हम में से अधिकांश लोगों ने सड़कों पर कलाकारों को अपनी कलाओं का प्रदर्शन दिखाते हुए जरूर देखा होगा। ये प्रदर्शन मनोरंजन का बेहतरीन साधन तो थे ही, साथ ही विभिन्न जनजातियों के रोज़गार का भी साधन थे। तलवार निगलना भी इन्हीं प्रदर्शन कलाओं का एक हिस्सा है, जिसमें एक कलाकार करीब 36 इंच की तलवार को भी अपने मुख से नीचे निगल लेता है। भारत में यह कला हज़ारों वर्ष पहले उत्पन्न हुई थी, जिसे फकीरों और जादूगरों ने अन्य कलाओं जैसे गर्म अंगारों पर चलना, साँपों को नियंत्रित करना, अन्य तपस्वी धार्मिक प्रथाओं के साथ अपनी अजेयता, शक्ति और देवताओं के साथ संबंध के प्रदर्शन के रूप में विकसित किया था। लेकिन 2020 में तलवार निगलने वाला या ऐसे कोई भी अन्य सड़क प्रदर्शन का दिखाई देना काफी मुश्किल है, मनोरंजन मीडिया (Media), पारंपरिक सर्कस (Circus) के युग में, सड़क प्रदर्शन और विषमता के आधार पर प्रदर्शन धीरे-धीरे गायब हो गए हैं।
हालांकि तलवार निगलने का प्रदर्शन अभी भी भारत के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। कहा जाता है कि आंध्र प्रदेश राज्य में तलवार निगलने वालों की एक जनजाति है, जो इस कला को पिता से पुत्र अर्थात एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंप रही है। भारत से, यह कला चीन (China), ग्रीस (Greece), रोम (Rome), यूरोप (Europe) और दुनिया के बाकी हिस्सों में फैली। प्राचीन रोमन (Roman) साम्राज्य में त्यौहारों पर अक्सर इस कला का प्रदर्शन किया जाता था। रोम में ट्यूटोनिक लड़ाई (Teutonic Fight) के दौरान तलवार निगलने वालों का उल्लेख 410 ईस्वी में किया गया था जबकि चीन में यह कला उत्तर भारत से 750 ईस्वी के आसपास पहुंची। जापान (Japan) में तलवार निगलने की कला 8वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुई थी, जहां अक्सर इसे मनोरंजक एक्रोबैटिक (Acrobatic) के रूप में देखा जाता था, इस प्रथा या अभ्यास को वहां संगाकू (Sangaku) के नाम से जाना जाता था, वहीं इसके अंतर्गत जगलिंग (Juggling), रस्सी पर चलना आदि कौशल भी शामिल थे।
इस कला को सूफियों के दरवेश (Dervish) समूह (दरवेश समूह 8वीं शताब्दी में इस्लाम और हिंदू विचार के सम्मिलन को दर्शाता है) में भी देखा गया था। दरवेश, ‘भिखारी’ के लिए फ़ारसी शब्द है, जो मुख्य रूप से उन्मादी कार्यों तथा ताकत के महान कारनामों के लिए जाने जाते हैं। 1182 में दरवेश का एक समूह कांच खाने, गर्म अंगारों पर चलने तथा तलवार निगलने जैसे प्रदर्शनों के लिए जाना जाता था। यूरोप में 17वीं शताब्दी के मध्य तक, ये कलाकार अधिक स्वतंत्र रूप से अपनी कला का प्रदर्शन करते तथा त्यौहारों पर सड़क के किनारों का आम दृश्य बन जाते थे। 1800 के दशक के अंत में तथा 1893 में तलवार निगलने का यह प्रदर्शन क्रमशः यूरोप और स्वीडन में औपचारिक रूप से बंद कर दिया गया। 20वीं शताब्दी तक विश्व भर में यह कला काफी प्रचलित हो गई थी और विभिन्न देशों में उत्सवों या अवसरों में काफी लोकप्रिय हो चुकी थी।
आप कल्पना कर सकते हैं कि 2000 ईसा पूर्व में तलवारों को निगलने के सटीक तरीके को सिखाने वाले कोई योग्य शिक्षक नहीं थे। लोगों द्वारा स्वयं ही तलवारें निगलने के तरीके खोजे गए, जो काफी खतरनाक था! शुक्र है, 1800 के दशक से तलवार निगलने की विशेषज्ञता वाले प्रशिक्षक मौजूद हैं, आज कोई भी साहसिक व्यक्ति यदि तलवार निगलने की कला को सीखना चाहता है, तो वह पेशेवर रूप से सीख सकता है। कई बार तलवार निगलने को सिर्फ एक जादू की चाल समझ लिया जाता है। लेकिन अविश्वसनीय रूप से, यह नहीं है! दरसल सबसे सर्वप्रथम एक ऐसी तलवार को चुना जाता है, जो गले से आसानी से नीचे उतारी जा सके। एक कलाकार अपने सिर को पीछे झुकाकर अपनी गर्दन को पीछे की ओर फैलाता है। वे अपनी जीभ को बाहर निकालते हैं और अपने गले को दबा देते हैं। इसके बाद वे अपने अन्नप्रणाली के नीचे अपने जठरांत्र संबंधी मार्ग के साथ तलवार को