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पिछले ही साल, बिजनौर शहर के चौधरी चरण सिंह बैराज में कतला, रोहू और मृगल जैसी प्रमुख प्रजातियों की मछलियों के 65,000 से अधिक बीजों (अंडों) को मत्स्य पालन कार्यक्रम के तहत गंगा नदी में छोड़ा गया । अवैध शिकार सहित अन्य विभिन्न कारणों से गंगा में विलुप्त हो रही मछलियों की प्रजातियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। इस पहल से पानी को साफ रखने में भी मदद मिलेगी। साथ ही, सरकार ने मत्स्य पालन में लगे हुए किसानों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए भी इस प्रकार की कई योजनाएं लागू की हैं, जिससे अधिक मात्रा में उच्च गुणवत्ता वाली मछलियों का उत्पादन किया जा सके।
उज्जैन में 2016 में शिप्रा नदी में छोड़ी गई मछलियां आज भी जीवित हैं, और पानी की सफाई में मदद कर रही हैं। कई लोग मछली पकड़ने के माध्यम से अपनी आजीविका भी कमा रहे हैं। नदी के लगभग एक हेक्टेयर क्षेत्र में टिलेपिया और गैंबूस्या के लगभग 5,000 बीजों की आवश्यकता होती हैं। ये मछलियां तेजी से बढ़ती हैं। और अब टिलेपिया और गैंबूस्या नदी में छोड़े जाने से नदियों को साफ रखने में मदद मिलने की उम्मीद है।
ऐसा ही एक प्रयास इंदौर में भी चल रहा है। इंदौर जिला प्रशासन द्वारा भी नदी पुनरुद्धार परियोजना के तहत कान्ह, सरस्वती और फतनखेड़ी नदियों को स्वच्छ रखने के लिए टिलेपिया और गैंबूस्या मछलियों को नदियों में छोड़ने पर विचार किया जा रहा है। टिलेपिया मछलियां सर्वाहारी होती हैं, जबकि गैंबूस्या मच्छरों के लार्वा को खाती है। मत्स्य पालन विभाग ने बताया कि ये दोनों प्रजातियां जल निकासी के अपशिष्ट जल और उद्योगों के कचरे के नदी में जाने के बावजूद भी जीवित रह सकती हैं और पानी को शुद्ध करने में भी मदद करती हैं। साथ ही, इन मछलियों की उपस्थिति से कई लोगों को रोजगार भी मिलता है ।
प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत एक विशेष गतिविधि के रूप में देश की राजधानी दिल्ली में मत्स्य विभाग द्वारा भी नोएडा में स्थित ओखला पक्षी अभयारण्य के पास, यमुना नदी में 1.25 लाख मछलियों के झुंड छोड़े जाने थे, परंतु, नदी में उच्च प्रदूषण होने की वजह से ऐसा नहीं किया जा सका । अतः अब एक विकल्प के रूप में, रोहू, नैन और कतला मछलियों को हापुड़ खंड में प्रवाहित होने वाली गंगा नदी में छोड़ा जाएगा । प्रदूषण के कारण दिल्ली में यमुना नदी के विभिन्न हिस्सों में मरी हुई मछलियों का दिखना एक आम घटना और दृश्य बन गया है। हर साल बड़े पैमाने पर मछलियों की मौत की सूचना मिलती है। यमुना नदी के जल में फॉस्फेट (Phosphate) रसायन युक्त डिटर्जेंट, (Detergents) औद्योगिक अपशिष्ट और अनुपचारित घरेलू अपशिष्ट जल, जल प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं ।
जब मत्स्य पालन विभाग के अधिकारियों द्वारा नदी में कुछ विशिष्ट प्रजातियों की मछलियों को जल में छोड़ने की कोशिश की गई तो पता चला कि यमुना नदी के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऑक्सीजन (Oxygen) का स्तर अत्यधिक नीचे या फिर कहीं-कहीं तो शून्य था । दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की 2020 की एक रिपोर्ट से पता चला है कि, यमुना नदी के पानी में घुलित ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen) का स्तर, दिल्ली में आने वाले यमुना के सात घाटों में ‘शून्य’ था। घुलित ऑक्सीजन जीवित जलीय जीवों के लिए पानी में उपलब्ध ऑक्सीजन की मात्रा होती है। इसी अध्ययन में यह भी रेखांकित किया गया है कि कुछ क्षेत्रों में पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (Biological Oxygen Demand (BOD) 45 मिलीग्राम प्रति लीटर थी। आदर्श रूप से, पानी में बीओडी 3 मिलीग्राम प्रति लीटर या उससे कम होना चाहिए। यदि पानी में उपलब्ध ऑक्सीजन की मात्रा नीचे जाती है और बीओडी की मात्रा ऊपर की ओर जाती है जिससे जलीय जीवन प्रभावित होता है। इन दोनों की मात्रा पानी में प्रदूषण के स्तर को निर्धारित करती है। दिल्ली में यमुना नदी के पानी में घुलित ऑक्सीजन की कम या ना के बराबर मात्रा तथा बीओडी की अधिक मात्रा बताती है कि यहां का जल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है।
