City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2800 | 12 | 2812 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
प्राचीन काल से ही गणित और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय गणितज्ञों और खगोलविदों का
महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विश्वभर के विद्वानों ने संख्याओं के लिए आधुनिक प्रतीकात्मक
सांकेतिक भाषा को सार्वभौमिक भाषा का दर्जा दिया है। जिसका श्रेय उन्होंने भारत को दिया है।
हिंदू-अरबी संख्या प्रणाली आज के समय में उपयोग में आने वाली सबसे आधुनिक प्रणाली है।
जो सातवीं शताब्दी तक अपने वर्तमान स्वरूप में आ गई थी।
ऐसा माना जाता है कि किसी भी
समस्या को संख्या के माध्यम से हल करना सरलीकरण का एक अच्छा माधयम है। स्टैनफोर्ड
विश्वविद्यालय(Stanford University) के कीथ डेवलिन (Keith Devlin) और अमेरिकी
गणितीय संस्था के एक सदस्य, हिंदू अंक प्रणाली के महत्व के बारे मेंबताते हैं कि प्रतीकात्मक
अभिव्यक्तियों को पढ़ना और संख्याओं का अर्थ समझनाशब्दों में विवरण को पढ़ने से बहुत
आसान है।आज हम जिस संख्या प्रणाली का उपयोग करते हैं वह शून्य से नौ (0-9) तक की
संख्याओं पर आधारित है। जिसकी उत्पत्ति भी भारत में ही हुई थी।इन अंकों के माध्यम से ही
गणितज्ञ व खगोलशास्त्री अंकगणितीय गणनाएँ विशेषकर ग़ुणा तथा भाग, दिशा निर्देशन,
सर्वेक्षण तथा वित्तीय अभिलेख आदि कार्य करते हैं। आधुनिक संख्या प्रणाली में शून्य का विशेष
महत्व है। शून्य को किसी भी अंक के साथ रखकर उस संख्या का मान ज्ञात किया जाता
है।किसी भी वस्तु की मात्रा ज्ञात करने के लिए भी इन संख्याओं की आवश्यकता पड़ती है।
प्रचीन काल में इसके लिए टोकन और कंकड़ का प्रयोग किया जा सकता था परंतु अंक इस कार्य
के लिए एक बहतर विकल्प है। पहली शताब्दी तक मिस्र वासियों,बेबीलोनियों, भारतीयों और
माया सभ्यता के लोगों ने मात्राओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक विस्तृत संख्या प्रणाली
विकसित कर ली थी।बेबीलोनियोंद्वारा विकसित कुशल संख्या प्रणाली जो 60 की संख्या पर
आधारित थी, का उपयोग आज भी खगोल-विज्ञान, ज्योतिषशास्त्रतथा वाणिज्य में किया जाता
है। इस प्रणाली में पिछली शताब्दी ईसा पूर्व तक, शून्य के लिए एक प्रतीक का प्रयोग किया
जाता था।
कई सौ वर्षों से भी पुरानी पांडुलिपियों को आज भी संग्रहित करके रखा गया है। इन पांडुलिपियों
में प्रचीन काल के विद्वानों द्वारा विकसित गणितीय नियमों का उल्लेख मिलता है। संस्कृत,
विज्ञान की जनगणना के कई खंडोंको प्रकाशितकरने वाले अमेरिकी विद्वान डेविड पिंग्री (David
Pingree) के अनुमान के अनुसार मात्र ज्योतिष शास्त्र की पांडुलिपियाँ लगभग 100,000 हैं।
इनमें से कम से कम 30,000 गणित/खगोल विज्ञान से संबंधित हैं।और यह अनुमान है कि
लगभग 9000 संस्कृत स्त्रोत खगोल विज्ञान और गणित के कार्यों से जुड़े हुए हैं।
केवीसरमा
रिसर्च फाउंडेशन (K.V. Sarma Research Foundation) के उपाध्यक्ष, मद्रास विश्वविद्यालय
के सैद्धांतिक भौतिकीके सेवानिवृत्त प्रोफेसरडॉ एमडी सरी श्रीनिवासा के पास पांडुलिपियों का एक
उत्कृष्ट संग्रह है।केवी सरमा रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना 2010 में सरमा की छात्रवृत्ति की याद
में की गई थी, और यहाँ उनकी पांडुलिपियों का संग्रह आज भी मौजूद है।जहाँ एक ओर अन्य
देशों की पांडुलिपियाँ जैसे ग्रीकोरोमन या चीनी ग्रंथ मजबूतलेखन सामग्री पर लिखे जाते थे वहीं
