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विश्व पुस्तक दिवस विशेष:भारत के प्राचीन नालंदा पुस्तकालय में ग्रंथों का अतुल्य संग्रह

लखनऊ

 24-04-2024 09:37 AM
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक

फाहियान (Fa- Hien) भारत की यात्रा करने वाले पहले प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु और यात्री थे। उन्होंने गुप्त साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान भारत का दौरा किया। इसके बाद एक अन्य चीनी बौद्ध भिक्षु और यात्री ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang) ने 7वीं शताब्दी में राजा हर्ष वर्धन के शासनकाल के दौरान भारत का दौरा किया था। उन्होंने भारत की अपनी यात्रा के दौरान बौद्ध धर्मग्रंथों की खोज में योगदान दिया। ह्वेन त्सांग , जिन्होंने नालंदा में भी अध्ययन और अध्यापन किया था, 657 बौद्ध धर्मग्रंथों को नालंदा से चीन (China) ले गए थे। आइए पहले चीनी बौद्ध भिक्षु फाहियान और ह्वेन त्सांग के विषय में जानते हैं, जिन्होंने भारत की यात्रा के दौरान बौद्ध धर्मग्रंथ ‘तिपिटक' के तीन खंडों में से सबसे पुराने और सबसे छोटे खंड 'विनय पिटक' की एक प्रति की खोज की। इसके साथ ही नालंदा पुस्तकालय में संग्रहीत पांडुलिपियों में प्रयुक्त भाषाओं और लिपियों के विषय में भी जानते हैं। फाहियान, जिन्हें फ़ैक्सियन (Faxian) के नाम से भी जाना जाता है, को चौथी और पाँचवीं शताब्दी ईसवी. के दौरान बौद्ध इतिहास लेखन के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान और भारत की उनकी यात्रा के दौरान बौद्ध धर्मग्रंथों की खोज के लिए व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है। पवित्र बौद्ध ग्रंथों और अवशेषों को एकत्र करने और उनका अध्ययन करने के उद्देश्य के साथ फाह्यान ने एक दशक से अधिक समय तक विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की, जिनमे आधुनिक भारत, श्रीलंका और म्यांमार शामिल हैं। फाह्यान ने चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान प्राचीन रेशम मार्ग से होते हुए उत्तर भारत में पेशावर (वर्त्तमान पाकिस्तान) तक, भारत का उस समय दौरा किया। हालांकि अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अपना अधिकांश समय बौद्ध धार्मिक स्थलों की खोज और बौद्ध धर्मग्रंथों और लिपियों को एकत्र करने में समर्पित किया था, तथापि उन्होंने पाटलिपुत्र की यात्रा के दौरान महान चंद्रगुप्त के भव्य साम्राज्य के विषय में संक्षिप्त ही विवरण दिया है।
वे अपने विवरण में लिखते हैं कि चंद्रगुप्त एक बहुत ही दयालु और उदार राजा थे जिन्होंने अपने लोगों के कल्याण के लिए कार्य किया। चंद्रगुप्त द्वितीय ने व्यापारियों और यात्रियों के लिए कई धर्मार्थ संस्थान, मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएँ और विश्राम गृह बनवाए थे। फाह्यान अपने लेख में मगध का उल्लेख मध्य भारत के रूप में करते है। ऐसा इसलिए हो सकता था क्योंकि मगध प्रांत के शहर, सिंधु-गंगा नदियों से सिंचित मैदानों में सबसे बड़े थे। फ़ाहियान के लेखन से, इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकाला है कि तत्कालीन शासक द्वारा जनता पर अवास्तविक प्रतिबंध नहीं लगाए गए थे। लोगों के जीवन में राज्य का न्यूनतम हस्तक्षेप था और कुल मिलाकर, लोग अपनी इच्छानुसार जीने और भ्रमण के लिए स्वतंत्र थे। समाज में कानून और व्यवस्था थी और लोग सुरक्षित महसूस करते थे। कई इलाकों में स्थिति इतनी शांतिपूर्ण थी कि लोग अपने घरों के दरवाजे भी बंद नहीं करते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि