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इन्हीं उम्दा शायरों की वजह से रामपुर को मिला खिताब अपनी विशिष्ट उर्दू शैली का

लखनऊ

 23-02-2023 11:14 AM
ध्वनि 2- भाषायें

उर्दू जुबान अपने आप में बेहद मीठी जुबान है और फिर इस जुबान में शायरी का तो क्या ही कहना- सोने पे सुहागा ! उर्दू शब्द मूलतः तुर्की भाषा का है तथा इसका अर्थ है- ‘शाही शिविर’या ‘ख़ेमा’(तम्बू)। यह शब्द तुर्कों के साथ भारत में आया और यहाँ इसका प्रारम्भिक अर्थ खेमा या सैन्य पड़ाव था। कहा जाता है कि उर्दू शायरी की शुरुआत 13वीं शताब्दी में हुई थी, जब उत्तर भारत के कुछ कवियों ने उर्दू जुबान का कविताओं में प्रयोग करना शुरू किया, परन्तु इसने अपना वास्तिविक स्वरूप 17 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में प्राप्त किया , जब उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप के दरबारों की आधिकारिक भाषा बन गई। 17 वीं सदी में जब शाहजहाँ ने फ़ारसी के साथ-साथ उर्दू को राजदरबार की भाषा बना दिया, तो सैन्य-पड़ावों और बाज़ार की यह भाषा तेज़ी से विकसित होनी शुरू हो गई। इसके बाद उर्दू में कविता लिखने की कोशिशें भी होने लगीं।
18वीं शताब्दी में उर्दू, साहित्य की दृष्टि से भी एक जबरदस्त भाषा बन गई और कविताओं में जल्द ही उर्दू ने फारसी की जगह ले ली। दिल्ली, लखनऊ और साथ ही हमारा शहर रामपुर भी अपनी विशिष्ट उर्दू शैली के लिए पूरे हिंदुस्तान में मशहूर हुआ करते थे। 1857 के महासंग्राम के बाद दिल्ली में काव्य-कविता आदि का क्षेत्र कम होने लगा, जिसके कारण अनेक कवि, शायर और लेखक दिल्ली छोड़कर लखनऊ और रामपुर जैसे नगरों में चले गए। इन शहरों के शासक, जैसे अवध के नवाब, रामपुर के नवाब आदि, कला के संरक्षक थे और स्वयं भी एक कलाकार थे। शायद यही कारण था कि रामपुर जल्द ही उर्दू शायरी का एक प्रमुख केंद्र बन गया। रामपुर के नवाब इन कवियों को बड़े आदर से मासिक वेतन, जागीर आदि से पुरस्कृत करते थे। रामपुर के नवाब कविता और अन्य ललित कलाओं के बहुत शौकीन थे। वे उन कवियों को पारिश्रमिक प्रदान करते थे जो दरबार से जुड़े होते थे। ऐसा माना जाता है कि रामपुर के नवाबों के कला और कविता के प्रति उनके लगाव के कारण कई कवि लखनऊ और दिल्ली के बजाय यहां रहना पसंद करते थे। जैसा कि आप जानते ही है कि रामपुर को दिल्ली और लखनऊ के बाद शायरी का तीसरा स्कूल माना जाता है। ‘दाग’, ग़ालिब’ और ‘अमीर मिनाई’ जैसे समय के कई प्रमुख और प्रसिद्ध उर्दू कवि और शायर रामपुर दरबार के संरक्षण में शामिल हुए। निज़ाम रामपुरी ने कवि के रूप में बहुत नाम कमाया। इसके अलावा, शाद आरफ़ी रामपुर के एक और प्रसिद्ध कवि थे, जिन्होंने आधुनिक ग़ज़ल को एक अलग शैली के रूप में विकसित किया। वर्तमान में, अंतर्राष्ट्रीय कवि शहजादा गुलरेज़, अब्दुल वहाब सुखन और ताहिर फ़राज़ पूरी दुनिया में ‘रामपुर स्कूल ऑफ पोएट्री’ (Rampur School of Poetry) का प्रतिनिधित्व करते हैं। रामपुर से उर्दू शायरी के कई दिग्गज उभर कर सामने आये हैं।
निम्नलिखित कुछ चंद नाम ऐसे है जिनकी जड़े रामपुर से जुडी है: क़ाएम चाँदपुरी, मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल, मुनीर शिकोहाबादी, निज़ाम रामपुरी, अख़्तर अली अख़्तर, अज़हर इनायती, फ़रहान सालिम, हिज्र नाज़िम अली ख़ान, इम्तियाज़ अली अर्शी, इशरत रहमानी, जावेद कमाल रामपुरी, महमूद रामपुरी, महशर इनायती, मुर्तज़ा बरलास, क़ाबिल अजमेरी, रसा रामपुरी, शाद आरफ़ी, शाहिद इश्क़ी, शैख़ अली बख़्श बीमार, मीर तस्कीन देहलवी, उरूज ज़ैदी बदायूनी, अबुल मुजाहिद ज़ाहिद, आफ़ताब शम्सी, दिवाकर राही, हिफ़ज़ुल्लाह क़ादरी, हिलाल रिज़वी, मौलवी ग़यासुद्दीन रामपुरी, मोहम्मद अली जौहर, मोहम्मद अली मोज रामपुरी, नाज़िर वहीद, रशीद रामपुरी, सौलत अली ख़ाँ रामपुरी, सीन शीन आलम, तस्नीम मीनाई, ज़हीर रहमती, महमूदुज़्ज़फ़र, मोहम्मद आमिर अलवी आमिर, मुजीब ईमान, शौकत अली ख़ाँ, तारिफ़ नियाज़ी, ज़हीर अली सिद्दीक़ी, अब्दुल वहाब सुख़न आदि।
इनमे से जावेद कमाल रामपुरी की “नींद आँखों में है कम कम मुझे आवाज़ न दो” ग़जल काफी मशहूर है, इसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं :

