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गैलस गैलस डोमेस्टिकस (Gallus gallus domesticus) प्रजाति की कोई भी मुर्गी, जिसे विशेष रूप से मांस उत्पादन के लिए पाला जाता है, ‘ब्रॉयलर’ कहलाती है। अधिकांश व्यावसायिक ब्रॉयलर चार से छह सप्ताह की आयु के अंदर ही अपने अधिकतम भार को प्राप्त कर लेते हैं, हालांकि धीमी गति से बढ़ने वाली नस्लें लगभग 14 सप्ताह की आयु में अधिकतम भार को प्राप्त करती हैं। विशिष्ट ब्रॉयलर में सफेद पंख और पीली त्वचा होती है। ब्रॉयलर शब्द का उपयोग कभी-कभी बड़े मुर्गों की तुलना में 2.0 किलोग्राम से कम वज़न वाली छोटी मुर्गियों को संदर्भित करने के लिए भी किया जाता है। तेज़ी से प्रारंभिक विकास के लिए व्यापक प्रजनन चयन और इसे बनाए रखने के लिए उपयोग किए जाने वाली पालन पोषण संबंधी विधियों के कारण, ब्रॉयलर कई स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं, विशेष रूप से कंकाल की विकृति और शिथिलता, त्वचा और आंखों के घावों और संक्रामक हृदय स्थितियों के प्रति संवेदनशील होते हैं।
आधुनिक वाणिज्यिक मांस नस्लों के विकास से पहले, ब्रॉयलर ज्यादातर खेतों में पलने वाले युवा नर मुर्गियां थे। इनकी नस्लों का प्रजनन 1916 के आसपास शुरू हुआ। चिकन की एक संकर किस्म का उत्पादन प्राकृतिक रूप से कोर्निश (Cornish) नस्ल के नर और सफेद प्लायमाउथ रॉक्स (Plymouth Rocks) नस्ल की मादा से किया गया था। संकर चिकन का यह पहला प्रयास 1930 के दशक में शुरू किया गया था और 1960 के दशक में प्रभावी हो गया। मूल संकर नस्ल कम प्रजनन क्षमता, धीमी वृद्धि और रोग की संवेदनशीलता की समस्याओं से ग्रस्त थी। हालांकि आज आधुनिक ब्रॉयलर कोर्निश/रॉक संकर नस्ल से बहुत अलग हो गए हैं।
आधुनिक वाणिज्यिक ब्रॉयलर, उदाहरण के लिए, कोर्निश क्रॉस और कोर्निश-रॉक्स को बड़े पैमाने पर, कुशल मांस उत्पादन के लिए कृत्रिम रूप से चुना और पाला जाता है। वे बहुत तेज़ विकास दर, उच्च संकर रूपांतरण अनुपात और निम्न स्तर की गतिविधि के लिए जाने जाते हैं। आधुनिक वाणिज्यिक ब्रॉयलर केवल 5 से 7 सप्ताह में लगभग 2 किलोग्राम वजन तक प्राप्त कर लेते हैं। विशिष्ट ब्रॉयलर में सफेद पंख और पीली त्वचा होती है। हाल के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि पीली त्वचा का जीन ‘ग्रे जंगलफाउल’ के साथ संकरण के माध्यम से घरेलू पक्षियों में शामिल किया गया था। नर और मादा दोनों ब्रॉयलर को उनके मांस के लिए पाला जाता है।
भारत में उपलब्ध अधिकांश व्यावसायिक ब्रॉयलर चिकन नस्लें "कोर्निश क्रॉस" नस्ल की हैं। यह नस्ल एक उच्च संकरित नस्ल है जिसे केवल उनकी तेजी से बढ़ती विशेषता के कारण चुना जाता है। कोर्निश क्रॉस मुर्गियां बहुत तेज़ी से बढ़ती हैं, हालांकि इसमें कुछ भी अप्राकृतिक नहीं है। इस नस्ल के पक्षियों का वज़न बहुत तेज़ी से बढ़ता है। इन मुर्गियों को मांस के लिए 2-3 महीने की उम्र में ही मार दिया जाता है। ये मुर्गियाँ उस अवधि के भीतर एक वयस्क मुर्गे के आकार तक पहुँच जाती है, जबकि अन्य नस्लें सिर्फ छोटे चूजों की तरह दिखती हैं।