उनकी यात्रा के दौरान आंतरिक और बाह्य व्यापार दोनों फल-फूल रहे थे। उस समय भारतीय लोग, दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य पूर्व और कुछ यूरोपीय देशों में समुद्री यात्राएँ भी कर रहे थे। पाटलिपुत्र में रहने के दौरान उन्हें बौद्ध धर्म के महायान और हीनयान संप्रदाय के विषय में ज्ञान प्राप्त हुआ। एक महायान मठ में, उन्होंने एक धार्मिक ग्रंथ 'विनय पिटक' की एक प्रति की खोज की। उन्होंने इसका अर्थ समझने के लिए संस्कृत भाषा भी सीखी। स्वदेश लौटने के बाद, उन्होंने बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी का दौरा भी किया। फ़ाहियान ने बड़े पैमाने पर गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े शहरों जैसे कि श्रावस्ती, कपिलवस्तु, सारनाथ, राजगीर, वैशाली और तक्षशिला की यात्रा की। उन्होंने अपने अनुभवों को पुस्तकों में दर्ज किया जो बौद्ध धर्म के विकास पर प्रकाश डालते हैं। उनका सबसे उल्लेखनीय कार्य, "फो-क्वो-की" (Fo-Kwo-Ki), भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध जीवन शैली के बारे में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। अशोक साम्राज्य के दौरान निर्मित राजधानी, अशोक का महल और सांची स्तूप जैसे वास्तव शिल्प के भव्य निर्माणों को देखकर फाह्यान भी आश्चर्यचकित रह गए थे। इन संरचनाओं को देखकर उन्होंने कहा था, "ये निर्माण मनुष्य द्वारा नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर द्वारा बनाए गए हो सकते हैं"। मालवा क्षेत्र की जलवायु का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि यह न तो बहुत गर्म था और न ही बहुत ठंडा और रहने के लिए बिल्कुल उपयुक्त था।फाह्यान ने कई धर्मों के सौहार्दपूर्ण और मैत्रीपूर्ण सह-अस्तित्व का उल्लेख किया। हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के अलावा, उन्होंने वैष्णववाद, शक्तिवाद, शैववाद, जैन धर्म आदि के अस्तित्व का भी उल्लेख किया।
फ़ाहियान के विस्तृत विवरण हमें न केवल गौतम बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं तथा बौद्ध धर्म की परंपराओं, दर्शन और सिद्धांतों के बारे में अनेक जानकारी देते हैं, बल्कि तत्कालीन शासक, समाज, राजनीति आदि के बारे में भी उचित जानकारी प्रदान करते हैं। सरल शब्दों में, हम कह सकते हैं कि उनके लेख भारतीय इतिहास के लिए जानकारी का एक मूल्यवान स्रोत हैं।
एक अन्य चीनी बौद्ध भिक्षु, विद्वान, यात्री और अनुवादक ह्वेन त्सांग, जिन्हें जुआनज़ैंग (Xuanzang) के नाम से भी जाना जाता है, ने 629 से 645 ईसवी में राजा हर्ष वर्धन के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्मग्रंथ प्राप्त करने के लिए चीन से भारत की यात्रा की और 657 से अधिक भारतीय ग्रंथों को अपने साथ चीन ले गए। कुछ समसामयिक ग्रंथों के उनके अनुवाद उस समय के भारत के इतिहास, संस्कृति और धर्म के बारे में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। उनके लेखन का चीन में बौद्ध धर्म के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
627 ईसवी में चीन के तांग राजवंश और तुर्क जनजाति के बीच संघर्ष के कारण सिल्क व्यापार मार्गों पर प्रतिबंध लगा था, जिसके कारण ह्वेन त्सांग 630 ईसवी में अफगानिस्तान होते हुए भारत पहुंचे। अफगानिस्तान में अपने समय के दौरान, ह्वेन त्सांग ने कई महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ प्राप्त किए, जिनमें कुषाण युग के एक प्रख्यात दार्शनिक वसुमित्र द्वारा 150 ईसवी के आसपास लिखा गया एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ, “महाविभास” भी शामिल है। बर्नर घाटी और शाहबाज़ ग्राही के रास्ते में, वे सिंधु नदी को पार करके तक्षशिला पहुंचे। वहाँ उन्होंने देखा कि तक्षशिला के अधिकांश संघाराम (मंदिर और मठ) स्थानीय राजाओं के बीच संघर्ष के कारण क्षतिग्रस्त हो गए थे। जब ह्वेन त्सांग 631 ईसवी में कश्मीर पहुंचे, तो उन्होंने 100 से अधिक मठों और 5,000 से अधिक भिक्षुओं वाले एक बड़े बौद्ध समुदाय की खोज की। 