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रजा पुस्तकालय में मौजूद `जामी अल-तवारीख` की प्रति क्यों है खास

मेरठ

 03-04-2023 10:21 AM
ध्वनि 2- भाषायें

रामपुर का रजा पुस्तकालय ढेरों ऐतिहासिक एवं दुर्लभ पांडुलिपियों का घर माना जाता है। पांडुलिपियों के इसी खजाने में 14वीं सदी की ‘जामी अल-तवारीख’ (Jami al-Tawarikh),नामक एक दुर्लभ पांडुलिपि भी है। इस पांडुलिपि की अहमियत का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2015 में ‘जामी अल-तवारीख’ पांडुलिपि के पुनरुत्पादित कृति को हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मंगोलियाई राष्ट्रपति को भी भेंट स्वरूप दिया गया था।
‘जामी अल-तवारीख ‘इतिहास और साहित्य से जुड़ी एक किताब है, जो मंगोल इल्खनत में लिखी गई थी। इसे राशिद अल-दीन हमदानी (Rashid Al-Din Hamdani) द्वारा 14वीं शताब्दी की शुरुआत में लिखा गया था। इस पुस्तक को ‘प्रथम विश्व इतिहास ’ (The First World History) के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें मंगोलों के इतिहास सहित चीन (China) से लेकर यूरोप (Europe) तक की ऐतिहासिक घटनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसे विश्व इतिहास की पहली पुस्तक माना जाता है। यह पुस्तक फारसी और अरबी दोनों भाषाओं में लिखी गई थी और इसे तीन खंडों में विभाजित किया गया था। यह पुस्तक अपने भव्य चित्रों और सुलेख के लिए भी जानी जाती है जिसके लिए कई लेखकों और कलाकारों के प्रयासों की आवश्यकता थी। इस पुस्तक की हर साल दो नई प्रतियां (एक फारसी भाषा में और एक अरबी भाषा में) इल्खनत के आसपास के स्कूलों और शहरों में वितरित करने के उद्देश्य के साथ बनाई गई थीं । रशीद अल-दीन के जीवनकाल में इसकी लगभग 20 सचित्र प्रतियाँ बनाई गई थीं, लेकिन अब इसकी केवल कुछ ही प्रतियां उपलब्ध हैं ।
अब पुस्तक के केवल लगभग 400 पृष्ठ ही उपलब्ध हैं, और उन्हें इल्खनीद कला का एक महत्वपूर्ण जीवित उदाहरण माना जाता है । पांडुलिपियों की पहली पीढ़ी की दो फ़ारसी प्रतियाँ तुर्की (Turkey) के इस्तांबुल (Istanbul) में ‘टॉपकापी पैलेस लाइब्रेरी’ (Topkapi Palace Library) में संग्रहित हैं। यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह फ़ारसी लघु कला के प्रारंभिक उदाहरणों के सबसे बड़े जीवित निकायों में से एक है। इल्खनत काल के दौरान जामी अल-तवारीख एक महत्वपूर्ण परियोजना थी। यह एक ऐसी किताब थी जिसमें मंगोलों और उनके पूर्ववर्तियों का पूरा इतिहास लिखित तौर पर मौजूद था। पुस्तक को इल-खान ग़ज़न (Il-Khan Ghazan) द्वारा मंगोलों की खानाबदोश जड़ों की स्मृति को संरक्षित करने के लिए अधिकृत किया गया था। ग़ज़न की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकारी ओल्जैतु (Öljaitü) ने रशीद अल-दीन को काम का विस्तार करने और पूरे ज्ञात विश्व का इतिहास लिखने के लिए रब-ए रशीदी विश्वविद्यालय में नियुक्त किया । यह पाठ 1306 और 1311 के बीच पूरा हुआ था। 1318 में रशीद अल-दीन के वध के बाद, रब-ए-रशीदी परिसर को लूट लिया गया था, लेकिन उस समय बनाई जा रही एक निर्माणाधीन प्रतिलिपि बच गई थी।
