City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2190 | 101 | 2291 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
माना जाता है कि हमारे देश भारत का दिल गांवों में बसता है, और देश की समृद्धि भी गांवों से ही आती है। देश में 6 लाख से अधिक गांव हैं, जो 6 हजार से अधिक ब्लॉकों और 750 से अधिक ज़िलों में विभाजित हैं। ये सभी एक व्यवस्था से संचालित एवं शासित होते हैं, जिसमें पंचायती राज व्यवस्था एक प्रणाली है। “पंचायत” शब्द का अर्थ है – पांच (पंच) की सभा (आयत), और राज का अर्थ “शासन” है। भारत में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। तो आइए, आज राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के मौके पर पंचायती राज की प्रक्रिया और कार्यों को जानते एवं समझते हैं। साथ ही, इसकी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों के बारे में भी जानते हैं।
महात्मा गांधी जी पंचायती राज संस्थाओं की वकालत करने वाले पहले और सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे। ग्राम पंचायत के बारे में उनका दृष्टिकोण व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सभी के लिए अवसर और लोगों की पूर्ण भागीदारी वाला एक छोटा आत्मनिर्भर गणराज्य था। इस विचार को आगे बढ़ाते हुए, एक त्रिस्तरीय निर्वाचित स्वशासन, जिसे पंचायती राज संस्थान के नाम से जाना जाता है, का सुझाव दिया गया था। भारत सरकार द्वारा इन सिफारिशों को स्वीकार करने के बाद, विभिन्न राज्यों ने पंचायत राज प्रणाली को अपनाना शुरू कर दिया, जिसमें 1959 में राजस्थान अग्रणी था। 1959 और 1988 के बीच इन संस्थाओं का अध्ययन करने और सिफारिशें सुझाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया, जिसकी परिणति अंततः 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के पारित होने के माध्यम से पंचायती राज संस्थानों को आधिकारिक तौर पर मान्यता मिलने के रूप में हुई।
इस संशोधित अधिनियम ने राज्यों के लिए अधिनियम के अनुसार पंचायत राज व्यवस्था स्थापित करना अनिवार्य बना दिया, और ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और ज़िला परिषद को निर्वाचित स्थानीय निकायों के रूप में पेश किया गया। ग्राम सभा को ग्रामीण स्तर पर लोगों की संसद के रूप में मान्यता प्राप्त है, यह प्रशासन का सबसे निचला स्तर है और इसमें गांव के सभी वयस्क सदस्य शामिल होते हैं। इसके पास अपने गांव के लिए विभिन्न विकास कार्यक्रमों की योजना बनाने, अनुमोदन करने और निगरानी करने की शक्ति होती है।
इसके बाद इन निकायों में और भी कुछ सुधार हुए हैं। जैसे कि, 1996 का अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार अधिनियम, जिसने आदिवासी और वन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की।
संविधान में पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने और आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करने और लागू करने की परिकल्पना की गई है। तदनुसार, पंचायती राज मंत्रालय नीतिगत हस्तक्षेपों के माध्यम से स्थानीय आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए स्थानीय शासन, सामाजिक परिवर्तन और सार्वजनिक सेवा वितरण तंत्र के लिए पंचायती राज संस्थानों को एक प्रभावी, कुशल और पारदर्शी माध्यम बनाना चाहता है। मंत्रालय सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों के तहत वित्तीय और तकनीकी सहायता के प्रावधान और सलाह जारी करके, पंचायती राज संस्थानों को मजबूत करने के लिए कई कदम उठा रहा है। इस प्रकार, उठाए गए विभिन्न उपायों में उन राज्यों को प्रोत्साहित करना शामिल है, जिन्होंने पंचायतों को अधिक कार्य, धन और पदाधिकारी सौंपे हैं। साथ ही, पंचायतों की क्षमता निर्माण के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करना; बजटिंग, अकाउंटिंग और ऑडिटिंग की प्रणालियों को मजबूत करना। सॉफ्टवेयर अनुप्रयोगों का विकास करना और उनके कामकाज में पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता लाने के लिए उनके उपयोग के लिए प्रशिक्षण प्रदान करना। सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली पंचायतों को प्रोत्साहन पुरस्कार देना। राज्यों की सहायता करना तथा ग्राम पंचायतों द्वारा उनके पास उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके सहभागी ग्राम पंचायत विकास योजनाओं की तैयारी के लिए विस्तृत दिशानिर्देश तैयार करना आदि शामिल हैं।
फिर भी, आज इन संस्थाओं के सामने निम्नलिखित चुनौतियां हैं।
राज्य सरकार द्वारा शक्ति के हस्तांतरण का अभाव:
