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आज हम जिस आधुनिक गणित का अध्ययन करते हैं। यह सदैव से इस प्रकार की नहीं थी।
गणित का उद्भव सर्वप्रथम भारत में 1200 ईसा पूर्व हुआ था।प्राचीन काल से लेकर
मध्यकालीनयुग तक गणित के लिए संस्कृत भाषा का उपयोग किया जाता था। सभी नियम तथा
सूत्रों को एक खंड में व्यवस्थित रूप से लिखा जाता था। नियमों तथा प्रश्न-उत्तरों को गाद्यांशों
की सहायता से लिखा जाता था। हालाँकि यह पद्धति अधिक प्रचलित नहीं हुई।
इसके बाद 500
ईसा पूर्व तक गणित को मौखिक रूप से समझने का प्रयास किया गया।तत्पश्चात विद्वानों ने
गणित को पांडुलिपि में लिखित रूप से प्रेषित करने का विचार अपनाया। यह लिखित
पांडुलिपियाँ आज भी कई संग्रहालयों में सुरक्षित रखी गई हैं। हालाँकि वे इतने वर्षों बाद अपने
मूल स्वरूप में नहीं हैं, परंतु विशेषज्ञों द्वारा उन्हें संग्रहित करने के लिए उन्नत तकनीक का
प्रयोगकिया जाता है। प्राचीनतम भारतीय गणितीय पांडुलिपि बक्शाली पांडुलिपि है।यह पांडुलिपि
भोजपत्रों या सनौबर के पेड की महीन छाल पर लिखी गयी है। जिसे वर्ष 1881 में बख्शाली,
मर्दन (जो वर्तमान में पेशावर, पाकिस्तान में स्थित है) गांव के एक किसान द्वारा खोजा गया
था। यह पांडुलिपि इस बात का प्रतीक है कि प्राचीन काल में हमारे देश में ऐसे विद्वान हुए हैं
जिन्होंने गणित और विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे आविष्कार किए हैं जो आज भी समाज कामार्गदर्शन करने में विशेष भूमिका निभातेहैं।आर्यभट्ट , ब्रह्मगुप्त , भास्करII और वराहमिहिरउन्हीं विद्वानोंमें सेकुछ हैं जिन्होंने गणितीय
शास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।शून्य और दशमलव प्रणाली का आविष्कार भी
भारत में ही हुआ है। इसके आलावा, अंकगणित, बीजगणित, ऋणात्मक संख्याएँ, साइन(Sine),
कोसाइन (Co-sine) और त्रिकोणमिति की अवधारणा भी भारत की ही देन है।
जैन साहित्य को मुख्यत: चार भागों में बाँटा गया है, जिन्हें "अनुयोग" कहा जाता है।यद्यपि
जैन गणित का इतिहास दो हजार साल पुराना है। तब भी जैन गणित को भारत में उतना
अधिक समझा नहीं गया है जितना वह अपने मूल रूप में हुआ करता था। इसका कारण यह है
कि इसके मूल दस्तावेज हमें प्राप्त नहीं हो पाए हैं।एक और कारण यह भी है कि, जैन धर्म के
लोगों ने पांच अलग-अलग प्रकार की अनंतता को मान्यता दी है। वे सबसे पहले ट्रांसफिनिट
नंबरों (Transfinite Numbers)या अनंन्त संख्याओं की कल्पना करते थे, इस अवधारणा को,
19 वीं शताब्दी के अंत में कैंटर (Cantor) द्वारा यूरोप लाया गया था। जैनों की उच्चतम
गणना योग्य संख्या एन ( अर्थात “N”), कैंटर द्वारा विकसित एक अन्य अवधारणा से काफी
मिलती-जुलती थी।जिसे पहली ट्रांसफिनिट संख्या भी कहा जाता है।जैन गणित ब्रह्मांड के अनंत
अस्तित्व और उसमें निहित हमारे जीवन से प्रभावित थी। उनके अनुसार मनुष्य, पशु-पक्षी,
देवता और दानव सहित सभी जीवित प्राणी ब्रह्मांड के मध्य भाग में रहते हैं।उस समय इस
प्रणाली को उतनी मान्यता नहीं दी गई और जैन गणित उतना प्रचलित नहीं हुआ।
यह सत्य है
कि जैन गणित आधुनिक समय में बहुत उपयोगी साबित हो सकता है।तीसरी या चौथी शताब्दी
ईसा पूर्व की रचनाएँ सूर्य प्रज्ञापति, जम्बूद्वीप प्रज्ञापति, स्थानांग सूत्र, उत्तराध्यायन सूत्र,
