आम जनता में नुक्कड़-नाटकों की लोकप्रियता, केवल इसके मनोरंजक स्वभाव के कारण ही नहीं है, बल्कि
कई नाटकों के प्रचलित होने के पीछे का रहस्य, इनसे प्राप्त होने वाले लाभकारी ज्ञान में निहित है।
असाधारण साहित्यकार और अनेक कलाओं के धनी, श्री रबीन्द्रनाथ टैगोर, नाटकों के इस गूढ़ रहस्य को
भली भांति जानते थे! इसलिए उनके द्वारा प्रतिपादित सभी नाटक मनोरजंक होने के साथ ही शिक्षाप्रद भी
होते हैं।
नाटककार के रूप में रबिन्द्रनाथ टैगोर ने अपने साठ साल के करियर में, नाटकीय विधा में पचास से अधिक
रचनाएं लिखीं। उन्होंने कई अलग-अलग शैलियों में अपना हाथ आजमाया। टैगोर ने स्वयं अपने नाटकों
को नाट्य (नाटक), नाट्यकाव्य (नाटकीय कविता), एनटीक (नाटक), प्रहसन और न गीतिनाट्य (संगीत
नाटक), जैसे शब्दों से संबोधित किया।
उनके पारंपरिक नाटकों को दो श्रेणियों प्रारंभिक रिक्त-कविता नाटक “द किंग एंड द क्वीन एंड सैक्रिफाइस
(The King and the Queen and Sacrifice)” और, बीस की संख्या (number twenty) में विभाजित
किया जा सकता है! एक अपवाद के साथ यह सभी गद्य में लिखे गए और, 1907 के बाद प्रकाशित हुए।
टैगोर ने संगीत को नाटक के साथ मिलाने में कई कलात्मक रूप से सफल कारनामों का भी प्रयास किया।
टैगोर नाटक की, लगभग सभी लिपियों में गीतों को शामिल किया जाता है, लेकिन उनके कुछ कार्यों में, बोले
गए संवाद को संगीत और गीतों से अधिक वरीयता दी जाती है।
उन्होंने 1880 के दशक में प्रकाशित, तीन "संगीत नाटकों" के साथ अपने नाटकीय करियर की शुरुआत की।
1923 और 1934 के बीच उनकी इस शैली में छह और अभ्यास दिखाई दिए। अंत में, टैगोर ने अपने जीवन
के अंतिम पांच वर्षों में, "नृत्य नाटक" की शुरुआत की, जिसमें भारतीय नृत्य और संगीत का कहानियों के
साथ विलय हो जाता हैं। उनकी मृत्यु से पहले प्रकाशित तीन नृत्य नाटकों में से दो क्रमशः चित्रांगद और
चांडलिक लिखे थे। इसके अलावा, उन्होंने कई छोटे नाटकीय विविध लेख, रेखाचित्र, संवाद, व्यंग्य और
हास्य नाटक, और छोटी पहेलियां भी लिखी।
टैगोर ने अपने मौजूदा काम को लगातार संशोधित किया, उसपर फिर से काम किया, संक्षिप्त किया और
अपने स्वयं के उपन्यास का नाटकीयकरण किया। टैगोर का अंतिम नृत्य नाटक 1899 में लिखी गई एक
कविता के रूप में शुरू हुआ, जिसे 1936 में एक नृत्य नाटक में रूपांतरित किया गया, और 1939 में दूसरी
बार अपने वर्तमान पूर्ण विकसित आकार में बदल दिया गया।
टैगोर के साहित्यिक प्रभाव, उनके नाटकों को महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। सभी लेखकों से ऊपर,
टैगोर, शायद शास्त्रीय संस्कृत गुरु कालिदास को सबसे अधिक सम्मान देते थे। उनके शुरुआती नाटक में
कालिदास के वीर विषयों, प्रकृति की कल्पना और गीत की भाषा के बहुत अधिक प्रभाव दिखते है। पंद्रहवीं
शताब्दी के कवि कबीर के रहस्यवाद ने भी, टैगोर को आकर्षित किया। पश्चिमी नाटककारों में वे विलियम
शेक्सपियर (William Shakespeare) का बहुत अधिक सम्मान करते थे। साथ ही वह एंटनी और
क्लियोपेट्रा (Antony and Cleopatra) को भी पसंद करते थे।
टैगोर को आज रबिन्द्र संगीत लिखने के लिए प्यार से याद किया जाता है, जिनमें से उन्होंने अपने
जीवनकाल में 2230 गीत लिखे। उनके द्वारा लिखे गए सभी गीत विशेष रूप से नाटकों के लिए लिखे गए
थे। बाद में ये गीत व्यक्तिगत ट्रैक के रूप में लोकप्रिय हो गए। वह संगीत को नया रूप देने में बेहद बोल्ड
