मेरठ के इतिहास में कई यादगार घटनाएं मौजूद हैं। इनमें से कुछ यादें सुखद हैं तो कुछ दिल को दहला देने वाली हैं। हाशिमपुरा नरसंहार सामूहिक हत्या भी ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं में से एक है। वास्तव में यह घटना तब की है जब 1987 में केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने के निर्देश दिये जिसके बाद से मेरठ में चुटपुट साम्प्रदायिक दंगों का दौर शुरू हुआ। शहर में कर्फ्यू (Curfew) लगने लगे और पी.ए.सी. (प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी-Provincial Armed Constabulary) लगा दी गयी। शहर में जगह-जगह तलाशी अभियान चलाये गये जिसमें भारी मात्रा में हथियार और विस्फोटक बरामद हुए। इसी बीच 22 मई 1987 को हाशिमपुरा में एक अमानवीय घटना को अंजाम दिया गया जिसके बाद दंगों का दौर बहुत अधिक बढ़ गया। 6 महीनों तक कर्फ़्यू का सन्नाटा और दहशत का मंज़र बना रहा। शहर के सभी घरों में आग लगा दी गयी। जगह-जगह पर गोलीबारी और विस्फोट हुए। यह मंज़र बहुत भयावह था। हर तरफ आग की लपटें और चीख पुकार सुनाई देने लगीं।
मेरठ के पास इस घटना ने बहुत से लोगों को बेघर कर दिया था। इन लोगों में शहर के एक प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र भी थे। उस वक्त बशीर साहब मेरठ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर (Professor) थे। बशीर बद्र की शायरी उस समय हर किसी की ज़ुबान पर होती थी। मेरठ को इस बात का फ़क्र था कि बशीर साहब इस शहर में रहते थे। यहां की हर महफ़िल बशीर साहब के बग़ैर अधूरी रहती थी। लेकिन उनके अनुसार उस भयानक दौर में अपने भी पराये हो गए। न कोई पड़ोस रहा, न कोई रहनुमा रहा। आग की लपटों से उनका घर भी न बच पाया। उनका सब कुछ जलकर खाक हो गया था। जिस कारण उन्होंने अपने दोस्त के घर पर परिवार सहित दिन गुज़ारे। उनका दिल पूरी तरह टूट चुका था। शहर से उनकी मोहब्बत के सारे रिश्ते भी इसी आग में झुलस गए थे। वे अब शहर में नहीं रहना चाहते थे तथा शहर को छोड़कर जाना ही उन्हें ज़रूरी लगा। वे भोपाल चले गए और वहीं के होकर रह गए।
इस घटना से हताहत हुए बशीर बद्र ने अपने दर्द को शब्दों का रूप दिया। उनकी कविता में उनका दर्द साफ झलकता है। आइये इस कविता को पढ़ें और उनके दर्द को समझें:
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में।
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में।
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रहता है उसके आशियाने में।
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में।
बशीर साहब की भाषा में वो रवानगी मिलती है जो बड़े-बड़े शायरों की लिखाई में नहीं मिलती। उनका हमेशा मानना रहा है कि अरबी, फारसी और उर्दू के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल भर से शायरी नहीं बनती। जो लोगों के ज़हन में उतर जाए वो ग़ज़ल होती है।
उपरोक्त कविता स्पष्ट रूप से यह व्यक्त करती है कि इस घटना के कारण वे इस कदर आहत में थे मानो उनके भीतर किसी ने बहुत गहरा ज़ख्म किया हो। जिस बशीर बद्र ने बचपन में आज़ादी के दीवानों को देखा, तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ रहे और विभाजन का दर्द देखा उसके लिए आज़ादी के 40 बरस बाद एक बार फिर वैसा ही मंज़र देखना किसी सदमे से कम नहीं था।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Hashimpura_massacre
2. https://bit.ly/2XNq8UO
3. https://bit.ly/2L3dICf
चित्र सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/2FWlg5v
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