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हमारा शहर लखनऊ नवाबों की शान के साथ ही विविध प्रकार की प्राकृतिक जड़ी बूटियों के संदर्भ में भी
जाना जाता है। लखनऊ शहर में आर्गेमोन मेक्सिकाना (Argemone mexicana) नामक एक बहुपयोगी
जड़ी-बूटी भी पाई जाती है। उष्णकटिबंधीय कांटेदार जंगलों में पाई जाने वाली इस औषधि को कटेला,
बारबांडा जैसे स्थानीय नामों से भी जाना जाता है, इसके अलावा भी उत्तर प्रदेश के उष्णकटिबंधीय जंगल
अनेक बहुमूल्य औषधियों का घर हैं।
उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन और झाड़ियाँ ऐसे वन या क्षेत्र होते हैं, जहाँ वर्ष भर में औसतन 70 सेमी से कम
वर्षा होती है, वर्षा का यह स्तर सामान्य से बेहद कम माना जा सकता है। ऐसे जंगल आमतौर पर भारत के
अर्ध-शुष्क क्षेत्रों जैसे राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दक्कन के
पठार के शुष्क क्षेत्रों में ही देखे जाते हैं।
कम वर्षा होने के बावजूद इस प्रकार के वनों की अपनी विशेषताएं हैं
1. इन जंगलों में छोटे पेड़ों के साथ कई कांटेदार वनस्पतियां भी पाई जाती हैं।
2. यहां पाए जाने वाले अधिकांश पेड़ बाबुल, कीकर, खैर, प्लम, कैक्टस और खजूर इत्यादि होते हैं।
3. मिट्टी से पोषक तत्वों की कमी के कारण जड़ें व्यापक रूप से भूमिगत क्षेत्र में फैली हुई रहती हैं, ताकि वे
मिट्टी से पोषक तत्वों की तलाश निरंतर वृद्धि कर सकें।
4. यहाँ के अधिकांश पेड़ों अथवा पोंधों में नुकीले कांटे पाए जाते हैं जिस कारण जानवर भी इन्हें जड़ से नहीं
उखाड़ पाते।
5. इन कांटेदार जंगलों में गधे, ऊंट, रैटलस्नेक (rattlesnakes), जंगली हिरण, नीलगाय और खरगोश जैसे
जानवर पनपते हैं।
6.जंगलों में पेड़ साल के अधिकांश दिनों में पत्ती रहित रहते हैं। इसलिए, उन्हें कभी-कभी काँटेदार झाड़ियों
या झाड़-झंखाड़ के जंगल भी कहा जाता है।
7. इन जंगली क्षेत्रों में आर्द्रता 50% से कम पाई जाती है, और यहाँ का तापमान 25 से 30 डिग्री सेल्सियस
के बीच रहता है।
उत्तर प्रदेश में (0.21%) उष्णकटिबंधीय अर्ध सदाबहार वन, (19.68%), उष्णकटिबंधीय नम पर्णपाती वन,
(50.66%) उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती , (4.61%) उष्णकटिबंधीय कांटे और (2.35%) समुद्र तट और
दलदली वन पाए जाते हैं।
1951 में अविभाजित उत्तर प्रदेश में वन क्षेत्र 30,245 वर्ग किमी दर्ज किया गया था। 1999 में उत्तरांचल
(आज के उत्तराखंड) को यू.पी. से अलग कर दिया गया। और 2011 की वन रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में केवल वन
क्षेत्र केवल 16,888 वर्ग किमी दर्ज किया गया। उत्तर प्रदेश के मामले में, वन क्षेत्र में गिरावट का मुख्य
कारण सड़कों, सिंचाई, बिजली, पेयजल, खनन उत्पादों आदि की बढ़ती मांगों को देखते हुए गैर-वन
उद्देश्यों के लिए वन भूमि के कटाव को जिम्मेदार ठहराया गया। इसके अलावा अतिक्रमणकरियों ने भी
यहां के विशाल वन क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और इसे पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। अक्टूबर 2008 से
जनवरी 2009 तक एकत्र किए गए, उपग्रह डेटा (satellite data) की व्याख्या के आधार पर, यू.पी. 14,338
वर्ग किलोमीटर के रूप में अनुमानित किया गया है, जिसमें 1,626 वर्ग किमी बहुत घने, 4,559 वर्ग किमी
मध्यम घने और 8,153 वर्ग किमी खुले जंगल हैं।
2003 की जिलेवार वन आच्छादन की राज्य वन रिपोर्ट में 1% से कम वन क्षेत्र वाले 10 जिलों का उल्लेख
