City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
1717 | 193 | 1910 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
आमतौर पर नृत्य करने का मूल उद्देश्य अपना या अन्य लोगों का मनोरंजन करना होता है। लेकिन वहीं पर "लोक नृत्य" कई लोगों के लिए अपनी पारंपरिक संस्कृति को व्यक्त करने, साझा करने और उससे जुड़ने का एक मूल्यवान साधन साबित होता है। भारत सहित दुनियाभर में कई सदियों से विविध नृत्य शैलियाँ प्रदर्शित की जाती रही हैं। हमारे उत्तर प्रदेश में भी कई प्रसिद्ध लोक नृत्यों के माध्यम से हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत खूबसूरती से प्रतिबिंबित होती है। विशेष रूप से, कथक और ठुमरी शैलियां तो नवाबी नगरी लखनऊ के ताने-बाने में गहराई से रची-बसी हैं। आज हम विशेषतौर पर उत्तर प्रदेश के कुछ अन्य लोक नृत्य जैसे नौटंकी और रासलीला तथा इनकी वर्तमान स्थिति के बारे में जानेंगे जो पूरी दुनिया में मशहूर हैं।
रासलीला: रासलीला, भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं अथवा कहानियों से प्रेरित, भक्तिमय नाटक का एक रूप है। इसके तहत विशेष रूप से उनके बचपन और कामुक युवावस्था की घटनाओं का प्रदर्शन किया जाता है। श्री कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को रासलीला के रूप में प्रस्तुत करने की यह परंपरा लगभग तीन शताब्दी पहले कृष्ण की पौराणिक कथाओं से जुड़े क्षेत्रों में शुरू हुई थी। इस परंपरा को स्थापित करने का श्रेय तीन श्रद्धेय विष्णु भक्ति संतों - घुमंड देव, हितहरिवंश, और नारायण भट्ट - को दिया जाता है, जिन्होंने इसकी प्रेरणा प्राचीन लोक प्रथाओं और सुंदर कथक नृत्य तकनीक से ली थी।
रासलीला की परंपरा आज भी जीवित है, जिसका प्रदर्शन मुख्य रूप से दिल्ली के दक्षिणी क्षेत्रों और उत्तर प्रदेश में, विशेषकर वृन्दावन में, विभिन्न प्रकार के धार्मिक उत्सवों के दौरान शौकिया समूहों द्वारा किया जाता है। एक मंडली में आमतौर पर पांच संगीतकारों का एक समूह होता है, जिसमे एक स्वामी या समूह का एक नेता, दो 11-13 वर्षीय लड़के होते हैं, जो कृष्ण और राधा (कृष्ण की प्रेमिका) की भूमिका निभाते हैं, और 8-10 साल के लड़कों का एक समूह जो गोपियों या चरवाहों की भूमिका निभाते हैं। रासलीला के दौरान वयस्क पुरुष, अक्सर आर्केस्ट्रा के सदस्य, जोकर और छोटे पात्रों की भूमिका निभाते हैं।
रासलीला ब्रज भाषा में लिखे गए भक्ति साहित्य पर आधारित है, जो अपनी मिठास और भक्ति पूर्ण मार्ग के लिए प्रसिद्ध है। भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की लगभग हर महत्वपूर्ण घटना को एक लीला या नाटक के रूप में बदल दिया गया है। रास लीला के दौरान समूह का नेता, स्वामी (जो हमेशा एक विद्वान ब्राह्मण पुजारी होता है), छंद गाते हैं, जिसे अभिनेता मंच पर प्रस्तुत करते हैं। नाटक के दौरान विभिन्न पात्र, अपनी-अपनी पंक्तियाँ बोलते हैं।
रासलीला में आमतौर पर पांच संगीतकार अभिनय क्षेत्र और दर्शकों के बीच अर्धवृत्त में बैठे होते हैं। इस दौरान वे एक सारंगी (एक तार वाला वाद्ययंत्र), हैंड-ड्रम (hand-drum), झांझ और हारमोनियम इत्यादि बजाते हैं।
