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ज़ायद (Zaid) की फसल का मौसम‚ रबी (Rabi) और खरीफ (Kharif) की फसल
के मौसम के बीच की फसल का मौसम होता है‚ जो किसानों के लिए अपने आय
प्रवाह को बनाए रखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। ज़ायद की फसलों को
मुख्य वृद्धि अवस्था के दौरान तथा फूल आने के दौरान अधिक दिनों तक शुष्क
और गर्म मौसम की बहुत आवश्यकता होती है। मार्च से जून के महीने गर्म‚ शुष्क
और लंबे दिनों वाले होते हैं‚ इसलिए ये महीने इन फसलों के उत्पादन के लिए
सबसे अच्छे महीने होते हैं।
“तरबूज” कुकुरबिटेसी (Cucurbitaceae) परिवार की एक फूल की प्रजाति के खाने
योग्य फल का नाम है। एक अनुगामी बेल जैसा पौधा‚ यह दुनिया भर में एक
अत्यधिक खेती किये जाने वाला फल है‚ जिसमें 1‚000 से अधिक किस्में हैं।
तरबूज का पौधा अपने बड़े खाद्य फल के लिए दुनिया भर में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों
से लेकर समशीतोष्ण क्षेत्रों में अनुकूल जलवायु में उगाया जाता है‚ जो एक कठोर
छिलके वाला बेरी है जिसमें कोई आंतरिक विभाजन नहीं है‚ और इसे वानस्पतिक
रूप से पेपो (Pepo) कहा जाता है। इसके अंदर का मीठा‚ रसदार गुदा आमतौर
पर गहरे लाल से गुलाबी रंग का होता है‚ जिसमें कई काले बीज होते हैं‚ हालांकि
इसकी बीज रहित किस्में भी मौजूद हैं। इस फल को कच्चा या इसका अचार
बनाकर खाया जा सकता है‚ और इसको पकाने के बाद इसका छिलका भी खाने
योग्य हो जाता है। इसका सेवन जूस के रूप में या मिश्रित पेय पदार्थ के रूप में
भी किया जा सकता है।
सूडान (Sudan) के कोर्डोफन (Kordofan) खरबूजे भी इसी प्रकार की किस्म से
संबंधित हैं‚ जिनकी आधुनिक खेती वाले तरबूज के पूर्वज होने की सम्भावना हैं।
जंगली तरबूज के बीज‚ लीबिया (Libya) में एक प्राचीन स्थल यून मुहुग्गीग (Uan
Muhuggiag) में पाए गए थे‚ जो लगभग 3500 ईसा पूर्व के हैं। मिस्र में 2000
ईसा पूर्व तक तरबूजों को घर में ही बोया जाता था‚ हालांकि वे मीठी आधुनिक
किस्म के नहीं थे। मीठे तरबूज रोमन काल के दौरान दुनिया भर में फैले हुए थे।
काफी प्रजनन प्रयासों ने रोग प्रतिरोधी किस्मों का विकास किया है। इस फल की
कई किस्में उपलब्ध हैं जो रोपण के 100 दिनों के भीतर परिपक्व फल देती हैं।
2017 में‚ चीन ने दुनिया के कुल तरबूजों का लगभग दो-तिहाई उत्पादन किया
था। तरबूज के सफल उत्पादन एवं विकास के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता
होती है। इसे पूरे साल तमिलनाडु‚ कर्नाटक‚ आंध्र प्रदेश‚ उड़ीसा‚ पश्चिम बंगाल
और राजस्थान जैसे स्थानों में उगाया जा सकता है। हालांकि यह पाले के प्रतिकूल
है‚ इसलिए इसकी खेती हरियाणा जैसे स्थानों पर पाले के बाद ही की जा सकती
है। अन्यथा‚ इन्हें ऐसे ग्रीनहाउस में उगाया जा सकता है जिन्हें पाले से पर्याप्त
सुरक्षा प्राप्त हो। गर्म मौसम की फसल होने के कारण‚ पौधे को फलों के उत्पादन
के लिए पर्याप्त धूप और शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है। यदि वे उन जगहों
पर उगाए जाते हैं जहां सर्दी होती है‚ तो उन्हें ठंड से पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की