634 ईसवी में, ह्वेन त्सांग ने माटीपुरा (आधुनिक मंडावा, उत्तर प्रदेश में बिजनोर के पास) पहुंचने से पहले चिनियट और लाहौर की यात्रा की। उन्होंने मतिपुरा मठ में प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षक मित्रसेना के अधीन अध्ययन किया। बौद्ध शिक्षाओं और प्रथाओं की अपनी समझ को आगे बढ़ाने के लिए, ह्वेन त्सांग ने पंजाब के जालंधर, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, राजस्थान के बैराट और उत्तर प्रदेश के मथुरा की भी यात्रा की। बाद में, ह्वेन त्सांग ने राजा हर्षवर्धन की राजधानी की यात्रा की। ह्वेन त्सांग राजा हर्ष के बौद्ध धर्म के संरक्षण और विद्वता के समर्थन से प्रभावित थे। बाद में, ह्वेन त्सांग ने 636 ईसवी में हर्ष के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्म से जुड़े कई शहरों और मठों का दौरा किया, जिनमें गोविषाण (अब काशीपुर, उत्तराखंड), अयोध्या, और कौशांबी शामिल थे।
इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश में श्रावस्ती और अंत में नेपाल के तराई क्षेत्रों की यात्रा की। बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी पहुंचने से पहले वे कपिलवस्तु भी गए। ह्वेन त्सांग ने लुंबिनी की यात्रा के बाद उत्तर भारत में कई महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों की यात्रा की, जिनमें कुशीनगर, सारनाथ, वाराणसी, वैशाली,बता, पाटलिपुत्र और बोधगया शामिल हैं। ये सभी बुद्ध के जीवन और भारत में बौद्ध धर्म के प्रारंभिक विकास से जुड़े महत्वपूर्ण स्थान हैं।ह्वेन त्सांग ने बिहार के भागलपुर में चंपा मठ का भी दौरा किया। उन्होंने वर्तमान बिहार में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए लगभग पांच साल बिताए। ह्वेन त्सांग ने नालंदा में तर्कशास्त्र, व्याकरण, संस्कृत और बौद्ध दर्शन सहित विभिन्न विषयों का अध्ययन किया।
भारत में नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का अध्ययन करते समय, ह्वेन त्सांग ने वसुबंधु पर ग्यारह भाष्यों की खोज की। ह्वेन त्सांग ने नालंदा से बांग्लादेश की यात्रा की, जहां उन्होंने 20 मठों की खोज की, जहां लगभग 3,000 भिक्षु हीनयान और महायान दोनों का अध्ययन कर रहे थे। ह्वेन त्सांग ने आंध्र प्रदेश में अमरावती और नागार्जुनकोंडा के प्रसिद्ध बौद्ध स्थल का भी दौरा किया। ह्वेन त्सांग ने पल्लवों की शाही राजधानी और एक प्रमुख बौद्ध केंद्र कांची जाने से पहले अमरावती में 'अभिधम्म पिटक' पांडुलिपियों का अध्ययन किया। बाद में, असमिया शासक कुमार भास्कर वर्मन के निमंत्रण पर, ह्वेन त्सांग ने पूर्व में कामरूप राज्य के प्राचीन शहर प्रागज्योतिषपुरा की यात्रा की। हालाँकि, वह कामरूप जाने से पहले सिलहट (बांग्लादेश का एक आधुनिक शहर) गए और वहाँ की संस्कृति और लोगों का गहन मूल्यांकन किया। 