ज्ञान को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने के लिये अक्सर भाषा या ध्वनि का उपयोग किया जाता है, जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के कान में पहुंचकर शून्य में विलिन हो जाता है। भाषा या ध्वनि का प्रभाव मनुष्य की स्मृति में सुरक्षित रहता है किंतु कालांतर में यह भी धूमिल होने लगता है। परिणामत: ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसलिये ज्ञान-विज्ञान और साहित्य से संबंधित भावों और विचारों को सुरक्षित रखने के लिये ध्वनि चिन्हों का अविष्कार किया गया जिन्हें लिपि की संज्ञा दी गई। भारत में लिपि कला का विकास बहुत प्रचीन है। परंतु कुछ मतों के अनुसार प्रारंभिक भारत में लेखन की प्रथा उतनी विकसित नहीं थी जितनी की चीन और जापान या इस्लामी दुनिया के लोगों के बीच थी। परंतु सिंधु घाटी की खुदाई से प्राप्त ब्राह्मी लिपि के प्राचीनतम साक्ष्य बताते हैं कि भारत में लिपि कला का विकास सदियों पुराना है। प्राचीन काल से ही ब्रह्मा और उनकी पत्नी सरस्वती को हमेशा एक पुस्तक के साथ मूर्तिकला में चित्रित किया जाता आ रहा है। पाणिनि ने भी लिपि शब्द का उपयोग आलेख को दर्शाने के लिए किया। बौद्ध ग्रंथ के जातक (Jatakas) और विनय-पिटक (Vinaya-Pitaka) में लेखन के कई स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। मेगस्थनीज (Megasthenes) का कहना है कि भारतीय लेखन जानते हैं, लेकिन उनके समकालीन खोजकर्ताओं ने कहा कि भारतीय लेखन नहीं जानते हैं।
हालांकि कुछ विद्वानों ने प्राचीन भारत में लेखन के ऐतिहासिक हड़प्पा लिपि (Harappan script) के प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। उन्होनें महास्थान (Mahasthan) और सोहगौरा (Sohgaura) शिलालेख के प्रमाण प्रस्तावित किये है जोकि चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल के हैं। लखनऊ के संग्रहालय में भी एक प्राचीन शिलालेख रखा गया है जो ब्राह्मी लिपि में है। ये शिलालेख शक युग (Saka) के नौंवे वर्ष में लिखा गया था। इसमें एक महिला, गाहपाला (Gahapala), ग्रहमित्र (Grahamitra) की बेटी तथा एकरा दला (Ekra Dala) की पत्नी के द्वारा एक उपहार को दर्शाया गया है। ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं और इन मतों को दो सिद्धांतों में वर्गीकृत किया गया, पहला स्वदेशी सिद्धांत और दूसरा विदेशी व्युत्पत्ति का सिद्धांत।
विदेशी व्युत्पत्ति सिद्धांत
कुछ विद्वान मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था। जेम्स प्रिंसेप (ames Princep) के अनुसार ब्राह्मी की उत्पत्ति ग्रीक (Greek) से हुई, जबकि फाल्क (Falk) ने सुझाव दिया कि ब्राह्मी की उत्पत्ति ग्रीक से हुई है लेकिन ये खरोष्ठी (Kharoshti) पर आधारित है। अल्फ्रेड म्यूलर (Ottfried Miller) का मनना था कि ब्राह्मी को सिकंदर महान के आक्रमण (Alexander the Great) के बाद ग्रीक से प्राप्त किया गया था। बहुत से विद्वान् मानते हैं कि किसी सेमेटिक (Semitic) वर्णमाला के आधार पर ही ब्राह्मी संकेतों का निर्माण हुआ है। लेकिन इसमें भी मतभेद हैं। कुछ लोग उत्तरी सेमेटिक को ब्राह्मी का आधार मानते हैं, कुछ दक्षिणी सेमेटिक को, और कुछ फिनीशियन (Phoenician) लिपि को। कुछ विद्वानों का कहना है कि ब्राह्मी की उत्पत्ति दक्षिण अरबी हिमायतीरी (Arabic Himyaritic) से हुई है। परन्तु कई देशी विद्वानों ने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ब्राह्मी लिपि का विकास भारत में स्वतंत्र रीति से हुआ।
स्वदेशी सिद्धांत
हमने पहले ही उल्लेख किया है कि भारत में लिपि कला का ज्ञान बहुत प्रचीन है। मोहनजोदडो तथा हड़प्पा की खुदाई से इसके कतिपय प्रमाण प्राप्त हुये हैं। अलेक्जेंडर कनिंघम (Alexander Cunningham) भी मानते हैं कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण भारतवासियों ने ही किया है। ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। हमारे यहाँ भी 'ब्रह्मा' को लिपि का जन्मदाता माना जाता रहा है, और इसीलिए हमारे देश की इस प्राचीन लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा है। सरस्वती को भी लेखन और ब्राह्मी से जुड़ी देवी माना जाता है। बौद्ध ग्रंथ “ललितविस्तर” (lalitvistara) के 10वें अध्याय में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी'। इन 64 लिपि-नामों में से अधिकांश नाम कल्पित जान पड़ते हैं। जैनों के “पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र” (pannavanasutta and samavayangasutta) में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम ब्राह्मी का है। एक चीनी बौद्ध विश्वकोश "फा-शु-लिन्" (fa yuan chu lin) में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें बताता गया है कि लिखने की कला यानी की लिपि, बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है। इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ।