किया गया था। 2011 की रिपोर्ट में 11 जिलों का संकेत दिया गया था। राज्य के अधिकांश (32) जिलों को
2003 की रिपोर्ट में 1 से 3% वर्ग वन क्षेत्र में शामिल किया गया था। इन जिलों में से बुलंदशहर, हमीरपुर,
झांसी, सीतापुर ने वन क्षेत्र में गिरावट दर्ज की है, जबकि ज्योतिबाफुले नगर, मथुरा, रामपुर और सुल्तानपुर
ने अपने वन क्षेत्र में वृद्धि की है, और उरैया ने 2003 से कोई बदलाव नहीं दिखाया है। 2011 आगरा, इटावा
और उन्नाव ने तक अपने वृक्षों के आवरण में सुधार किया है, बिजनौर, जालौन ने गिरावट दर्ज की है।
दूसरी ओर बहराइच (12.37%), ललितपुर (11.35%), लखनऊ (11.79%) और सहारनपुर (10.06%) वर्ग में
हरे भरे वन क्षेत्र शामिल हैं। सकारात्मक रूप से लखनऊ और सहारनपुर में वन क्षेत्रों में सुधार दर्ज किया
गया है, किंतु बहराइच और ललितपुर में गिरावट दर्ज की गई है। यदि हम उत्तर प्रदेश की तुलना लखनऊ के
वनावरण से करें तो पाते हैं की लखनऊ का वनावरण 11.91% है जबकि उत्तर प्रदेश का मात्र 6% है। वन
विभाग द्वारा केंद्र प्रायोजित सहायता अनुदान योजना का क्रियान्वयन करके एनजीओ (NGO) के सहयोग
से देश को हरा-भरा करने के लिए कई परियोजनाओं को लागू किया गया है, जिनकी परियोजनाओं को
राष्ट्रीय वनीकरण पारिस्थितिकी-विकास बोर्ड (एनएईबी), भारत सरकार द्वारा स्वीकृत किया गया है।
राज्य में वन विभाग द्वारा शहरी वानिकी (urban forestry) को बढ़ावा देने के लिए एक योजना भी लागू
की जा रही है।
वन आवरण की कमी से वन संसाधनों, मिट्टी और जल संसाधनों पर और जैव-भू-रासायनिक चक्रों के
कामकाज पर स्पष्ट प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जंगलों की कमी से ग्रीनहाउस गैसों में भी वृद्धि होती है।
राष्ट्रीय वन नीति यह निर्धारित करती है कि राष्ट्रीय लक्ष्य देश के कुल भूमि क्षेत्र का कम से कम एक तिहाई
वन कवर के तहत होना चाहिए। किंतु वन संरक्षण के संदर्भ में सरकार और स्वयं सहायता समूहों की कई
महत्वकांशी योजनाओं को घातक कोरोना महामारी में बुरी तरह प्रभावित किया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार नोवल कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी ने
देशों के सामने अपने जंगलों के प्रबंधन में आने वाली चुनौतियों को और भी अधिक बढ़ा दिया है। समाज के
सबसे कमजोर वर्गों में से कुछ, विशेष रूप से ग्रामीण गरीब और स्वदेशी लोग अपनी सबसे आवश्यक
निर्वाह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों का रुख करने लगे हैं।
इससे चिंताजनक रूप से वन
प्रणालियों पर दबाव काफी बढ़ गया है। वनों के विस्तार हेतु संयुक्त राष्ट्र द्वारा वृक्षरोपण के कुछ लक्ष्य
निर्धारित किये गए थे, जिसमे भारत को प्रति वर्ष 200,000 हेक्टेयर वन और वृक्ष आवरण अतिरिक्त
जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। योजना में पहला वैश्विक वन लक्ष्य 2030 तक वन क्षेत्र को तीन प्रतिशत
बढ़ाने का रखा गया है। किंतु कोरोना महामारी ने जनहित के इस लक्ष्य को प्रभावित कर दिया है।
संदर्भ
https://bit.ly/3jjvNvA
https://bit.ly/3sX1hej
https://bit.ly/2ZmjOoa
https://bit.ly/3gzfdGm
https://bit.ly/3kuFXsK
https://brainly.in/question/1803826
https://bit.ly/3zkP5Gx
चित्र संदर्भ
1. उष्णकटिबंधीय जंगलों का एक चित्रण (utkaltoday)
2. उष्णकटिबंधीय वर्षा वन, उत्तर पूर्वी भारत का एक चित्रण (flickr)
3. जंगलों के विनाश को संदर्भित करता एक चित्रण (ucsdnews)
4. जंगलों के निवासियों का एक चित्रण (masterfile)
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