माना जाता है कि 15वीं शताब्दी में पुस्तक की अरबी प्रति, हेरात (Herat) में थी। लेकिन इसके बाद इसे भारत में मुगल साम्राज्य के दरबार में लाया गया, जहां यह अगली कुछ शताब्दियों के लिए कई मुगल सम्राटों के कब्जे में रही। पुस्तक को संभवतः 1700 के मध्य में दो भागों में विभाजित किया गया था, हालांकि दोनों खंड 19वीं शताब्दी तक भारत में बने रहे। बाद में उन्हें अंग्रेजों द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। आज इसका एक हिस्सा एडिनबर्ग पुस्तकालय (Edinburgh Library,) में है, और दूसरा हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के एक सेना अधिकारी जॉन स्टेपल्स हैरियट (John Staples Harriot) द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया था, जिन्होंने बाद में इसे 1841 में ‘रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ (Royal Asiatic Society) को सौंप दिया था। 1948 में, इसे ब्रिटिश संग्रहालय और पुस्तकालय (British Museum and Library) को उधार दिया गया था। और 1980 में सोथबी (Sotheby) कंपनी द्वारा नीलाम कर दिया गया, जहां इसे जिनेवा (Geneva) में रशीदियाह फाउंडेशन (Rashidiyyah Foundation ) द्वारा £850,000 में खरीदा गया, जो किसी मध्यकालीन पांडुलिपि के लिए भुगतान की गई अब तक की सबसे अधिक कीमत थी।
आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि जामी अल-तवारीख पांडुलिपि की एक प्रति को हमारे रामपुर में रज़ा पुस्तकालय में भी रखा गया है। पांडुलिपि को चौदहवीं शताब्दी के दौरान तबरेज़ में लिखा गया था और 14वीं और संभवतः 16वीं शताब्दी के दौरान ईरान और मध्य एशिया में सजाया गया था। बाद में 1590 के दशक में यह अकबर के कलाकारों के अधिकार में आ गई। पांडुलिपि में चौदहवीं शताब्दी का लेख और 82 चित्रकृतियां हैं जिनमें लगभग तीन शताब्दियों का वर्णन है । पांडुलिपि मुगल-काल के चित्रों पर केंद्रित है।
पांडुलिपि में 1590 के दशक के दौरान मुगल दरबार में निष्पादित चित्रों के साथ-साथ 16वीं, 15वीं और संभवतः 14वीं शताब्दी के चित्र भी हैं। साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत की यात्रा के दौरान मंगोलियाई राष्ट्रपति सखियागिन एल्बेगदोर्ज (Tsakhiagiin Elbegdorj) को इस दुर्लभ पांडुलिपि की एक प्रति भेंट स्वरूप प्रदान की गई थी। रज़ा पुस्तकालय के अधिकारियों के अनुसार, पांडुलिपि की कोई अन्य प्रति दुनिया में मौजूद नहीं है। पुस्तकालय के निदेशक प्रोफेसर अजीजुद्दीन हुसैन के अनुसार, यह रामपुर के लोगों और रजा पुस्तकालय के लिए बड़े सम्मान की बात है कि प्रधानमंत्री ने मंगोलियाई राष्ट्रपति को इस दुर्लभ पांडुलिपि की एक प्रति दी है। पांडुलिपि की मूल प्रति वर्तमान में रज़ा लाइब्रेरी के अंदर रखी गई है, जिसे इंडो-इस्लामिक शिक्षा और कलाओं का खजाना माना जाता है। इस पाण्डुलिपि के अलावा भी रामपुर का रजा पुस्तकालय अरबी, फारसी, पश्तो, संस्कृत, उर्दू, हिंदी और तुर्की में 17,000 पांडुलिपियों का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में लगभग 60,000 मुद्रित पुस्तकों का संग्रह भी है।

संदर्भ

https://bit.ly/3FWG5N5
https://bit.ly/3lPpxjo
https://bit.ly/3JTXJlZ

चित्र संदर्भ
1. रजा पुस्तकालय में मौजूद "जामी अल-तवारीख" की प्रति को संदर्भित करता एक चित्रण (facebook, wikimedia)
2. इब्राहीम और तीन फ़रिश्ते - जामी अल तवारीख को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. खलीली कलेक्शन इस्लामिक आर्ट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. काबा में मुहम्मद को दर्शाता एक चित्रण (Collections - GetArchive)
5. रामपुर रज़ा पुस्तकालय स्मारिका पत्रक को दर्शाता चित्रण (amazon)

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