देश के कुछ राज्यों ने जैसे केरल, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक ने 26 विभागों को पंचायतों को सौंप दिया है, जबकि कई राज्यों ने केवल तीन विभागों को ही पंचायतों को सौंपे हैं। अब जिन राज्यों ने कार्य और विभागों को पंचायत निकायों को नहीं सौंपे है, वहां संबंधित लाइन विभाग और नौकरशाह ही निर्णय लेते हैं।
पंचायत के लिए सौंपे गए कार्यों को संभालने के लिए समानांतर निकाय:
कई राज्यों ने पंचायतों के लिए सौंपे गए कार्यों को संभालने के लिए समानांतर निकाय बनाए हैं। ऐसी स्थिति में पंचायत व्यवस्था अपने काम करने में असक्षम हो जाती हैं।
क्षमता निर्माण हेतु अल्प प्रयास:
आज तक, इन संस्थानों की क्षमताओं को मजबूत करने के लिए बहुत कम प्रयास किए गए हैं। न केवल बहुत कम राज्यों ने पंचायतों की योजना प्रक्रिया (मुख्य गतिविधियों का मानचित्रण) को आंतरिक बनाने पर कुछ काम किया है, बल्कि कई राज्यों ने नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों की क्षमता निर्माण पर भी कोई ध्यान नहीं दिया है। इनमें सबसे कमज़ोर विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिला प्रतिनिधि हैं। इसलिए, क्षमता की कमी ने इन संस्थानों की प्रभावशीलता के बारे में बहुत सारे संदेह पैदा किए हैं और स्वशासी संस्थानों के रूप में उनकी विश्वसनीयता को चुनौती दी है।
अपर्याप्त वित्तीय शक्तियां:
अपर्याप्त वित्तीय शक्तियों ने इन स्वशासी संस्थानों को राज्य और केंद्र सरकारों की सहायता पर निर्भर रखा है। पंचायतों द्वारा उत्पन्न वित्तीय संसाधन उनकी आवश्यकताओं से बहुत कम हैं। ग्रामीण निकायों के कुल राजस्व का 93% से अधिक बाहरी स्रोतों से प्राप्त होता है। इसके अलावा, उनकी कराधान की शक्ति भी बहुत सीमित कर दी गई है।
राज्य वित्त आयोग से जुड़े मुद्दे:
केंद्रीय वित्त आयोगों की सिफारिशें अनिवार्य नहीं हैं, लेकिन शुरू से ही, क्रमिक केंद्र सरकारों ने वित्त आयोग द्वारा सुझाए गए हस्तांतरण पैकेज को बिना किसी विचलन के स्वीकार करने की एक स्वस्थ परंपरा स्थापित की है। हालांकि, यह परंपरा राज्यों में स्थापित नहीं की गई है। परिणामस्वरूप, केंद्रीय वित्त आयोगों द्वारा अनुशंसित होने पर भी, राज्य सरकारें अक्सर स्थानीय सरकारों के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराती हैं।
पंचायती राज संस्थाओं का राजनीतिकरण:
यह देखा जा रहा है कि, पंचायती राज संस्थाओं को केवल राजनीतिक दलों, विशेषकर राज्य में सत्तारूढ़ दल के संगठनात्मक हथियारों के रूप में देखा जाता है।
सांसद-विधायकों का हस्तक्षेप:
पंचायतों के कामकाज में क्षेत्र के सांसदों और विधायकों के हस्तक्षेप ने भी उनके प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व:
हालांकि महिलाओं और एससी/एसटी को आरक्षण के माध्यम से इन निकायों में प्रतिनिधित्व मिला है। फिर भी, महिलाओं और एससी/एसटी प्रतिनिधियों के मामले में क्रमशः पंच-पति और प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व की उपस्थिति आम है।
राज्य चुनाव आयोग से जुड़े मुद्दे:
राज्य चुनाव आयोगों का कार्यकाल और शर्तें, योग्यताएं और सेवा की शर्तें अलग अलग राज्यों में बहुत भिन्न होती हैं।
कार्यों का अवैज्ञानिक वितरण:
विभिन्न स्तरों पर संरचनाओं के बीच कार्यों का वितरण वैज्ञानिक आधार पर नहीं किया गया है। विकास और स्थानीय स्व-सरकारी कार्यों के मिश्रण ने स्थानीय स्व-सरकारी संस्थानों की स्वायत्तता को काफी हद तक कम कर दिया है। इसके अलावा गांव, ब्लॉक और ज़िला पंचायत को सौंपे गए कार्य अतिव्याप्त होते हैं, जिससे भ्रम, प्रयासों का दोहराव और ज़िम्मेदारी का स्थानांतरण होता है।
तीन स्तरों के बीच असंगत संबंध:
पंचायत व्यवस्था त्रि-स्तरीय कार्यात्मक प्राधिकरण के रूप में कार्य नहीं करते हैं। उच्च संरचना की ओर से निचली संरचना को अपने अधीनस्थ मानने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
उत्तरदायित्व की कमी:
कई मामलों में, स्थानीय सरकारों को भ्रष्टाचार, संरक्षण, सत्ता के मनमाने प्रयोग और अक्षमता की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसने शासन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। यह विफलता लोकतांत्रिक विकास की एक बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/35rvu7f8
https://tinyurl.com/czva2rkx
https://tinyurl.com/yfk269y3
चित्र संदर्भ
1. समूह में बैठी महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. पंचायती राज दिवस लेखन को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
3. ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के 26वें अधिवेशन के चित्र को संदर्भित करता एक चित्रण (getarchive)
4. भारतीय आदिवासियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. ग्रामीण भारतीय परिवार को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.