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भारतीय अर्थव्यवस्था को मुख्य रूप से अनौपचारिक या असंगठित श्रम रोजगार के एक विशाल बहुमत के अस्तित्व से पहचाना जाता है। या यूं कहें कि, अनौपचारिक या असंगठित श्रम रोजगार भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषता है। भारत की 94 प्रतिशत से अधिक कामकाजी आबादी असंगठित क्षेत्र का हिस्सा है। असंगठित क्षेत्र उस श्रम रोजगार को संदर्भित करता है, जो सरकार के साथ पंजीकृत नहीं हैं, तथा इस क्षेत्र में रोजगार की शर्तें भी सरकार द्वारा तय नहीं की जाती हैं। असंगठित क्षेत्र की उत्पादकता कम होती है और उसमें शामिल श्रमिकों का वेतन अपेक्षाकृत बहुत कम होता है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने असंगठित श्रम बल को व्यवसाय, रोजगार की प्रकृति, विशेष रूप से व्यथित श्रेणियों और सेवा श्रेणियों के संदर्भ में चार समूहों में वर्गीकृत किया है। व्यवसाय के आधार पर छोटे और सीमांत किसानों, भूमिहीन खेतिहर मजदूरों, फसल काटने वाले, मछुआरे, पशुपालक, लेबलिंग (Labeling) और पैकिंग (Packing) में संलग्न लोगों, भवन निर्माण में शामिल लोग, चमड़े का काम करने वाले, बुनकर, कारीगर, नमक कर्मचारी, ईंट भट्टों और पत्थर की खदानों तथा तेल मिलों (Mills) आदि में काम करने वाले श्रमिकों को असंगठित क्षेत्र में शामिल किया गया है। रोजगार की प्रकृति के आधार पर कृषि मजदूर, बंधुआ मजदूर, प्रवासी श्रमिक, अनुबंध और आकस्मिक मजदूर आदि को असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत रखा गया है। इसी प्रकार से विशेष रूप से व्यथित श्रेणी के आधार पर शराब बनाने वाले, सफाई करने वाले, भार ढोने वाले, पशु चालित वाहनों के चालक, सामान लादने और उतारने में शामिल लोग आदि असंगठित क्षेत्र में शामिल किये गये हैं। इसी प्रकार से सेवा श्रेणी के तहत घरेलू कामगार, मछुआरे, नाई, सब्जी और फल विक्रेता, समाचार पत्र विक्रेता आदि को असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत रखा गया है। इन चार श्रेणियों के अलावा, असंगठित श्रम बल का एक बड़ा वर्ग मोची, हैंडीक्राफ्ट (Handicraft) कारीगर, हैंडलूम (Handloom) बुनकर, महिला दर्जी, शारीरिक रूप से विकलांग स्वरोजगार वाले व्यक्ति, रिक्शा मजदूर, ऑटो (Auto) चालक, सेरीकल्चर (Sericulture) कार्यकर्ता, बढ़ई, चमड़ा कारखाने में कार्य करने वाले श्रमिक, पावर लूम (Power loom) श्रमिक आदि के रूप में मौजूद है।
असंगठित क्षेत्र में शामिल श्रमिकों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। भारत के श्रम मंत्रालय ने प्रवासी, स्थायी या बंधुआ श्रमिकों और बाल श्रमिकों की महत्वपूर्ण समस्याओं की पहचान की है। प्रवासी श्रमिकों की बात करें तो, भारत में प्रवासी मजदूरों को दो व्यापक समूहों में बांटा गया है। इनमें से एक समूह जहां, विदेशों में अस्थायी रूप से काम करने के लिए पलायन करते हैं, तो वहीं दूसरा समूह मौसमी या काम के उपलब्ध होने के आधार पर घरेलू रूप से प्रवास करता है। बेहतर काम की तलाश में हाल के दशकों में बांग्लादेश और नेपाल से भारत में लोगों का पर्याप्त प्रवाह हुआ है। ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (Overseas Development Institute) के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार प्रवासी श्रमिक अक्सर अपनी यात्रा के दौरान, गंतव्य स्थान पर और घर वापस लौटते समय उत्पीड़न, हिंसा और भेदभाव का शिकार होते हैं। बंधुआ श्रम की बात करें तो, यह श्रम नियोक्ता और श्रमिक के बीच उस संबंध को संदर्भित करता है, जिसके कारण कोई श्रमिक, किसी नियोक्ता के अंतर्गत कार्य करने के लिए बाध्य होता है। श्रमिक के बकाया ऋण की ब्याज दरें अक्सर इतनी अधिक होती हैं कि, बंधुआ श्रम बहुत लंबे समय तक चलता है। इसी प्रकार से बाल श्रम को देखें तो, 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 101 लाख है। गरीबी, स्कूलों की कमी, खराब शिक्षा के बुनियादी ढांचे और असंगठित अर्थव्यवस्था की वृद्धि को भारत में बाल श्रम का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। परंपरागत रूप से, संघीय और राज्य स्तर पर भारत सरकार ने श्रमिकों के लिए उच्च स्तर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय श्रम कानून निर्धारित किया है। भारत में कई श्रम कानून हैं, जो श्रमिकों के साथ होने वाले भेदभाव और बाल श्रम को रोकने, सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम वेतन, संगठन बनाने के अधिकार आदि से सम्बंधित हैं। इन कानूनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, व्यापार संघ अधिनियम, 1926, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, मजदूरी का भुगतान अधिनियम, 1936, बोनस (Bonus) के भुगतान का अधिनियम, 1965, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948, कारखानों अधिनियम, 1948 आदि शामिल हैं, जो श्रमिकों के वेतन, सामाजिक सुरक्षा, काम करने के घंटों, स्थिति, सेवा, रोजगार आदि से सम्बंधित हैं।
वर्तमान समय में कोरोना महामारी के कारण जहां हर क्षेत्र प्रभावित है, वहीं असंगठित क्षेत्र भी इससे बच नहीं पाया है। देश में लगायी गयी तालाबंदी के कारण भारतीय प्रवासी श्रमिकों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। तालाबंदी के चलते लाखों प्रवासी श्रमिकों ने रोजगार के नुकसान, भोजन की कमी और अनिश्चित भविष्य के संकट का सामना किया। परिवहन का कोई साधन उपलब्ध न होने से हजारों प्रवासी श्रमिकों को पैदल अपने घर वापस जाना पड़ा। इस दौरान भुखमरी, सड़क और रेल दुर्घटनाओं, पुलिस की बर्बरता, समय पर चिकित्सा देखभाल न मिलने आदि कारणों से कई प्रवासी श्रमिकों की मौतें भी हुई। जवाब में, केंद्र और राज्य सरकारों ने उनकी मदद के लिए कई उपाय किए और उनके लिए परिवहन की व्यवस्था भी की। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ग्लोबल वेज रिपोर्ट (Global Wage Report) के अनुसार, हाल ही में किये गये एक अध्ययन के साक्ष्य बताते हैं कि, भारत में कोरोना महामारी की वजह से की गयी तालाबंदी के कारण औपचारिक श्रमिकों की मजदूरी में 3.6 प्रतिशत की कटौती की गई, जबकि अनौपचारिक श्रमिकों की मजदूरी में 22.6 प्रतिशत की भारी गिरावट आयी।
अध्ययन के अनुसार 24 मार्च, 2020 और 3 मई, 2020 के बीच की अवधि में सभी श्रमिकों के लिए कुल वेतन हानि 86,448 करोड़ थी, जिसमें औपचारिक श्रमिकों का वेतन घाटा 5,326 करोड़ जबकि, अनौपचारिक श्रमिकों, का वेतन घाटा 81,122 करोड़ था। इस प्रकार अनौपचारिक श्रमिकों को औपचारिक श्रमिकों की तुलना में अधिक नुकसान हुआ। अनिश्चित आर्थिक स्थिति का सामना करने के लिए अनौपचारिक श्रम बाजारों की व्यापकता को सामाजिक सुरक्षा ढांचे में बड़े बदलाव की आवश्यकता होगी।
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