थे। उन्होंने लोक और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत लिया, उसे तोड़ा, संशोधित किया और अपने नाटकों के
लिए उन्हें कभी-कभी ब्रिटिश ओपेरा संगीत (british opera music) के स्पर्श के साथ भी अनुकूलित
किया।
टैगोर के निबंध कट्टरपंथी और क्रांतिकारी होते थे। एक नाटककार के रूप में, टैगोर ने अपनी रचनाओं के
माध्यम से कट्टरपंथ को चुनौती दी और इसका विरोध किया। चूंकि रंगमंच एक ऐसा माध्यम है जिसका
उपयोग अशिक्षित लोग भी कर सकते हैं, इसलिए अधिकांश लोग सामाजिक-आर्थिक बाधाओं से परे टैगोर
की रचनाओं से खुद को जोड़ सकते हैं।" 19 साल की अनुभवहीन उम्र में भी, अपने पहले नाटक वाल्मीकि के
लिए टैगोर के विचार सामाजिक रूप से सुधारक थे तथा मानव बलि और मूर्तिपूजा जैसे संवेदनशील विषयों
को छूते थे।
वह न केवल एक नाटककार थे, बल्कि एक निर्देशक, कोरियोग्राफर (choreographer), संगीतकार और
अभिनेता भी थे। टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया! हालांकि उन्हें पुरस्कार मिलने से पूर्व
ही टैगोर के नाटक डाकघर का अंग्रेजी में अनुवाद जिसका शीर्षक “द पोस्ट ऑफिस (the post office)”
कर दिया गया था।
टैगोर अपने कार्यों के लिए पश्चिम में बहुत प्रसिद्ध हुए, लेकिन 1920 के दशक में वहां के आम लोगों तक
उनकी पहुंच कम हो गई। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एक आध्यात्मिक व्यक्ति होने के नाते टैगोर, द्वितीय
विश्व युद्ध छिड़ने के बाद मानवता से अपना विश्वास खो चुके थे, और उन्होंने व्याख्यानों में प्रशांत संदेश
(pacific message) देना शुरू कर दिया था। इसके कारण उनके कार्यों को लोगों का समर्थन नहीं मिला
क्योंकि "ये प्रवचन उन राष्ट्रों में वितरित किए गए थे जो पहले से ही युद्ध में संलिप्त थे।"
टैगोर, रंगमंच और सामाजिक रूढ़िवादिता की सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए जाने जाते थे। लैंगिक
तटस्थता की बात करें तो वह विशेष रूप से निष्पक्ष थिएटर सिद्धांतकार (theater theorist) थे। 19वीं
शताब्दी के अंत तक, थिएटर, सख्ती से केवल पुरुष क्षेत्र तक ही सीमित थे! लेकिन अपने नृत्य नाटक
“मायार खेला” से टैगोर ने महिलाओं को भी नाटकों में शामिल करना शुरू कर दिया। उनके नाटक चित्रांगदा
को 1892 में निंदनीय भी माना गया था, क्योंकि इसके कथानक को महाभारत के अर्जुन और उनकी पत्नी
चित्रांगदा के पात्रों के इर्द-गिर्द घूमते हुए - महिलाओं को मंच पर अपनी कामुकता को खुलकर व्यक्त करने
की अनुमति दी गई थी। टैगोर को पहला और आखिरी नाट्य कवि एवं रहस्यवादी भी कहा जाता ,हैं जिनके
सभी नाटक अपने आप में काव्य है।
संदर्भ
https://bit.ly/3Fn1YDS
https://bit.ly/388a6Mg
https://bit.ly/3KP0zHd
चित्र संदर्भ
1 मई 1916 में जापान गए रबीन्द्रनाथ टैगोर को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
2. रबीन्द्रनाथ टैगोर की रिक्त-कविता नाटक किताब “द किंग एंड द क्वीन एंड सैक्रिफाइस को दर्शाता एक चित्रण (amazon)
3. शेर ए बंगाल एवं को रबीन्द्रनाथ टैगोर को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
4. रबीन्द्रनाथ टैगोर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. “मायार खेला” को दर्शाता एक चित्रण (amazon)
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