हालांकि आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में मुर्गी पालन में एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग जैसी कई ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ अपनाई जाती हैं जिनसे मुर्गियाँ सामान्य से अधिक तेज़ी से बढ़ती हैं। एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग से ब्रॉयलर मुर्गियों में उच्च प्रारंभिक मृत्यु दर कम हो जाती है। लेकिन यदि इन दवाओं को जारी रखा जाता है तो वे जल प्रतिधारण के साथ-साथ वज़न बढ़ाने में सहायता करती हैं । इस प्रकार का सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला एंटीबायोटिक "कोलिस्टिन" (colistin) है, जिसका उपयोग मनुष्यों में कुछ जीवाणु संक्रमणों के खिलाफ अंतिम उपाय के रूप में किया जाता है। यद्यपि यह एक बहुत ही मूल्यवान दवा है जिसका अब ब्रॉयलर चिकन उद्योग द्वारा दुरुपयोग किया जा रहा है। यह दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के खिलाफ एकमात्र विकल्प है।
हालांकि भारत में मुर्गी पालन उद्योग में वृद्धि हार्मोन के उपयोग पर प्रतिबंध है, लेकिन कुछ वाणिज्यिक फर्म तेज़ी से पक्षियों के वज़न में बढ़ोतरी करने के लिए पक्षियों पर इंजेक्शन के रूप में इस दवा का उपयोग करते हैं।
इन दवाओं के उपयोग से इन पक्षियों के उपभोक्ताओं पर स्वास्थ्य संबंधी अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते हैं। यहां हम ब्रॉयलर चिकन से जुड़े हानिकारक दुष्प्रभावों के बारे में आपको अवगत कराएंगे:
1. एंटीबायोटिक अवशेष:
बीमारी को रोकने और त्वरित विकास प्राप्त करने के लिए, ब्रॉयलर को एंटीबायोटिक्स के इंजेक्शन लगाए जाते हैं। एक वर्तमान रिपोर्ट से पता चलता है कि सात दिनों में कई बार ब्रॉयलर चिकन खाना एंटीबायोटिक दवाओं का इंजेक्शन लेने के बराबर है। इन एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष पक्षियों के मांस में रह जाते हैं जो उपभोक्ता के शरीर में भी पहुँच जाते हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह होता है कि मनुष्यों के शरीर में एंटीबायोटिक उपचार की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
2. खतरनाक सूक्ष्मजीव:
अधिकांश मुर्गी पालन फार्मों और मांस को पकाए जाने वाले ओवन (Oven) में घातक सूक्ष्मजीव होते हैं। अतः इनकी नियमित साफ सफाई अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ओवन में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव कई नैदानिक समस्याएं पैदा कर सकते हैं।
3. हानिकारक रासायनिक सामग्री:
मांस उत्पादन और वज़न बढ़ाने के लिए ब्रॉयलर चिकन में खतरनाक रासायनिक सामग्री, विकासात्मक हार्मोन और रोगाणुरोधी इंजेक्शन लगाए जाते हैं। इन्हें खाने से आपकी सेहत पर खतरनाक असर पड़ सकता है, जिससे वजन बढ़ना, पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में समय से पूर्व किशोरावस्था का शुरू होना आदि समस्याएं हो सकती हैं।
4. कैंसर कारक:
कुछ शोध से पता चलता है कि उच्च तापमान पर पकाए गए ब्रॉयलर चिकन खाने से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। उच्च तापमान पर पकाया गया चिकन मांस पुरुषों में कैंसर रोग का कारण बन सकता है। इससे सावधान रहें और चिकन मांस को तेज़ आंच पर न पकाएं।
5. पुरुष नपुंसकता:
पुरुषों में नपुंसकता की समस्या आज सबसे आम मूल समस्या है, और ब्रॉयलर चिकन खाना पुरुष नपुंसकता के मूल कारणों में से एक है। ब्रॉयलर चिकन में पाया जाने वाला रसायन पुरुषों में शुक्राणु की मात्रा को कम कर देता है और उन्हें नपुंसक बना देता है।