643 ईसवी में ह्वेन त्सांग एक प्रमुख बौद्ध सभा में भाग लेने के लिए राजा हर्षवर्द्धन के निमंत्रण पर कन्नौज लौट आये। ह्वेन त्सांग की यात्रा 16 वर्षों तक चली, इस दौरान उन्होंने 10,000 मील से अधिक की यात्रा की और भारत और एशिया के अन्य हिस्सों में विभिन्न महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों का दौरा किया। ह्वेन त्सांग के अभिलेख राजा हर्षवर्धन के शासन, पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों और बौद्ध धर्म और अन्य धर्मों के संरक्षण में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग तीसरी-छठी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य काल के दौरान की गई थी। जिसके बाद लगभग 750-1161 ईसवी में पाल साम्राज्य के शासकों द्वारा नालंदा का विकास जारी रहा। लगभग 750 वर्षों में, नालंदा के संकाय में महायान बौद्ध धर्म के कुछ सबसे प्रतिष्ठित विद्वान शामिल थे। नालंदा के पाठ्यक्रम में मध्यमक, योगाचार और सर्वास्तिवाद जैसे प्रमुख बौद्ध दर्शन के साथ-साथ वेद, व्याकरण, चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित, और खगोल विज्ञान जैसे अन्य विषयों का अध्ययन किया जाता था। इस विश्वविद्यालय में एक प्रसिद्ध पुस्तकालय भी था जहाँ संस्कृत ग्रंथों का एक विशाल संग्रह था। ह्वेन त्सांग और यिंगिंग जैसे यात्री इन्हीं ग्रंथों द्वारा आकर्षित होकर भारत की यात्रा पर आए। नालंदा में रचित कई ग्रंथों ने महायान और वज्रयान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बड़ी संख्या में ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय में एक अच्छी तरह से सुसज्जित पुस्तकालय रहा होगा जिसमें से अधिकांश ग्रंथ ह्वेन त्सांग और यिजिंग अपने साथ ले गए। पारंपरिक तिब्बती स्रोतों में नालंदा में 'धर्मगंज' नामक एक महान पुस्तकालय के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है, जिसमें तीन बड़ी बहुमंजिला इमारतें - रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक- शामिल थीं। रत्नोदधि नौ मंजिल ऊंची थी और इसमें प्रज्ञापारमिता सूत्र और गुह्यसमाज सहित सबसे पवित्र पांडुलिपियां थीं। नालंदा पुस्तकालय में खंडों की सटीक संख्या ज्ञात नहीं है, लेकिन अनुमान है कि यह संख्या हजारों में थी। जब नालन्दा में एक बौद्ध विद्वान की मृत्यु होती थी, तो उसकी पांडुलिपियों को पुस्तकालय में संग्रहित कर लिया जाता था। पुस्तकालय में न केवल धार्मिक पांडुलिपियाँ एकत्र की गईं, बल्कि व्याकरण, तर्क, साहित्य, ज्योतिष, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे विषयों पर भी ग्रंथ थे। ऐसा अनुमान है कि नालंदा पुस्तकालय में एक वर्गीकरण योजना रही होगी जो संभवतः संस्कृत भाषाविद् पाणिनि द्वारा विकसित की गयी थी। त्रिपिटक के तीन मुख्य प्रभागों के आधार पर बौद्ध ग्रंथों को संभवतः तीन वर्गों में विभाजित किया गया था: विनय, सूत्र और अभिधम्म।
वर्तमान में नालंदा विश्वविद्यालय के स्थल को यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया है। 2010 में, भारत सरकार ने प्रसिद्ध विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और राजगीर में एक समकालीन संस्थान, नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। इसे भारत सरकार द्वारा "राष्ट्रीय महत्व के संस्थान" के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/4ppp6yy6
https://tinyurl.com/mtujrvzb
https://tinyurl.com/h8x7upf9

चित्र संदर्भ

1. नालंदा विश्वविद्यालय को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. खंडहर के पास खड़े चीनी यात्री फाहियान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. ह्वेन त्सांग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पांडुलिपियों के साथ ह्वेन त्सांग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. नालंदा विश्वविद्यालय को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)



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