नौटंकी: स्वांग-नौटंकी परंपरा, प्रदर्शन कला का एक रूप है, जिसका इतिहास कई शताब्दियों पुराना माना जाता है। नौटंकी का सबसे पहला उल्लेख 16वीं सदी की किताब, आईन-ए-अकबरी में मिलता है, जिसे भारत में सम्राट अकबर के दरबार के विद्वान अबुल फज़ल द्वारा लिखा गया था। नौटंकी की जड़ें उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में भगत और रासलीला के साथ राजस्थान में ख्याल की लोक प्रदर्शन परंपराओं में पाई जाती हैं।
19वीं शताब्दी में भारत में प्रिंटिंग प्रेस के आगमन और नौटंकी ओपेरा (Nautanki opera) के चैप-बुक (chap-book) के रूप में प्रकाशन के साथ नौटंकी की लोकप्रियता और अधिक बढ़ने लगी।
19वीं सदी के अंत में, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाथरस और मथुरा, तथा मध्य उत्तर प्रदेश में कानपुर और लखनऊ, नौटंकी प्रदर्शन और शिक्षा के प्रमुख केंद्रों के रूप में उभरे। सबसे पहले हाथरस स्कूल विकसित हुआ, जिसके बाद मध्य उत्तर प्रदेश में इसके प्रदर्शन के कारण नौटंकी के कानपुर-लखनऊ स्कूल की स्थापना की गई।
इन दोनों स्कूलों की प्रदर्शन शैलियाँ और तकनीकें अलग-अलग हैं। हाथरस स्कूल, जिसे हाथरसी स्कूल के नाम से भी जाना जाता है, गायन पर अधिक जोर देता है और इसका एक ऑपरेटिव रूप है। दूसरी ओर, कानपुर स्कूल गायन के साथ गद्य मिश्रित संवादों पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। यह शैली औपनिवेशिक युग (19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत) के दौरान विकसित हुई जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। कानपुर शैली में यूरोपीय थिएटर परंपराओं से प्रेरित पारसी थिएटर की गद्य संवाद अदायगी के कई तत्वों को शामिल किया गया और उन्हें एक नई प्रदर्शन शैली बनाने के लिए हाथरसी गायन के साथ मिश्रित किया गया। इसके अतिरिक्त, कानपुर स्कूल में गायन शैली की तीव्रता हाथरसी स्कूल की तुलना में अधिक है। 20वीं सदी की शुरुआत में नौटंकी की ख्याति अपने चरम पर पहुंच गई जब कई नौटंकी प्रदर्शन करने वाले समूह, जिन्हें मंडली और अखाड़े के नाम से जाना जाता था, का गठन किया गया। ये समूह 1990 के दशक की शुरुआत तक टेलीविजन और वीसीआर (Television and VCR) लोकप्रियता के साथ ही उत्तरी भारत के छोटे शहरों और गांवों में मनोरंजन का मुख्य स्रोत बन गए।
जैसे-जैसे नौटंकी को लोकप्रियता मिली, इसका मंच बड़ा और अधिक पेशेवर हो गया। नाथाराम की मंडली जैसी नौटंकी कंपनियों ने अपने मुख्य दर्शक क्षेत्र के बाहर भी अपना प्रदर्शन प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। उनके कुछ प्रदर्शन म्यांमार में भी हुए। नौटंकी में पौराणिक कथाओं और लोक कथाओं से लेकर समकालीन नायकों की कहानियां भी प्रदर्शित की जाती थी। उदाहरण के लिए, जहां सत्य-हरिश्चंद्र और भक्त मोरध्वज जैसे नाटक पौराणिक विषयों पर आधारित थे, वहीं इंदल हरण और पूरनमल की उत्पत्ति लोककथाओं से हुई थी। 20वीं सदी के पूर्वार्ध में ब्रिटिश शासन और सामंती जमींदारों के खिलाफ समकालीन भावनाएं सुल्ताना डाकू, जलियांवाला बाग और अमर सिंह राठौड़ जैसी नौटंकियों में व्यक्त की गईं।
हालांकि वर्तमान में, पारंपरिक प्रदर्शन कला नौटंकी कई चुनौतियों का सामना कर रही है। नौटंकी के लिए सिनेमा और टेलीविजन से प्रभावित दर्शकों के बदलते स्वाद के अनुरूप ढलना मुश्किल साबित हो रहा है। इसके अलावा, नौटंकी ने समसामयिक मुद्दों को प्रतिबिंबित करने के लिए अपनी स्क्रिप्ट अथवा शैली का आधुनिकीकरण नहीं किया है, जिससे ऐतिहासिक आख्यान आज के दर्शकों के लिए कम प्रासंगिक हो गए हैं।
