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प्राचीन काल से भगवान शिव को पूजते आए हैं हमारे लोहार, जापान में भी मिले सामान परंपरा के साक्ष्य

जौनपुर

 30-05-2023 09:50 AM
सभ्यताः 10000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व

भारतीय उपमहाद्वीप को पहले से ही सभ्यता और व्यापार के प्राचीन गढ़ों में से एक के रूप में स्वीकार किया जा चुका है। हड़प्पा और सरस्वती सांस्कृतिक स्थलों की पुरातात्विक खोज ने वास्तुकला, नगर नियोजन, सिंचाई, कृषि, समुद्री व्यापार के साथ-साथ धातु उत्पादन और इसके निर्माण में उत्कृष्टता का पर्याप्त प्रमाण प्रदान किया है। प्राचीन भारतीयों द्वारा हिंदू दर्शन के रूप में, मान्यता प्राप्त एकीकृत जीवन शैली को विकसित करने वाले मानव मूल्यों, सामाजिक संस्कृति और धर्म की प्रगति को समान महत्व दिया है, जो मिथक, धर्म और जाति या पेशे (कर्म) का एक अनोखा मिश्रण है। जैसा कि वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों में वर्णित है, आर्यों और द्रविड़ों के पास दैनिक जीवन के कर्तव्यों का प्रबंधन करने के लिए एक अच्छी तरह से विकसित जाति प्रणाली थी। ये जातियाँ कर्म आधारित थीं और इनमें समूह के लोगों से जीवन भर विशिष्ट कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। कर्म और धार्मिक कर्मकांडों में इस समूह की आस्था इतनी गहरी है कि उनके अलग-अलग व्यापार के देवता भी थे, जिनकी वे पूजा करते थे। प्राचीन काल से लौह-गलाने, इस्पात बनाने और लोहार पेशेवर वाले जातीय समूह, स्वयं को असुर कहते थे। दरसल प्राचीन काल में इन प्रक्रियाओं को जादू और जादू टोना माना जाता था, जिसमें असुर देवताओं द्वारा दी गई अलौकिक शक्ति होती थी। इसलिए लोहा गलाने की प्रथा से जुड़े जातीय समूह को असुर का वंशज कहा जाता है। ये पारंपरिक रूप से शिव को अपना भगवान मानते हैं और महाकाल, भैरव, रुद्र और कालभैरव की तांत्रिक पंथ के अनुसार पूजा करते हैं। अनादि काल से, अपनी भट्टी शुरू करने से पहले ये समूह, भगवान शिव से व्यापार की सफलता के लिए प्रार्थना करते हैं। वहीं वर्तमान समय में भी इन्होंने, विशेष रूप से असुर मुंडा और गडोलिया लोहार ने असुर लोककथाओं के रूप में अपनी परंपरा को जीवित रखा हुआ है।
दूसरी ओर जापान (Japan) में, लोहे की तकनीक, कोरिया (Korea) और चीन (China) से प्रवासन के माध्यम से दूसरी और तीसरी ईसा पूर्व में आई। 'फुइगो मत्सुरी (Fuigo Matsuri)' उत्सव के दौरान 'सैम्बो कोजिन (Sambo Kojin)' की इसी तरह की धार्मिक पूजा को जापान के तलवार-लोहार और प्राचीन लौह- लोहारों द्वारा जीवित रखा गया है। जापान के बौद्ध साहित्य में सैम्बोकोजिन की पूजा का उल्लेख दानव भगवान, ओशिरा समा (Oshira Sama) या आशूरा (Ashura) और ओशिरा (Oshira) के रूप में किया गया है, और ऐसा माना जाता है कि ये भारतीय मूल के हो सकते हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार लोहे के निर्माण की शुरुआत वैदिक काल में हुई थी। प्रारंभिक भारतीय ग्रंथों में अयस (धातु) के अनेक संदर्भ मिलते हैं। अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण, कृष्ण अयस ("काली धातु") का उल्लेख करते हैं, जो शायद लोहा हो सकता है। लेकिन संभवतः वो लौह अयस्क और लोहे की वस्तुएं भी हो सकती हैं। ऋग्वेद की अनेक रिचाओं में लोहे के विभिन्न औजारों के बारे में विस्तार से लिखा गया है। यह इंगित करता है कि धातु उत्पादन शुरू में ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला एक पवित्र अनुष्ठान था, जिन्हें संभवतः