जानी चाहिए। भारत में जलवायु अधिकतर उष्णकटिबंधीय है इसीलिए यहां तरबूज
की खेती करने के लिए सभी मौसम उपयुक्त हैं। हालांकि‚ तरबूज ठंड के प्रतिकूल
है‚ इसलिए देश के कुछ हिस्सों में जहां बहुत ज्यादा सर्दी होती है‚ वहां तरबूज की
खेती ठंड बीत जाने के बाद की जाती है। कुछ क्षेत्रों जैसे तमिलनाडु‚ महाराष्ट्र‚
आंध्र प्रदेश आदि स्थानों में तरबूज की खेती वर्ष के लगभग किसी भी मौसम में
संभव है।
तरबूज़ काली मिट्टी और रेतीली दोमट मिट्टी में भी अच्छी तरह से उगता है।
हालांकि‚ उनके पास अच्छी मात्रा में जैविक सामग्री होनी चाहिए और मिट्टी को
पानी को रोकना नहीं चाहिए बल्कि मिट्टी से पानी आसानी से निकल जाना
चाहिए अन्यथा लताओं में फफूंदी का संक्रमण होने की संभावना होती है। मिट्टी
का पीएच (PH) 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए। यदि मिट्टी में अम्लीय पदार्थों
की उपस्थिति अधिक मात्रा में पाई गई तो अम्लीय मिट्टी के कारण बीज सूख
सकते हैं। इसीलिए आवश्यक पीएच वाली मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती है‚ यह
मिट्टी थोड़ी क्षारीय होने पर भी अच्छी तरह से फसल का उत्पादन कर सकती है।
जैसे-जैसे यह फल पकते हैं‚ सिंचाई की आवश्यकता कम हो जाती है और कटाई के
दौरान इसे पूरी तरह से रोक दिया जाता है। यह प्रक्रिया फल को स्वादिष्ट और
मीठा बनाने में सहायता करती है। विभिन्न रोगों के विकास के खतरे के कारण
तरबूज को उसी मिट्टी पर 3 साल की अंतराल के बाद ही उगाया जाता है। इसे
सामान्य तौर पर धान के साथ या सब्जियों जैसे टमाटर‚ मिर्च आदि के साथ
उगाया जाता है।
तरबूज बीज से उगते हैं। हालांकि‚ तरबूज के बीज विश्वसनीय जगह से ही
खरीदकर बोने की सलाह दी जाती है। भारत में वंदना‚ किरण‚ शुगर बेबी‚ तरबूज
सुल्तान‚ इंप्रूव्ड शिपर (Improved Shipper)‚ मधुबाला‚ अर्जुन आदि नामक
तरबूज की विभिन्न किस्में हैं जो अच्छी फसल देती हैं। तरबूज की खेती में
परागण एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है। अधिकांश अन्य फसलों के विपरीत‚
तरबूज के पौधों पर फूल अपने आप फल में विकसित नहीं हो सकते। इसलिए‚
तरबूज के खेती में हम कृत्रिम परागण करना एक अच्छा और महत्वपूर्ण कदम बन
जाता है। कृत्रिम परागण सुबह जल्दी किया जाता है। कृत्रिम परागण के लिए कुछ
महत्वपूर्ण चरणों का पालन किया जाता है। सबसे पहले नर फूल को तोड़ना होता
है और इसके चारों तरफ की पंखुड़ियां हटानी होती हैं। नर फूल के पुंकेसर
(stamens) को मादा फूल के वर्तिकाग्र (stigma) पर डाला जाता है। यह पराग
को मादा फूल से संपर्क स्थापित करने में सहायता करता है। ऐसा कहा जाता है
कि शुरुआती मादा फूल सबसे स्वादिष्ट और मीठे फल देते हैं। कुछ किसान फल
लगने के बाद शाखा की नोक को चुटकी से बजाते हैं। इससे उन्हें बड़े फल प्राप्त
करने में मदद मिलती है। तरबूज एफिड्स (aphids)‚ थ्रिप्स (thrips)‚ एन्थ्रेक्नोज
(anthracnose)‚ फफूंदी (mildew)‚ विल्ट (wilt) आदि जैसे कई रोगों से प्रभावित
होता है। यह रोग तब होते हैं‚ जब बार-बार बारिश होती है और इसलिए उच्च