भगवती सूत्र और अनुयोग द्वार सूत्र कुछ ऐसे प्राचीनतम विहित साहित्य हैं जिनका अध्ययन
अभी करना शेष है।
850 ईस्वीमें महावीर जो एक महान गणितज्ञ थे, के द्वारा रचित गणित-
सार-संग्रहअंकगणित पर आधारित एक मात्र ग्रंथ है जो वर्तमान में उपलब्धहै। जैन गणित जो
ब्रह्माण्ड विज्ञान से सम्बंधित थी, में समय को2 588 वर्षोंकी अवधि में विभाजित किया गया था।
इसे गणितीय रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है:
2 588 = 1013 065324 433836 171511 818326 096474 890383 898005 918563 69
6288 002277 756507 034036 354527 929615 978746 851512 277392 062160 9
62106 733983 191180 520452 956027 069051 297354 415786 421338 721071
66105
जैन गणित में π (Pi)का मान कई शोध पत्रों में उल्लेखित है। सन्निकटन π = √10 को
जैनों द्वारा कई बार उपयोग किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि जैन गणित साहित्य चंद्र
और सूर्य ग्रहण के विषय में भी व्याख्या करता है।इसके अलावा क्रमपरिवर्तन और संयोजन में
भी जैनों की रुची रही होगी।संयोजन कुछ या सभी मदों में से एक का चयन करने में उपयोगी
है।उन्हें चुनने के तरीकों की संख्या संयोजनों की संख्या कहलाती है, जिन्हें विषम वस्तुओं के
समूह में बनाया जा सकता है।
वहीं क्रमपरिवर्तन दी गई वस्तुओं की संख्या में से कुछ या सभी
को व्यवस्थित क्रम में रखने का एक तरीका है। उन्हें व्यवस्थित करने के तरीकों की संख्या
क्रमपरिवर्तन की संख्या प्रदान करती है, इसे भीविषम वस्तुओं के समूह से बनाया जा सकता है।
ऐसा माना जाता है कि सूचकांकों का नियम सटीक रूप से तैयार नहीं किया जा सकता
है,परंतुजैन इसनियम के अस्तित्व के विषय से अवगत थे।
जैन सिद्धांतकारों द्वारा रज्जू (Rajju) शब्द का प्रयोग दो अलग-अलग अर्थों में किया गया था।
पहला, ब्रह्माण्ड विज्ञान में इसे लगभग 3.4 X 10 21 की लंबाई के माप के रूप में प्रयोग किया
जाता था और दूसरा वैदिक सुलबासूत्रों का पालन करते हुए इस शब्द का इस्तेमाल ज्यामिति या
क्षेत्रमिति के लिए किया गया था। उन्हें कई ज्यामितीय शब्दों जैसे समा-चक्रवाला, जीव (चाप),
परिमंडल (दीर्घवृत्त), घाना व्रत (गोला), व्रत (वृत्त) आदि का भी ज्ञान था।
जैन गणित में पांच
भिन्न- भिन्न प्रकार के अनंत को मान्यता दी गई थी। पहला एक दिशा में अनंत; दूसरा दो
दिशाओं में अनंत; तीसरा क्षेत्र में अनंत, चौथा हर जगह अनंत, और पांचवा सदैव अनंत। जैन
इस अवधारणा को नहीं मानते थे की सभी अनंत समान हैं। यह एक क्रांतिकारी अवधारणा
साबित हुई जो यूरोप में 19वीं शताब्दी के अंत तक प्रचलित रही। वर्तमान में जैन मठ दो हजार
साल पुराने जैन गणित पर विस्तृत खोज करने के लिए अच्छे माध्यम सिद्ध हो सकते हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3ddBF92
https://bit.ly/3Jxy4ig
https://bit.ly/3P2pAkC
चित्र संदर्भ
1. बक्शाली पांडुलिपि एवं अंधविश्वास को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia, youtube)
2. बक्शाली पांडुलिपि के पृष्ठ को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
3. महावीरचार्य को दर्शाता एक चित्रण (amazon)
4. 18वीं सदी की पांडुलिपि भक्तमार स्तोत्र, संस्कृत, जैन धर्म में तंत्र,को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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