औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में कुछ विशिष्ट रोजगार विकसित किये गये जिनमें से डॉग कीपर्स (Dog Keepers) या डॉग बॉयज़ (Dog boys) या डूरियाह (DOOREAH) भी एक है। यह शब्द सामान्यतः ब्रिटिश लोगों द्वारा उन सेवकों के लिए उपयोग किया जाता था जिन्हें वे अपने पालतू कुत्ते की देखभाल करने के लिए नियुक्त करते थे। औपनिवेशिक काल के यूरोपीय साहिबों के सेवक उनके पालतू कुत्तों या जंगल में शिकार के लिए उपयोग किये जाने वाले कुत्तों की देखभाल करते थे। 1750 और 1860 के बीच, डूरियाह का प्रयोग सामान्य रूप एक श्रमिक के काम के लिए किया जाने लगा जिन्हें अमीर ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के ब्रिटिश शासकों ने भारत में नियुक्त किया था। समय के साथ ऐसी कई पुस्तकें आयी जो डूरियाह की नौकरी का विवरण देती हैं, इनमें से एक उल्लेखनीय प्रसिद्ध पुस्तक ओरिएंटल फील्ड स्पोर्ट्स (Oriental Field Sports) है। जिसमें प्री-फोटोग्राफी (Pre-photography) युग में, डूरियाह को दिखाने वाले कई लिथोग्राफ प्रिंट (Lithograph print) चित्रण मौजूद हैं। भारत में यूरोपीय लोगों के साथ-साथ रियासतों के राजाओं ने भी शिकार का आनंद प्राप्त करने के लिए भारतीय और विदेशी नस्ल के कुत्तों को पालतू जानवर के रूप में रखा किंतु 1885 तक कुत्तों में रेबीज की समस्या फैलने लगी थी और ब्रिटिश सरकार ने कुत्तों के टीकाकरण पर कानून पारित करना शुरू कर दिया। यहां तक कि शहरों के अंदर आवारा कुत्तों को मारने का प्रयास भी किया।
जूनागढ़ के महाराजा, नवाब सर मस्तीन खान रसूल खान, ने अपने कुत्तों का विवाह बड़े धूम धाम से किया। इसके बाद जींद के महाराजा रणबीर सिंह और पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने भी अपने कुत्तों की शादियों को धूमधाम से मनाया। जूनागढ़ के महाराज को कुत्ते इतने अधिक पसंद थे की उन्होंने लगभग 800 कुत्ते को पाला हुआ था। इनमें से प्रत्येक का अपना एक कमरा, एक टेलीफोन और एक सेवक भी था जो उनकी देखरेख करता था। इनकी बीमारी के इलाज के लिए अच्छे अस्पताल बनाए गये थे, जहां इनके इलाज के लिए ब्रिटिश डॉक्टर को नियुक्त किया गया था। जब एक कुत्ते की मृत्यु हुई तो उसका अंतिम संस्कार भी किया गया तथा पूरे राज्य में शोक घोषित किया गया। जूनागढ़ के महाराजा को जहां कुत्ते अत्यधिक पसंद थे वहीं कुछ ऐसे भी थे जो उनसे पूर्णतः नफरत करते थे। इन राजाओं में अलवर के महाराजा शामिल थे। इस काल में कुत्तों को पालने के साथ जो प्रमुख समस्या थी वह कुत्ते के काटने और रेबीज की थी। औपनिवेशिक भारत में उस समय तक रेबीज के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं था। कुछ प्रासंगिक दस्तावेजों से पता चलता है कि उस दौरान इस समस्या से निपटने के लिए कुत्तों के मुंह को बांधा जाने लगा। मद्रास प्रेसीडेंसी के प्रशासन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1897 के बाद से कुत्ते को मारने की घटनाएं आम हो गयी थी। 1920 में, मद्रास प्रेसीडेंसी (Presidency) में नगर पालिकाओं में रेबीज की रोकथाम के लिए कई अधिनियम पारित किए गए थे। 1923 में, रेबीज को मद्रास जिला नगरपालिका अधिनियम की अनुसूची VI के अनुसार खतरनाक बीमारियों की सूची में भी जोड़ा गया था। रिकॉर्ड (Record) यह भी संकेत देते हैं कि, रेबीज के इलाज के लिए कुत्तों द्वारा काटे गए सरकारी कर्मचारियों को इलाज हेतु पेरिस की यात्रा के लिए अनुदान दिया जाता था।