लोहाविद कहा जाता था। बाद में, इन प्रक्रियाओं को अन्य जातियों को सौंप दिया गया, जिन्होंने व्यावसायिक पैमाने पर धातु के उत्पादन और निर्माण को शुरू किया। हमारे अर्थशास्त्र, धातु निदेशक, वन उत्पाद निदेशक और खनन निदेशक की भूमिका निर्धारित करता है। इसमें बताया गया है कि विभिन्न धातुओं के लिए कारखाने स्थापित करना धातु निदेशक का कर्तव्य है। कारखाने निदेशक खानों के निरीक्षण के लिए जिम्मेदार हैं। धातु का उपयोग कृषि में भी किया जाता था, जिसकी पुष्टि हम बौद्ध पाठ सुत्तनिपता में निम्नलिखित सादृश्यता से कर सकते हैं: "एक हल जो दिन के दौरान गर्म हो जाता है और जब उस गरम हल को पानी में डाला जाता है तो यह छींटे, फुफकार और काफी धुआँ छोड़ता है...”।
तमिल नाडु के टिननेवेली क्षेत्र में एक कब्रगाह में प्राचीन लोहे के हथियारों की खोज से साबित होता है कि भारत में लोहे को निस्संदेह बहुत शुरुआती समय से उपयोग में लाया गया था। बोधगया में मिले लोहे के धातु मल से पता चलता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में लोहे को गलाने का काम किया गया था। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से पहले प्राचीन लौह प्रौद्योगिकी की स्वतंत्र खोज और विकास का सुझाव दिया गया है। निकट पूर्व और ग्रीको-रोमन (Greco-Roman) दुनिया के साथ भारतीय सांस्कृतिक और वाणिज्यिक संपर्क से, धातु विज्ञान का आदान-प्रदान सक्षम हुआ। वहीं मुगलों के आगमन के साथ, भारत में धातु विज्ञान और धातु के काम करने की स्थापित परंपरा में और सुधार हुआ। चक्रबर्ती (Chakrabarti (1976)) द्वारा भारत में छह प्रारंभिक लोहे का उपयोग करने वाले केंद्रों की पहचान की गई, जिसमें बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिम, भारत-गंगा विभाजन और ऊपरी गंगा घाटी, पूर्वी भारत, मध्य भारत में मालवा और बरार और महापाषाण दक्षिण भारत शामिल है। उत्तर प्रदेश में हाल ही में उत्खनन से 1800 और 1000 ईसा पूर्व के बीच की परतों वाले रेडियोकार्बन निर्धारण (Radiocarbon dating) में लोहे की कलाकृतियाँ, भट्टियाँ, ट्युरेस (Tuyeres) और धातुमल प्राप्त हुए हैं। हाल ही में लखनऊ में हुए सरयू नदी और सई नदी के मैदानी इलाकों से अन्वेषण में कई ऐसे अवशेष प्राप्त हुए, जिन्होंने पुरातत्वविदों को यहाँ पर उत्खनन करने के लिए प्रोत्साहित किया। दादुपुर और लहुरदेवा का अन्वेषण और उत्खनन डॉ राकेश तिवारी द्वारा कराया गया था जो कि उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग के निदेशक थें। इस उत्खनन के बाद खोजे गए अवशेष ने लखनऊ के इतिहास को करीब 1500 ईसा पूर्व तक धकेल दिया। उत्तर प्रदेश में सोनभद्र और चंदौली में हुए उत्खनन से 1600 ईसा पूर्व के लोहे के अवशेष प्राप्त हुए। इन सभी अवशेषों की प्राप्ति से यह तो सिद्ध हो गया कि लखनऊ के आस पास का क्षेत्र लौह युग में सुचारू रूप से प्रचलित था।

संदर्भ :-
https://bit.ly/33YSc90
https://bit.ly/3vaf55u
https://bit.ly/3u7t5eS 
https://bit.ly/3yt7i4E
https://shorturl.at/hjBF8
https://bit.ly/3hEwuPI

 चित्र संदर्भ
1. एक भारतीय लोहार और भगवान् शिव को संदर्भित करता एक चित्रण ( Public Domain Collections - GetArchive)
2. लोहार आदिवासी कला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक भारतीय लोहार को दर्शाता चित्रण (GetArchive)
4. पिघलते लोहे को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. लौह वस्तुओं को दर्शाता चित्रण (Picryl)



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