भी किए गए हैं, जिनकी वजह से यह चर्च आज 1800 के दशक की शुरुआत के एंग्लिकन पैरिश चर्च का एक अच्छा उदाहरण बन गया है। सेंट जॉन्स चर्च के अधिकांश अनुयायी मेरठ से हैं, तथा कुछ अनुयायी तो प्रमुख सेवाओं या कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए 50 मील दूर से भी चर्च पहुंचते हैं। यहां आज भी पुरानी परंपराओं का अनुसरण किया जाता है। हर साल क्रिसमस और गुड फ्राइडे के दौरान यहां चर्च के विभिन्न समुदायों द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
सदियों से, रोमन कैथोलिकों (Roman Catholic) द्वारा ईस्टर से एक सप्ताह पहले क्रॉस के स्टेशनों या क्रॉस के रास्ते का आयोजन किया जाता है। क्रॉस के स्टेशन (Stations of the Cross), जिन्हें दुख का मार्ग या वाया क्रूसिस (Via Crucis) के नाम से भी जाना जाता है, चित्रों की एक श्रृंखला होती है। इस श्रृंखला में उन चित्रों या छवियों को शामिल किया जाता है, जो ईसा मसीह (Jesus Christ) के सूली पर चढ़ने से सम्बंधित होते हैं। हर स्टेशन पर सामान्य तौर पर प्रार्थनाओं का आयोजन किया जाता है।
इन स्टेशनों का विकास मुख्य रूप से येरूशलेम (Jerusalem) में वाया डोलोरोसा (Via Dolorosa) से प्रेरित हुआ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि वाया डोलोरोसा पुराने येरूशलेम शहर का वह मार्ग है, जिससे रोमन सैनिकों द्वारा यीशु को सूली पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया था। इन स्टेशनों का मुख्य उद्देश्य यीशु की मृत्यु और उनके बलिदान की याद दिलाना है, ताकि हम किसी भी पाप को करने से बच सकें। क्रॉस के स्टेशनों में लगभग 14 स्टेशन अर्थात पड़ाव शामिल होते हैं। पहले स्टेशन में उन चित्रों को दिखाया जाता है, जिसमें ईसा मसीह को मौत की सजा का आदेश दिया जाता है। दूसरे स्टेशन में दिखाया जाता है, कि कैसे सूली को उन पर रखा गया था। तीसरे स्टेशन में दिखाया जाता है कि यीशु कैसे पहली बार चलते-चलते गिर जाते हैं। अगले स्टेशन में यीशु की अपनी मां मरियम से मुलाकात को दर्शाया जाता है । अगले स्टेशन में साइरेन के साइमन (Simon of Cyrene) को यीशु को क्रॉस ले जाने में मदद करते हुए दिखाया जाता है। फिर वेरोनिका (Veronica) यीशु का चेहरा साफ करती है। इसके बाद के स्टेशन में एक बार फिर यीशु को गिरता हुआ दिखाया जाता है। इसके बाद दिखाया जाता है, कि कैसे येरूशलेम की स्त्रियाँ यीशु के लिए विलाप कर रही हैं।
इसके बाद के स्टेशन में यीशु को फिर से गिरता हुआ दिखाया जाता है। स्टेशनों के अन्य दृश्यों में यीशु के वस्त्र उतारना, उनको सूली पर चढ़ाना, उनकी मृत्यु, उनके शरीर को क्रॉस से नीचे उतारना तथा उन्हें कब्र में रखना शामिल है। इन छवियों को मुख्य रूप से तराशे हुए या नक्काशीदार पत्थर, लकड़ी या धातु से बनाया जाता है। इसके अलावा वे एक चित्रकला या उत्कीर्णन के रूप में भी हो सकते हैं। आमतौर पर, इन दृश्यों को एक चर्च या गिरजाघर के आसपास व्यवस्थित किया गया होता है, लेकिन कभी-कभी ये किसी चर्च या धर्मस्थल की ओर जाने वाली सड़कों के किनारे भी व्यवस्थित किए जाते हैं। अनेकों स्थानों पर गुड फ्राइडे के दिन क्रॉस के स्टेशनों का आयोजन किया जाता है। क्रॉस के स्टेशन, विशेष रूप से गुड फ्राइडे पर, हमारे लिए मसीह द्वारा सही गई पीड़ा को याद दिलाते हैं।
ईस्टर के दौरान, मसीह के पुनरुत्थान का जश्न मनाना रोमांचक होता है। क्रॉस के स्टेशन हमें याद दिलाते हैं कि यीशु हमें बचाने के लिए कितनी दूर तक गए थे। प्रत्येक स्टेशन हमें मसीह के साथ समय बिताने, उनका धन्यवाद करने, उनकी स्तुति करने और उनसे सीखने में सहायता करता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3GmV8A9
https://bit.ly/400CbKF
https://bit.ly/3GhBHZm
चित्र संदर्भ
1. मेरठ के सेंट जॉन्स चर्च को संदर्भित करता एक चित्रण (Prarang)
2. सेंट जॉन्स चर्च के निकट कब्रिस्तान के प्रवेश द्वार को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
3. ईस्टर समारोह को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ईस्टर और अन्य नामित दिनों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. ग्रेट लेंट के दौरान अंडे और अन्य खाद्य पदार्थों के साथ एक पादरी को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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