ऐसे कई चित्र हैं, जिनमें डॉग कीपर्स को कुत्तों की देखभाल या उनकी निगरानी करते हुए चित्रित किया गया है तथा इन्हें ब्रिटिश संग्रहालय में भी संरक्षित किया गया है। ओरिएंटल फील्ड स्पोर्ट्स श्रृंखला के एक चित्र में एक आंगन में, कई स्थानीय लोगों ने भौंकते हुए कुत्तों को एक पट्टे की मदद से पकडा हुआ है तथा दोनों ओर छोटी-छोटी इमारतें हैं। किनारे पर एक अस्तबल है तथा एक बंदर पक्षी घर के ऊपर बैठा हुआ है। एक चित्र में प्रत्येक कुत्ते को नियंत्रित करते हुए, प्रत्येक का सेवक उनके बगल में खडा है। औपनिवेशिक काल में डॉग कीपर का विवरण 150 साल पुरानी किताब थॉमस एच विलियमसन द्वारा ईस्ट इंडिया वेड-मेकम (East India Vade) में भी मिलता है। जो यह बताती है कि कैसे डॉग कीपर कुत्तों के लिए भोजन की तैयारी करते थे, उन्हें ताजी हवा में बाहर ले जाते थे। उनके हाथ में सचेतक (Whip) होता था जिसमें एक चमडे की पट्टी लगी हुई होती थी। यह दिखाता था कि कुत्ता उनके नियंत्रण में है। वे करीब 7 या 8 छोटे कुत्तों को नियंत्रित कर सकते थे। डॉग कीपर की नौकरी का वर्णन 200 साल पहले की थॉमस विलियमसन की प्रसिद्ध शिकारी पुस्तक ओरिएंटल फील्ड स्पोर्ट में भी है। यह बताती है कि डॉग कीपर कुत्तों की उचित वृद्धि के लिए उन्हें समान मात्रा में उबला हुआ चावल और मीट देते थे। इसमें वे नमक और हल्दी का भी प्रयोग करते थे। यह भोजन उन्हें दिन में करीब तीन बार खिलाया जाता था। इसके अलावा इसमें कुत्ते के काटने से होने वाली मानव हानि का भी उल्लेख है।
समय के साथ डॉग बॉय का यह पेशा व्यर्थ माना जाने लगा। किंतु भारत में यह पेशा पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। आज भी बहुत से समृद्ध व्यक्ति अपने पालतू कुत्तों के रखरखाव लिए सेवकों को नियुक्त करते हैं।
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में तीन डॉगबोय (DogBoy) दिखाई दे रहे हैं। (Wikivisually)
2. दूसरे चित्र में कुत्तों को घूमते हुए उनके प्रशिक्षक या केयरटेकर दिखाए गए हैं। (Pblicdomainpictures)
3. तीसरे चित्र में डॉगबॉयज कुत्तों को बाहर घूमाते हुए दिखाई दे रहे हैं। (British Meusem)
4. अंतिम चित्र में डॉगबॉयज कुत्तों को बाहर घूमाते हुए पैटर्न को एक मिट्टी के बरतन (नाली के जाल, Drainer) पर नीले रंग के अंडरग्लैज में मुद्रित किया गया था। (spodeceramics)
संदर्भ:
1. https://www.tribuneindia.com/2003/20030524/windows/main2.htm
2. https://sniffingthepast.wordpress.com/2019/05/16/on-the-trail-of-dogs-in-colonial-india/
3. https://www.lib.lsu.edu/sites/all/files/sc/exhibits/e-exhibits/india/chap3.htm
4. https://bit.ly/2TPyHuY
5. https://bit.ly/36CNPBh
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