नीचे ले जाते हैं। यह फिर फेफड़ों के बीच से गुजरता है और हृदय को बाईं ओर थोड़ा-सा हिलाता है। अंत में, तलवार पेट के रास्ते नीचे चला जाता है। यह सुनने में ही इतना खतरनाक लग रहा है तो करने में कितना होगा! तलवार को निगलना एक ऐसी कला है, जिसे प्रशिक्षण के बिना करने पर मृत्यु भी हो सकती है। प्राचीन भारत के फकीरों ने अपनी तलवार की कला अपने बच्चों को विरासत में दी थी। उन्होंने सही अवधारणा को प्राप्त करने के लिए वर्षों तक अभ्यास किया होगा। आज भी इस कला में महारत हासिल करने में न्यूनतम 5 वर्ष लग जाते हैं।
भारत में न केवल तलवार निगलना बल्कि अन्य कई पारंपरिक लोक प्रदर्शन कलाएं भी मौजूद हैं, जिसके अंतर्गत कलाकार चाकुओं या अन्य चीज़ों को लगातार हवा में उछालकर एकाएक उन्हें पकड़ते हैं, रस्सी पर अपना संतुलन बनाते हुए चलते हैं, कठपुतलियां नचाते हैं, जादू दिखाते हैं, विभिन्न प्रकार के करतब करते हैं आदि। भारत में लोक कलाकार सदियों से मौजूद हैं। पुराने दिनों में जब संचार मुश्किल हुआ करता था, डाकू ग्रामीण इलाकों में घूमते थे और ज्यादातर लोग निरक्षर थे, लोक कलाकारों ने छोटे गांवों के लोगों को बाहरी दुनिया के बारे में जानकारी प्रदान कराने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लोक कलाकारों को स्थानीय राजाओं द्वारा संरक्षण दिया गया था, जिन्होंने उन्हें अपने न्यायालयों में प्रदर्शन करने के लिए काम पर रखा था और उन्हें आय का आश्वासन दिया था। स्वतंत्रता के बाद, जब राजाओं ने अपनी शक्ति और अपनी बहुत सारी संपत्ति खो दी, तो उनके पास लोक कलाकारों को भुगतान करने के लिए धन नहीं बचा। इसके बाद ये कलाकार यात्रा करने लगे और आज जो भी समूह मौजूद हैं, वे एक निश्चित यात्रा कार्यक्रम में वर्ष का अधिकांश समय बिताते हैं।
वे मेलों, त्यौहारों, तीर्थ स्थलों, शहरों, कस्बों और गांवों में जाते हैं, तथा अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये कलाकार मुख्य रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं, जो वर्षा ऋतु में अपने गांवों में रहते हैं, लेकिन गर्मी और सर्दियों के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों का दौरा करते हैं। टेलीविज़न (Television), फिल्मों (Films) और औद्योगीकरण की शुरुआत के साथ, कई लोक कलाकार अब गाँव से गाँव जाकर अपना जीवन यापन करने में सक्षम नहीं रहे हैं, वे अब शहर में ही अपनी किस्मत आज़माते हैं, जहां कई गरीब लोग फिल्मों या नाटकों के लिए टिकट (Ticket) नहीं ले सकते हैं, लेकिन सड़क के इन कलाकारों के प्रदर्शन के लिए कुछ सिक्कों का भुगतान कर सकते हैं। पूरे भारत में करीब 50 लाख से 1 करोड़ के बीच खानाबदोश या यात्री मौजूद हैं, जो किसी न किसी प्रदर्शन कला में संलग्न हैं। इस समूह को वेदों में भी वर्णित किया गया है, जैसे ऋग्वेद में यात्रा करने वाले नर्तकों, सपेरों, बांसुरी वादकों, भाग्य बताने वालों और भिखारियों का वर्णन मिलता है।
ब्रिटिश (British) औपनिवेशिक काल में इन लोगों को अक्सर जिप्सियों (Gypsies) के रूप में वर्णित किया जाता था। इनके अलावा भारत में कलंदर, कंजर आदि ऐसे समूह हैं, जो गाँव-गाँव जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। कंजर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया से फैले कलाकारों और मनोरंजनकर्ताओं का एक व्यापक रूप से फैला हुआ समूह है, जिन्हें नर्तक, गायक, संगीतकार आदि के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार से कलंदर भी यात्रा करने वाले लोग हैं, जो गाँव-गाँव जाकर जानवरों के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये पूरे दक्षिण एशिया (Asia) में, विशेष रूप से उत्तरी भारत और पाकिस्तान में पाये जाते हैं, जो प्रशिक्षित जानवरों के साथ रस्सी पर चलना, जादू करना, कठपुतली का खेल दिखाना, गाना-बजाना आदि करते हैं।
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