6. खाद्य जनित बीमारियों का खतरा:
ब्रॉयलर चिकन में साल्मोनेला (Salmonella) और कैम्पिलोबैक्टर (Campylobacter) जैसे बैक्टीरिया के कारण होने वाली खाद्य जनित बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। इन जोखिमों को कम करने के लिए पूरी तरह से पकाना और भोजन का उचित रख-रखाव आवश्यक है।
7. संभावित एलर्जी:
अप्राकृतिक भोजन प्रथाओं के उपयोग से ब्रॉयलर चिकन मांस में संभावित एलर्जी पैदा हो सकती है, जिससे अतिसंवेदनशील व्यक्तियों में एलर्जी प्रतिक्रियाओं का खतरा बढ़ जाता है।
8. आनुवंशिक विविधता का नुकसान:
तेज़ी से विकास के लिए विशिष्ट आनुवंशिक नस्लों पर ध्यान केंद्रित करने से मुर्गियों की आबादी के भीतर आनुवंशिक विविधता का नुकसान हो सकता है। विविधता के इस नुकसान का बीमारियों और बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के प्रति मुर्गियों की आबादी के लचीलेपन पर प्रभाव पड़ सकता है।
जो उपभोक्ता ब्रॉयलर और देसी चिकन के बीच विकल्प चुनते हैं, वे आसानी से दोनों के बीच का अंतर पहचान सकते हैं। इनमें से एक अंतर यह है कि पकाए गए ब्रॉयलर चिकन को कभी-कभी खाते वक़्त बहुत अधिक चबाना पड़ता है। इस स्थिति को वुडन ब्रेस्ट सिंड्रोम (wooden breast syndrome) कहा जाता है। इस स्थिति में ब्रॉयलर मुर्गियों का मांस कठोर हो जाता है जिससे इसे चबाना पड़ता है। यह समस्या कभी कभी उत्पादकों के लिए अत्यंत महंगी साबित होती है।
वुडन ब्रेस्ट सिंड्रोम स्थिति के पहले चरण में स्तन के ऊतकों में नसों की सूजन आ जाती है और प्रभावित नसों के आसपास लिपिड का जमा हो जाता है। समय के साथ, इसके बाद मांसपेशियों की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं और उनके स्थान पर रेशेदार और वसायुक्त ऊतक आ जाते हैं। शोधकर्ताओं ने ब्रायलर मुर्गियों में वुडन ब्रेस्ट सिंड्रोम में योगदान देने वाले लिपोप्रोटीन लाइपेज़ lipoprotein lipase नामक एंज़ाइम की पहचान की है। वसा चयापचय के लिए लाइपेज़ महत्वपूर्ण है।
डेलावेयर (Delaware) विश्वविद्यालय के पशु और खाद्य वैज्ञानिक बेहनम अबश्त (Behnam Abasht) के नेतृत्व वाली टीम ने सुझाव दिया कि यह बीमारी एक चयापचय विकार है जो स्तन की मांसपेशियों के ऊतकों में असामान्य वसा संचय करती है।
शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि यह बिमारी मुख्य रूप से उन्हीं ब्रायलर में पाई जाती हैं, जिन्हें वज़न बढ़ाने के लिए अतिरिक्त मात्रा में एंटीबायोटिक दवाएं दी जाती हैं। अतः आप यह समझ सकते हैं कि यह न सिर्फ इन मुर्गियों के लिए हानिकारक है, बल्कि इनका सेवन करने वाले उपभोक्ताओं के लिए भी कितना हानिकारक हो सकता है!
संदर्भ
https://shorturl.at/bnVZ0
https://shorturl.at/ftEZ1
https://shorturl.at/kqPQZ
https://shorturl.at/rzM19
चित्र संदर्भ
1. ब्रॉयलर मुर्गी को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
2. फार्म में पल रही मुर्गियों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. मुर्गी के चूजे को दर्शाता एक चित्रण (GetArchive)
4. मुर्गी को इंजेक्शन लगाते व्यक्ति को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
5. पक चुकी ब्रॉयलर मुर्गियों को दर्शाता एक चित्रण (Wallpaper Flare)
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