नींद आँखों में है कम कम मुझे आवाज़ न दो
जाग जाएगा कोई ग़म मुझे आवाज़ न दो
यूँ भी रफ़्तार-ए-दिल-ए-ज़ार है मद्धम मद्धम
और हो जाएगी मद्धम मुझे आवाज़ न दो
नीम-ख़ामोश है साज़-ए-रग-ए-जाँ का हर तार
तार हो जाएँगे बरहम मुझे आवाज़ न दो
बाद मुद्दत के बाद ज़रा दिल को क़रार आया है
जाने क्या दिल का हो आलम मुझे आवाज़ न दो

रामपुर के नवाब रज़ा अली खान खुद भी एक महान कवि और कलाकार थे। नवाब कल्बे अली खान ने दिल्ली के कवि मिर्जा गालिब को बहादुर शाह जफर के पतन के बाद, रामपुर में आश्रय प्रदान करके संरक्षण दिया। शायरी की दुनिया के शहंशाह मिर्जा गालिब के रामपुर के नवाबों से बहुत ही करीबी संबंध रहे हैं। मिर्जा गालिब यहां पर लंबे समय तक रहे। इस तरह देखते ही देखते रामपुर जल्द ही विद्वानों, बुद्धिजीवियों और महान कवियों के लिए एक गंतव्य बन गया। आज महल ‘खास बाग’ में शायर गुलरेज रहते हैं, जो नवाब मुर्तजा के परिवार के पसंदीदा शायर थे। अब वह अपने परिवार के साथ वहां अकेले रहते हैं। रामपुर राजसभा के 4 प्रमुख शायर थे जिन्हें रामपुर के अलंकार माना जाता था। इनका नाम है अमीर अहमद मीनाई, नवाब मिर्ज़ा खान दाग़, अहमद हुसैन तस्लीम और ज़मीन अली जलाल। मीर मीनाई वो क़ादिर-उल-कलाम शायर थे जिन्होंने अपने ज़माने में और उसके बाद भी अपनी शायरी का लोहा मनवाया। वे शब्दों के धनी थे और उन्होंने कई धार्मिक कविताएँ लिखीं थी। वे एक विद्वान व्यक्ति थे और उनके पास सरल मुहावरेदार भाषा का एक बड़ा प्रवाह था। 1857 की उथल-पुथल में उनका पहला संग्रह नष्ट हो गया था लेकिन “मिर्अतुल-ग़ैब” और “सनमख़ाना-ए-इश्क़” दो संग्रह आज भी उनकी याद-गार हैं। उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘सुबह-ए-अज़ल’ और ‘शाम-ए-अवध’ बहुत मशहूर हैं।
नवाब मिर्ज़ा खान दाग़ का लिखने का तरीका काफी सरल और सुगम था एवं कविता की भाषा स्वच्छ तथा सुरुचिपूर्ण थी। इस वजह से वे काफी प्रसिद्ध थे। वे अपने काल के सर्वोत्तम रोमानी शायर माने जाते थे। उनके चार दिवान थे: गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ और फरियादे-दाग़ जो एक खंडकाव्य था। दाग़ का नाम उर्दू के श्रेष्ठ 12 कवियों में लिया जाता है। उन्होंने ‘सफ़रनामा ए नवाब ए रामपुर’ भी लिखा था, जो कि नवाब की यात्रा का एक लंबा लेखा-जोखा था और लगभग 50,000 पंक्तियों और पांच अन्य कविताओं का संग्रह था, हालांकि यह विद्रोह में गुम हो गया और प्रकाशित नहीं हो सका। अहमद हुसैन तस्लीम मुन्शी जो कि अमीरउल्ला नाम से ज्यादा जाने जाते थे ने 8 प्रेम-उपन्यास लिखे जिसमे से दिल-ओ-जान, नाला-ए-तस्लीम आदि बहुत प्रसिद्ध है तथा उनके नज़्म-ए- अरिमंद, नज़्म-ए-दिलफ्रोज़, और दफ्तर-ए-खयाल कवितासंग्रह भी प्रसिद्ध हैं। रामपुर के सभी कवियों में वे प्रेम पर आधारित कविताओं के सर्वश्रेष्ठ लेखक थे, उनकी भाषा सरल और गंभीर थी। ज़मीन अली जलाल को ‘मीर ज़मीन अली जलाल’ नाम से भी जाना जाता है। ये ज्यादातर छंद शास्त्र और उर्दू व्याकरण में दिलचस्पी रखते थे जिसके लिए रामपुर के दरबार विशेष रुप से प्रसिद्ध थे। उनकी लिखी ‘सरमाया-ए-ज़बान-इ- उर्दू’ उर्दू मुहावरों का संग्रह है।

संदर्भ:
https://bit.ly/3XScElN
https://bit.ly/3IomE0j

चित्र संदर्भ
1. जावेद कमाल रामपुरी और उनकी शायरी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. शाद आरफ़ी रामपुर के एक और प्रसिद्ध कवि थे, को दर्शाता एक चित्रण (Amazon)
3. मोहसिन जैदी द्वारा फैज़ अहमद को अपनी उर्दू शायरी की किताब 'रिश्ता-ए-कलाम' (1978) की पेशकश को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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