दूसरी ओर भारतीय पांडुलिपियाँ ताड़ या सनौबर वृक्ष के पत्तों पर लिखी जाती थी। भारतीय
गणित मेंपश्चिमी वैज्ञानिक परंपराके लिए भी कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख मिल सकते हैं। इस बात
का अनुमान लगाने वाले यूरोपियन विद्वान चार्ल्समैथ्यूव्हिश (Charles Matthew Whish)
थे।व्हिश के लेखोंमें आर्यभटीय, शंकर वर्मा (सदरत्नमाला), सोमयाजी (चरण पदाति),
तालकुलत्तारा नंबूदिरी (तंता संग्रह), सेललुरा नंबुद्री (युतकी भाषा)सहित लीलावती, सूर्य सिद्धांत,
कामदोगधरी, द्रिकरणम आदि भारतीय गणितीय ग्रंथों और गणितज्ञोंका उल्लेख मिलता है।
गणित के क्षेत्र में भारतीय गणितज्ञों के योगदान पर ध्यान केंद्रित करें तो भारतीय गणितज्ञों ने
रेखा गणित में चाप के लिए कापा या धनुष तथा जीवा के लिए ज्या या जीवा शब्द का प्रयोग
किया था। अरबों द्वारा अपनाए जाने के बाद जीवा जीबा बन गया और यूरोप तक पहुँचते-
पहुँचते यह जाइब बन गया। जो एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है छाती की तरफ से
खुलने वाला वस्त्र। जिसे यूरोपियों ने लैटिन भाषा में अनुवाद करके साइनस (sinus) कर दिया।
फिर अंतत: यह साइन (sine) हो गया। विशेषज्ञों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि साइन
शब्द की व्युत्पत्ति भारत में ही हुई है।
मध्य युग के यूरोप में गणित के विकास में रोमन, चीनी, और भारतीय या हिंदू संख्या प्रणाली
का विशेष योगदान रहा है। जिसे बाद में अरबों द्वारा पश्चिमी दुनिया में प्रेषित किया गया था
और आज के समय में इस प्रणाली को हिंदू-अरबी संख्या प्रणाली के नाम से जाना जाता है।
रोमन संख्या प्रणाली में कभी-कभी वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग इकाइयों के लिए और पांच
या दस के गुणकों को इंगित करने के लिए किया जाता है। यह प्रणाली जोड़ तथा घटाव के लिए
तो सरल साबित हुई किंतु गुणा व भाग के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थी। ऐसा अनुमान है
कि आज के समय के विज्ञान, गणित और वाणिज्य के लिए भी यह प्रणाली बहुत जटिल होती।
अबेकस यंत्र का आविष्कार चीन में हुआ था। यह तारों पर मोतियों का बना एक व्यवस्थित
उपकरण है जो सामान्य जोड़, घटाव और गुणा के संचालन के लिए उपयोग किया जाता है।
चीनी संख्या प्रणाली एक दशमलवप्रणाली नहीं थी, जो 10 की संख्या पर आधारित थीबल्कि
इसमें 1 और 9 के बीच की सभी संख्याओं के लिए अलग-अलग प्रतीकों का और 10 से 90 के
बीच की संख्याओं के लिए 10 के गुणकों का प्रयोग किया जाता था।
हाउस ऑफ विजडम
(House of Wisdom) के विद्वानों में से एक अलख्वारिज्मीकीबीजगणित पर लिखी
पुस्तकअलजबरजिसका अनुवाद इस्लामिक स्पेन में रहने वाले एक अंग्रेजी विद्वान चेस्टर
(Chester) के रॉबर्ट (Robert) ने सन् 1145 में लैटिन भाषा में किया था। इस पुसतक के
शीर्षक में लिखा है कि हम गणना की किसी भी व्यवस्थित पद्धति के लिए "एल्गोरिदम"
(Algorithm) शब्द का प्रयोग कर सकते हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3zyMY3n
https://bit.ly/3zA3KyX
https://bit.ly/3zyTK9q
चित्र संदर्भ
1. गणितज्ञ आर्यभट्ट एवं हिंदी संख्याओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. हिंदी की गिनती को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारतीय गणितज्ञों की सूची को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
4. बहुभाषी संख्याओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.