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आपने “अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने” वाली कहावत अवश्य सुनी होगी। सत्य थोड़ा कटु है लेकिन पिछले कुछ दशकों से हम लखनऊवासी अपने साथ कुछ ऐसा ही करते आ रहे हैं। दरअसल पिछले कुछ दशकों में हमारे लखनऊ शहर की जीवनदायनी गोमती नदी प्रदूषण और अतिक्रमण जैसी मानव निर्मित आपदाओं से इतनी पीड़ित हो चुकी है कि आनेवाले समय में पूरा लखनऊ शहर पीने के पानी की बूँद-बूँद के लिए तरस सकता है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, लखनऊ के 22 किलोमीटर के दायरे से होकर बहने वाली गोमती नदी, अनुपचारित प्रदूषित जल और औद्योगिक अपशिष्टों के कारण जानलेवा स्तर तक प्रदूषित हो गई है। 2011 में 8 दिवसीय गोमती-गंगा यात्रा के प्रतिभागियों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट गोमती नदी में बढ़ रहे प्रदूषण पर प्रकाश डालती है। लखनऊ स्थित ‘लोक भारती संगठन’ द्वारा आयोजित यह यात्रा पीलीभीत में मेनकोट के पास नदी के उद्गम से शुरू हुई और वाराणसी के पास कैथी में गंगा के संगम पर समाप्त हुई। इस यात्रा का उद्देश्य गोमती नदी की समस्याओं को समझना और उनका समाधान खोजना था।
रिपोर्ट में पाया गया कि गोमती नदी का ऊपरी हिस्सा (माधोटांडा (पीलीभीत) में फुलहर झील से इसके उद्गम से लेकर सीतापुर में नैमिषारण्य तक) अपेक्षाकृत साफ है। हालांकि, इस हिस्से में अतिक्रमण की समस्या देखी गई है, जहां स्थानीय किसानों द्वारा खेती करने के लिए नदी के तल पर कब्जा कर लिया गया है। इसके बाद का नदी का मध्य खंड (सीतापुर से जौनपुर तक) अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्टों और नगरपालिका अपशिष्ट जल के निर्वहन के कारण अत्यधिक प्रदूषित पाया गया है। इसके अलावा नदी का निचला भाग, जो वाराणसी के निकट गंगा के संगम तक जाता है, वह भी घातक स्तर तक प्रदूषित पाया गया।
गोमती नदी 200 मीटर की ऊंचाई से निकलती है और 940 किमी की दूरी तय करने के बाद वाराणसी के पास गंगा से मिलती है। गोमती नदी 30,437 वर्ग किलोमीटर के जल निकासी क्षेत्र से होकर गुजरती है। यह नदी 32 लाख (3.2 मिलियन) से अधिक लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पेयजल स्रोत के रूप में कार्य करती है। हमारे लखनऊ के अलावा, यह नदी अपने किनारे स्थित 14 अन्य शहरों को भी पीने का पानी उपलब्ध कराती है। उदाहरण के तौर पर लखीमपुर खीरी, सुल्तानपुर और जौनपुर सहित नदी के किनारे के अन्य शहर भी पीने के पानी के लिए इसी नदी पर निर्भर हैं। हालांकि, अनुपचारित घरेलू कचरे के दैनिक निर्वहन के कारण, हमारे लखनऊ में 22 किलोमीटर के दायरे में यह सबसे अधिक प्रदूषित पाई गई।
इस जीवनदायिनी नदी से जुड़ी चिंताओं को दूर करने के लिए, नागरिक समाज संगठनों द्वारा गोमती-गंगा यात्रा का आयोजन किया गया था। यात्रा का अन्य उद्देश्य किसानों, औद्योगिक श्रमिकों और स्थानीय समुदायों को नदी की बिगड़ती स्थिति के प्रति जागरूक करना भी था। प्रतिभागियों ने अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न स्थानों से पानी के नमूने एकत्र किए और सार्वजनिक बैठकें भी आयोजित कीं।