औपनिवेशिक काल के दौरान, योद्धा अमर सिंह राठौड़ जैसे आख्यानों ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरेचन और प्रतिरोध के रूप में काम किया। हालाँकि, आज़ादी के बाद, दर्शक ऐसी कहानियों को पसंद करने लगे जो उनकी वर्तमान वास्तविकताओं को दर्शाती हैं और दहेज, कृषि कीटनाशकों, बेरोजगारी, गरीबी और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को संबोधित करती हैं।
आज लोक रूपों को अक्सर कालातीत कलाकृतियों या बीती हुई घटनाओं के रूप में देखा जाता था, जो विकसित होती जीवित परंपराओं के बजाय अभिजात वर्ग के मनोरंजन के लिए अपने "शुद्ध" रूप में संरक्षित थे। इससे आधुनिक भारत में नौटंकी और इसके समान रूपों की लोकप्रियता और प्रासंगिकता खोने का खतरा पैदा हो गया है।
नौटंकी और रास नृत्य जैसी कई लोक कलाओं को आज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इनमे शामिल है:
1. बदलती परंपराएँ: सबसे बड़ा जोखिम यह है कि नए विचारों और शैलियों के संयोजन के कारण सदियों से चली आ रही परंपराएँ कमज़ोर हो सकती हैं। हालाँकि कला को ताज़ा बनाए रखने के लिए परिवर्तन ज़रूरी है, लेकिन इसे केवल बदलते रुझानों का अनुसरण करने के बजाय बहुत ही सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए।
2. सीखने के तरीके: पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा के बजाय संस्थागत रूप से सीखने की ओर बदलाव का असर छात्र की गहराई से समझने के कौशल को प्रभावित कर सकता हैं।
3. ध्यान देने का कम समय: आज जो लोग टीवी और कंप्यूटर के आदी हो गये हैं, उनकी रुचि पारंपरिक नृत्य सीखने में कम हो रही है और पारंपरिक प्रदर्शनों पर उनका ध्यान कम जाता है।
4. वित्तीय मुद्दे: आज की अर्थव्यवस्था में एक पेशेवर नर्तक के रूप में जीवन यापन करना कठिन हो रहा है, जो कई लोगों को नृत्य को करियर के रूप में अपनाने से हतोत्साहित कर सकता है।
5. दर्शकों का व्यवहार: आज अधिकांश दर्शक प्रदर्शन में देर से आते हैं, केवल कुछ प्रदर्शनों के लिए रुकते हैं और फिर अन्य सामाजिक कार्यक्रमों के लिए चले जाते हैं। यह व्यव्हार कलाकारों के लिए निराशाजनक हो सकता है।
हालांकि इन सभी चुनौतियों के बावजूद, कलाएँ अभी भी कई स्तरों पर सौंदर्य और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं जो हमेशा मानव जीवन का एक हिस्सा रहेंगी, चाहे जीवन कितना भी तेज़ क्यों न हो जाए।
संदर्भ
https://tinyurl.com/4wv86tsd
https://tinyurl.com/trdycz6z
https://tinyurl.com/3cesvm7u
चित्र संदर्भ
1. नौटंकी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. रास-लीला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. रास-लीला मंचन को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. नौटंकी कलाकारों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. नौटंकी प्रदर्शन को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. प्रेम कथा पर केंद्रित नौटंकी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. टीवी देखते व्यक्ति को संदर्भित करता एक चित्रण (WannaPik)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.