जिस प्रकार वाणिज्यिक मछली पकड़ते समय कुछ मछलियाँ मछली के जाल से बच जाती हैं, वैसे ही कुछ दूषित पदार्थ अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों में निस्पंदन प्रक्रिया के दौरान शेष रह जाते हैं, और पानी में बह जाते हैं। यह विशेष रूप से कई दवाओं जैसे, जन्म नियंत्रण की गोलियाँ या अन्य दवाओं में पाए जाने वाले रसायन होते हैं। जब बची हुई गोलियों को शौचालय में बहा दिया जाता है, या जब उनके घटक हमारे मूत्र के माध्यम से पानी में बह जाते है, तब ये घातक रसायन मछलियों के लिए संभावित समस्याएँ पैदा कर सकते है। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन से निष्कर्ष निकाला गया है कि नदियों में एस्ट्रोजन (Oestrogen) का उच्च स्तर वहाँ रहने वाली मछलियों के लिंग पर परिवर्तनकारी प्रभाव डालता है ।
अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों के सबसे करीब रहने वाली मछलियों को दूसरी मछलियों की तुलना में जीवित रहने के लिए अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, क्योंकि उनके शरीर को पानी में पाए जाने वाले हानिकारक प्रदूषकों को छानना पड़ता है। वास्तव में, जो मछलियां इन संयंत्रों के पास हैं, वे साफ पानी में रहने वाली मछलियों की तुलना में 36% अधिक ऊर्जा का उपयोग करती हैं, जबकि इन संयंत्रों से थोड़ी दूर वाली मछलियां साफ पानी में रहने वाली मछलियों की तुलना में 30% अधिक ऊर्जा का उपयोग करती हैं।
इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि दूषित पदार्थ न केवल मछलियों के जीवन को खतरे में डालते हैं बल्कि उन्हें स्वास्थ्य संबंधित गंभीर नुकसान भी पहुंचाते हैं । क्योंकि, जिस ऊर्जा का उपयोग इन मछलियों द्वारा पानी से प्रदूषकों को छानने में किया जाता है उस ऊर्जा का उपयोग इन मछलियों के द्वारा भोजन के शिकार, शिकारियों से बचने या एक साथी को ढूंढने के लिए किया जा सकता था। इसके अलावा, रसायन और दूषित पदार्थ अज्ञात तरीकों से उनके शरीर को तो प्रभावित करते ही हैं जैसा कि उपरोक्त अध्ययन में देखा गया है।
दिल्ली में यमुना नदी में मत्स्य पालन कार्यक्रम तभी सफल हो सकता है जब नदी के पानी की पूर्ण रूप से कायापलट की जाए। नदी में मत्स्य पालन कार्यक्रम तभी मछली उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करेगा जब नदी में मीठे पानी की वृद्धि होगी। जलीय जीवों को उचित आवास प्रदान करने के साथ-साथ, पारंपरिक मत्स्य पालन को उन्नत करके और अंतर्देशीय समुदायों की रक्षा करके सतत मत्स्य पालन प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन शुरुआत अपशिष्ट जल उपचार से ही करनी होगी।
संदर्भ
https://bit.ly/3MaswgW
https://bit.ly/40QlpP7
https://bit.ly/3KkiubU
https://bit.ly/3JVRvlx
चित्र संदर्भ
1. प्रदूषित यमुना नदी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. नदी में मछली पकड़ते भारतीय को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. नदी में मृत मछली को संदर्भित करता एक चित्रण (Pxfuel)
4. प्रदूषित यमुना नदी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. नदी में छोड़े जा रहे गंदे पानी को दर्शाता चित्रण (flickr)
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