गोमती नदी में प्रदूषण के दुष्परिणाम अब हमारे सामने परिलक्षित होने लगे हैं। आपने खुद भी महसूस किया होगा कि आज लखनऊ शहर पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहा है। गोमती नदी के जल के प्रदूषित होने के बाद हम मुख्यतः पानी के लिए भू-जल पर ही निर्भर हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार, लखनऊ शहर में हर साल भाखड़ा नांगल बांध की क्षमता के एक तिहाई के बराबर भूजल निकाला जाता है। शहर में लगभग 750 सरकारी ट्यूबवेल (Tubewell) और 550 निजी ट्यूबवेल हैं, जिनसे प्रतिदिन लाखों लीटर भूजल निकाला जाता है।
लखनऊ में भूजल स्रोतों की कमी का एक प्रमुख कारण पुनर्भरण तंत्र की कमी भी है। हम मानसून के मौसम के दौरान वर्षा जल को संग्रहित करने में भी असफल रहे हैं। जिसके परिणाम स्वरूप शहर के भूजल स्तर में भारी कमी आई है। भूजल का पुनर्भरण करने के लिए शहर में बहुत कम जलस्रोत बचे हैं। पहले जिन क्षेत्रों में बड़े तालाब और झीलें हुआ करती थीं, उन क्षेत्रों में अब इमारतों ने अतिक्रमण कर लिया है। इसके अलावा हम पढ़ भी चुके हैं कि गोमती नदी के जलग्रहण क्षेत्र को भी रिवरफ्रंट (Riverfront) के रूप में विकसित करके संशोधित कर दिया गया है। इन सभी कारकों के कारण पिछले कुछ वर्षों में बिना किसी पुनःपूर्ति के लखनऊ के भूजल स्तर में तेजी से कमी आई है।
प्रश्न उठता है कि घटते भूजल स्तर के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है- प्रशासन अथवा जनता। वास्तविकता तो यह है कि घटते जल संसाधनों की जिम्मेदारी सिर्फ अधिकारियों की नहीं, बल्कि यहां के निवासियों की भी है। लखनऊ के कई घरों में सबमर्सिबल पंप (Submersible Pump) और बोरवेल का उपयोग करके सीधे जमीन से पानी निकाला जाता है। जिन संपन्न लोगों के पास अपनी सबमर्सिबल और बोरवेल हैं, वे प्राकृतिक संसाधनों की कमी में भारी योगदान करते हैं। कुछ लखनऊवासी पानी की सीमित उपलब्धता बिना विचारे, अपनी कारों को भी सीधे नल के पानी से धोते हैं।
राज्य के भूजल बोर्ड द्वारा भूमिगत जल निकासी के लिए लखनऊ को विशेष रूप से आठ ब्लॉकों में विभाजित किया गया है। ये ब्लॉक बख्शी-का-तालाब, चिनहट, गोसाईंगंज, काकोरी, माल, मलिहाबाद, मोहनलालगंज और सरोजिनी नगर हैं। लखनऊ के विभिन्न ब्लॉकों में प्रति वर्ष 30.78 सेमी से 57सेमी तक जलस्तर में गिरावट देखी जा रही है। शहरी क्षेत्रों में जल स्तर में सबसे अधिक गिरावट फैजुल्लागंज इलाके में देखी गई है, इसके बाद पुरैनिया, महानगर, नौबस्ता और लालकुर्ती का नंबर आता है। लखनऊ में जल स्तर में औसतन रूप से 75.61 सेमी प्रति वर्ष गिरावट दर्ज की गई है। 2021 में लखनऊ जिले में भूजल स्तर जमीनी स्तर से 15.78 मीटर नीचे दर्ज किया गया था। हाल के वर्षों में इस स्तर में काफी उतार-चढ़ाव देखा गया है। पर्यावरण विदों का कहना है कि कुछ स्थानों पर जल स्तर हर साल 1 मीटर से 1.4 मीटर तक नीचे जा रहा है, लेकिन जल स्तर के पुनर्भरण के लिए कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। शहर के कुछ क्षेत्रों, जैसे चारबाग, आलमबाग, लालबाग, नाका हिंडोला और कृष्णा नगर में जल स्तर में वार्षिक रूप से भारी गिरावट देखी जा रही है।
लखनऊ में नगर निगम अधिकारी और बिल्डर भी जल स्तर के पुनर्भरण पर विचार किए बिना भूमिगत जल संसाधनों का लगातार दोहन किए जा रहे हैं। पहले गोमती नदी लखनऊ के लिए पीने के पानी का मुख्य स्रोत हुआ करती थी, लेकिन अब नगर निगम की 80% जल आपूर्ति भूजल पर निर्भर करती है। तालाबों सहित जल निकायों के लुप्त होने से शेष भूमिगत जल संसाधनों की रक्षा करना बेहद जरूरी हो गया है।
भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए अत्यधिक दोहन को नियंत्रित करना और जल प्रदूषण को रोकना जरूरी हो गया है। भूजल की मात्रा बढ़ाने के लिए कृत्रिम पुनर्भरण विधियों का उपयोग भी किया जा सकता है, लेकिन वे भी ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हो रहे हैं। पुनर्भरण प्रयासों को बढ़ाने के लिए एक व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिए राज्य सरकार व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर प्रतिबंध भी लगा सकती है।
भारत में पानी से होने वाली बीमारियों पर हर साल लगभग 600 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च होते हैं। भारत में एक और बड़ी समस्या यह है कि देश के लगभग दो-तिहाई जिले पानी की गंभीर कमी से पीड़ित हैं। इसका भी मुख्य कारण ड्रिलिंग (Drilling) के माध्यम से भूजल का अत्यधिक उपयोग करना ही है। देश में पीने योग्य पानी की कमी का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि देश में लगभग 54 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ, और यहाँ तक कि विद्यालय जाने वाली छोटी-छोटी बच्चियां भी अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए प्रतिदिन लगभग 35 मिनट (Minute) पानी भरने में गंवा देती हैं। हालांकि, इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए भारत सरकार ने 2019 में ‘जल जीवन’ (Jal Jeevan) योजना की शुरुआत की थी। इस योजना का लक्ष्य 2024 तक देश के हर घर में नल के माध्यम से पानी की आपूर्ति प्रदान करना है। इस योजना का समर्थन और कार्यान्वयन करने के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र बाल आपातकालीन कोष’ या यूनिसेफ़ (United Nations Children's Emergency Fund (UNICEF) भी सरकार के साथ मिलकर काम कर रहा है। ‘जल जीवन’ मिशन की शुरुआत के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यात्मक घरेलू नल संयोजन का विस्तार 17 प्रतिशत से बढ़कर 49 प्रतिशत से अधिक हो गया है। सरकार दावा करती है कि आज देश के लगभग सभी विद्यालयों में नल का पानी भी उपलब्ध कराया जा चुका है।
ऐसी स्थिति में, जब सरकार पानी उपलब्ध कराने के लिए ‘जल जीवन’ मिशन जैसी परियोजनाओं का कार्यान्वयन कर रही है तो हमारे लखनऊ वासियों के लिए अत्यंत आवश्यक है कि वह इन योजनाओं का लाभ उठाएं और सबमर्सिबल एवं ट्यूबवेल के माध्यम से भूजल दोहन के बजाए सरकारी नलों से पानी प्राप्त करें और भूजल संरक्षण में अपना योगदान दें, जिससे कि आने वाली पीढ़ी के लिए पानी बचाया जा सके ।
संदर्भ
Https://Tinyurl.Com/5t4tduxz
Https://Tinyurl.Com/2jsf5svd
Https://Tinyurl.Com/Rhx72muu
चित्र संदर्भ
1. गाड़ी धोते भारतीयों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. गोमती नदी पर नाव की सवारी का एक चित्रण (flickr)
3. प्रदूषित नदी को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. प्रदूषित नदी में नाव चलाते भारतीय को दर्शाता चित्रण (Pixabay)
5. सूखे बाँध को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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