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पिछले कई वर्षों के दौरान, दुनिया ने ज्वालामुखी विस्फोट (Volcanic Eruption) के कारण हुई, किसी भी बहुत बड़ी आपदा का सामना नहीं किया है। हालांकि, इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि हम ज्वालामुखी विस्फोट की प्रभावशीलता को हल्के में ले लें, या यह सोच लें कि हमारा भविष्य ज्वालामुखी विस्फोट के प्रकोप से सुरक्षित है । वास्तव में ज्वालामुखी विस्फोट किस हद तक तबाही मचा सकता है और मानव सभ्यता को कितना अस्त-व्यस्त कर सकता है, इस बात की गवाही हमें हमारी पृथ्वी के इतिहास के सबसे भयानक ज्वालामुखी विस्फोट दे सकते हैं।
तमबोरा विस्फोट (MountTambora Eruption) को इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट माना जाता है। यह ज्वालामुखी इंडोनेशिया (Indonesia) के सुमबवा द्वीप (Sumbawa Island) पर स्थित है। दरसल, 5 अप्रैल 1815 को यहां इतना जबरदस्त ज्वालामुखी विस्फोट हुआ कि इसकी वजह से स्थानीय लोगों द्वारा धरती में कंपन भी महसूस किया गया था।
सन 1815 में, लगभग 13,000 फीट से अधिक ऊंचे, तमबोरा ज्वालामुखी में एक ज़बरदस्त विस्फोट हुआ, जिसने गैसों, धूल और चट्टानों को सुंबावा द्वीप और आसपास के क्षेत्र के वातावरण में लगभग 12 क्यूबिक मील तक फैला दिया। इसके बाद गरमागरम लावे और राख की नदियाँ पहाड़ के किनारों से नीचे की ओर बहने लगी जिसने आसपास के घास के मैदानों और जंगलों को पूरी तरह से जलाकर राख कर दिया। इस दुखद घटना के तुरंत बाद द्वीप पर रहने वाले अनुमानित 10,000 लोगों की मृत्यु हो गई थी। लेकिन इसका असली दुष्प्रभाव आने वाले कई दिनों, महीनों या कई वर्षों बाद भी पूरी दुनिया को झेलना पड़ा।
असल में, ज्वालामुखी के मलबे ने हमारे ग्रह (पृथ्वी) के कुछ हिस्सों को कई महीनों तक पूरी तरह से ढक दिया और सूरज की रोशनी के अभाव में यह हिस्से पूरी तरह से ठंडे पड़ गए। जिसके कारण उत्तरी अमेरिका में फसल की बर्बादी तथा अकाल, और यूरोप में महामारी की घटनाएं सामने आने लगी। 1815 के ज्वालामुखी विस्फोट के बाद पूरे प्रभावित क्षेत्र में, हफ्तों तक राख की बारिश हुई। पहाड़ से सैकड़ों मील दूर मकान भी इसके मलबे में दब गए। ताजे पानी के सभी स्रोत दूषित हो गए। फसलें और जंगल पूर्णतः ख़त्म हो गए। ज्वालामुखी से बड़ी मात्रा में निकली सल्फ्यूरिक गैस (Sulfuric Gas) हवा में जलवाष्प के साथ मिश्रित हो गई। समतापमंडलीय हवाओं द्वारा प्रेरित, सल्फ्यूरिक एसिड एरोसोल (Sulfuric Acid Aerosol) की धुंध, राख और धूल ने पृथ्वी को ढक लिया और सूर्य के प्रकाश को भी अवरुद्ध कर दिया।
चीन और तिब्बत में, बेमौसम ठंड के मौसम ने पेड़ों, धान के खेतों और यहाँ तक कि जानवरों को भी नष्ट कर दिया। इस घटना के कारण भारी बारिश के बाद आई बाढ़ ने बची हुई कई फसलों को नष्ट कर दिया।
1815 और 1816 में अविकसित फसल तथा बढ़ती कीमतों ने अमेरिकी किसानों को भी डरा के रख दिया। इन्ही सब कारणों से 1816 को "बिना गर्मी के वर्ष" के रूप में जाना जाता है। हालांकि जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि साल 1816 सबसे ठंडा वर्ष नहीं था, लेकिन उस साल जून-से-सितंबर तक गर्मी के दौरान भी ठंड बनी रही।
1816 की गर्मियों के दौरान यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन (Great Britain) में, सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो गई। जिससे यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन में मकई और गेहूं की फसलें बर्बाद हो गई। इस दौरान आयरलैंड (Ireland) में भी आठ सप्ताह तक लगातार बारिश हुई। इसके कारण आलू की फसल खराब हो गई, और अकाल पड़ गया।
यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन में मकई और गेहूं की फसलों की व्यापक विफलता को इतिहासकार जॉन डी पोस्ट (John D. Post) ने “पश्चिमी दुनिया में अंतिम महान निर्वाह संकट" कहा है। गंभीर जलवायु असामान्यताओं के कारण वर्ष 1816 को “गर्मियों के बिना वर्ष” के रूप में जाना जाता है, जिसके कारण औसत वैश्विक तापमान में 0.4-0.7 डिग्री सेल्सियस (0.7-1 डिग्री फ़ारेनहाइट) की कमी आई है। यह विस्फोट 1,300 वर्षों में सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट था।
हमारे प्यारे भारत में भी विलंबित ग्रीष्म मानसून के कारण मूसलाधार बारिश हुई, जिसने बंगाल में गंगा के पास के क्षेत्र से लेकर मास्को (Moscow) तक हैजा फ़ैल गया। 1816 और 1819 के बीच कुपोषण और अकाल के कारण आयरलैंड, इटली, स्विटजरलैंड और स्कॉटलैंड सहित यूरोप के कुछ हिस्सों में टाइफस (Typhus) नामक महामारी फ़ैल गई।
इस बीमारी के आयरलैंड से बाहर और बाद में ब्रिटेन तक फैलने से 65,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई। वातावरण में ज्वालामुखीय राख के परिणामस्वरूप, हंगरी (Hungary) में भूरी बर्फ का अनुभव किया गया। इटली के उत्तरी और उत्तर-मध्य क्षेत्र में कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ, जहां साल भर लाल बर्फ गिरती रही। अब ज्वालामुखी के बारे में इतने भयानक परिमाणों को पढ़ने के बाद आपके मन में यह प्रश्न भी उठ सकता कि क्या भारत में भी ऐसा कोई ज्वालामुखी है, जो इस स्तर की तबाही ला सकता है?
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया के 7वें सबसे बड़े देश होने के बावजूद भारत में केवल एक सक्रिय ज्वालामुखी है, जो बंगाल की खाड़ी में अंडमान में स्थित पोर्ट ब्लेयर से 138 किलोमीटर दूर एक छोटे से दूरस्थ बंजर द्वीप पर स्थित है। कई अन्य ज्वालामुखियों की तरह यह भी निष्क्रिय माना जाता है। मूल रूप से यह बंजर द्वीप भी पानी के नीचे का एक ज्वालामुखी था, लेकिन लाखों वर्षों में लगातार विस्फोटों से निकले लावे के कारण आज यह समुद्र तल से 354 मीटर ऊपर है।
आर्गन डेटिंग (Argon Dating) के आधार पर, अब यह सत्यापित हो गया है कि इस ज्वालामुखी का सबसे पुराना लावा प्रवाह 1.6 मिलियन वर्ष पहले हुआ था। ज्वालामुखी का सबसे पुराना हिस्सा समुद्र तल से 2250 मीटर नीचे समुद्र तल पर स्थित है।
इस ज्वालामुखी में आखिरी विस्फोट 1803 में दर्ज किया गया था और फिर अगले 188 वर्षों तक कोई गतिविधि नहीं हुई और ज्वालामुखी को निष्क्रिय माना जाने लगा। लेकिन फिर 1991, 2003, 2005 और आखिर में जनवरी, 2017 में यह फिर से फट गया। हालांकि, ज्वालामुखीय द्वीप पर कोई भी मनुष्य नहीं रहता और यह वनस्पति से रहित भी है। द्वीप पर पाए जाने वाले सबसे दिलचस्प जानवरों में एक जंगली बकरी है। बंजर द्वीप तक सार्वजनिक पहुंच प्रतिबंधित है। यह भारतीय नौसेना और तट रक्षकों द्वारा अत्यधिक संरक्षित क्षेत्र है। यद्यपि आप समुद्र से ज्वालामुखी को नहीं देख सकते हैं, लेकिन यदि आप द्वीप से गुजरते हैं तो आप धुएं के गुबार को अच्छी तरह से देख सकते हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3j9ZFx2
https://bit.ly/2M6HZNT
https://bit.ly/2WdGxON
चित्र संदर्भ
1. बर्फ की परत को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. ज्वालामुखी विस्फोट को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
3. 1815 तम्बोरा विस्फोट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. माउंट टैम्बोरा ज्वालामुखी काल्डेरा, सुंबावा, इंडोनेशिया को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. हैजे से पीड़ित व्यक्ति को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. ज्वालामुखी के धुंए को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. माउंट वेसुवियस; माउंट वेलकम के तल पर एक ज्वालामुखी विस्फोट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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