सापेक्ष आर्द्रता हो जाती है। यह तब भी होता है जब मिट्टी में नमी की मात्रा
अधिक होती है। इन रोगों से प्रभावित पौधों की वृद्धि रूक जाती है। ऐसे पौधों
द्वारा उत्पादित फल पूर्ण तरीके से पके हुए नहीं होते हैं और इसलिए उनका स्वाद
खराब होता है।
तरबूज की खेती मुख्य रूप से उनकी अधिक जल सामग्री के लिए की जाती थी
और इसे सूखे मौसम के दौरान खाद्य स्रोत के रूप के साथ साथ पानी के भंडारण
की एक मुख्य विधि के रूप में खाने के लिए संग्रहीत किया जाता था। दक्षिण-
पश्चिमी लीबिया (Libya) में स्थित एक प्राचीनकालीन स्थल‚ यूआन मुहुग्गीग
(Uan Muhuggiag) में 5000 साल पुराने जंगली तरबूज के बीज की खोज की
गई थी। 7वीं सदी में भारत में तरबूज की खेती हो रही थी और 10वीं सदी तक
तरबूज की खेती चीन तक पहुंच गई थी। मूर्स (Moors) ने फल को इबेरियन
प्रायद्वीप (Iberian Peninsula) में पेश किया और 961 में कॉर्डोबा (Córdoba)
में और 1158 में सेविले (Seville) में भी इसकी खेती प्रारंभ होने लगी। यह फल
दक्षिणी यूरोप के माध्यम से उत्तर की ओर फैल गया‚ लेकिन केवल गर्मियों का
तापमान इस फल के उत्पादन के लिए अनुकूल होने के कारण इस फल का
उत्पादन सीमित था। यह फल 1600 तक यूरोपीय जड़ी-बूटियों में सम्मिलित हो
गया था‚ और 17 वीं शताब्दी में यूरोप में काफी मात्रा में एक छोटे बगीचे की
फसल के रूप में बोया जाने लगा था। प्रारंभिक तरबूज स्वाद में कड़वे होते थे‚
इनके अंदर पीले-सफेद रंग का गुदा होता था और इन्हे खोलना काफी मुश्किल था।
प्रजनन की विधि के माध्यम से‚ बाद में तरबूज का स्वाद बेहतर होने लगा था
और यह खोलने में भी आसान होने लगे। यूरोपीय उपनिवेशवादियों और अफ्रीका के
दासों ने तरबूज को नई दुनिया से परिचित कराया। स्पेन (Spain) में बसने वाले
इसे 1576 में फ्लोरिडा (Florida) में विकसित कर रहे थे‚ और इसे मैसाचुसेट्स
(Massachusetts) में 1629 तक उगाया जा रहा था‚ और 1650 तक पेरू‚
ब्राजील और पनामा में भी तरबूज की खेती की जाने लगी थी। जापानी वैज्ञानिकों
द्वारा 1939 में बीजरहित तरबूजों को विकसित किया गया था‚ जो बीजरहित
ट्रिपलोइड हाइब्रिड (Triploid hybrid) बनाने में सफल हो चुके थे‚ जिनका उत्पादन
शुरुआत में कम हुआ क्योंकि उनके पास पर्याप्त रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं थी।
21 वीं सदी में बीज रहित तरबूज अधिक लोकप्रिय हो गए‚ 2014 में संयुक्त
राज्य अमेरिका में तरबूज की बिक्री में काफी वृद्धि होने लगी।
संदर्भ:-
https://bit.ly/37DvAQI
https://bit.ly/365LWkH
चित्र सन्दर्भ
1. तरबूज की डिज़ाइन को दर्शाता चित्रण (Public Domain Images)
2. एक छोटे पैमाने के जैविक खेत में तरबूज को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. माँ कोच्चिले बाजार, रसूलगढ़, ओडिशा, भारत में बिक्री के लिए तरबूज को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. विभिन्न प्रकार के तरबूजों के साथ फल विक्रेता को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. बेल पर तरबूज को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
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