ब्राह्मी वर्णों का आविष्कार भारतीय लोगों की प्रतिभा द्वारा किया गया था जो भाषा विज्ञान में प्राचीन काल के अन्य लोगों से बहुत आगे थे और जिन्होंने वर्णमाला के एक निश्चित ज्ञान को शामिल करते हुए विशाल वैदिक साहित्य का विकास किया। ब्राह्मी लिपि सिंधु लिपि के बाद भारत में विकसित की गई प्रारंभिक लेखन प्रणाली है जो सबसे प्रभावशाली लेखन प्रणालियों में से एक है। आज जितनी भी भारतीय लिपियाँ पायी जाती हैं, वे ब्राह्मी लिपि से ही प्राप्त हुई हैं। दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशिया में पाई जाने वाली कई सौ लिपियों की उत्पत्ति भी ब्राह्मी से ही हुई है। भारत 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान सेमिटिक लिपि के सम्पर्क में तब आया जब फारसी अकेमेनिड साम्राज्य (Achaemenid empire) ने सिंधु घाटी (वर्तमान अफगानिस्तान (Afghanistan), पाकिस्तान (Pakistan) और उत्तर-पश्चिमी भारत का हिस्सा) पर अपना अधिकार जमाया। उस समय अकेमेनिड साम्राज्य की प्रशासनिक भाषा अरामाइक (Aramaic) थी तथा आधिकारिक रिकॉर्डों (Records) को उत्तर सेमिटिक लिपि का उपयोग करके लिखा गया था। इस समय इस क्षेत्र में एक और लिपि विकसित हुई जिसे खरोष्ठी के नाम से जाना गया जो सिंधु घाटी क्षेत्र की प्रमुख लिपि रही। उस समय ब्राह्मी लिपि का उपयोग भारत के बाकी हिस्सों और दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों में किया गया था। यद्यपि हम यह कह सकते हैं कि खरोष्ठी सेमिटिक का एक रूप है तथा ब्राह्मी और सेमिटिक के बीच कोई भी संबंध स्पष्ट नहीं है।
एक प्रोफेसर के. राजन द्वारा बताया गया कि तमिलनाडु में कई स्थलों के भित्तिचित्रों में ब्राह्मी लिपि के निशान पाये गये हैं। परंतु ये कहना की ब्राह्मी वास्तव में भित्तिचित्रों से उत्पन्न होती है, ये थोड़ा कठिन है, लेकिन दोनों प्रणालियों के बीच संबंध से इंकार नहीं किया जा सकता है। कुछ लोगों कहना है कि ब्राह्मी सिंधु लिपि से निकली है, यह सिंधु सभ्यता के दौरान एक लेखन प्रणाली है जो इस सभ्यता के अंत में उपयोग में नहीं लायी गई। इस लिपि की प्राचीनता को मौर्य राजवंश से देखा जा सकता है। इसके उदाहरण उत्तर और मध्य भारत में फैले भारतीय सम्राट अशोक (268 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व) के शिलालेख हैं जिन पर ब्राह्मी लिपि का उपयोग किया गया था। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले ब्राह्मी उत्पन्न होने की धारणा को बल तब मिला जब श्रीलंका के अनुराधापुरा में काम कर रहे पुरातत्वविदों ने 450-350 ईसा पूर्व की अवधि के मिट्टी के बर्तनों पर ब्राह्मी शिलालेखों को पुनः प्राप्त किया। इन शिलालेखों की भाषा उत्तर भारतीय प्राकृत तथा इंडो-आर्यन (Indo-Aryan) भाषा है।
धीरे- धीरे इसका विस्तार बढ़ता गया। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ब्राह्मी का विस्तार लगभग संपूर्ण भारत में था। इसे तत्कालीन राष्ट्रीय लिपि कहा जाने लगा। तत्पश्चात प्रथम शताब्दी में कुशाण ब्राह्मी के रूप में इसका विकास हुआ। इसके बाद इस शैली से गुप्त ब्राह्मी विकसित हुई, जिसका फैलाव समस्त उत्तरी भारत में था। उत्तर और मध्य भारत में पाए जाने वाले ब्राह्मी के अधिकांश उदाहरण प्राकृत भाषा का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि दक्षिण भारत में, विशेषकर तमिलनाडु में, ब्राह्मी शिलालेख तमिल भाषा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो द्रविड़ परिवार से संबंधित है, जिसमें संस्कृत या प्राकृत जैसी इंडो-आर्यन भाषाओं का कोई भाषाई संबद्धता नहीं है। विकास के अपने लंबे इतिहास के दौरान ब्राह्मी लिपि से कई लिपियों की उत्पत्ति हुई। ब्राह्मी से प्राप्त कई लिपियों को अलग-अलग भाषाओं के अनुकूल बनाया गया। ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं- गुरुमुखी, (Gurmukhi), सिंहली (Sinhalese,) तेलुगु (Telugu,), थाई (Thai, ), तिब्बती (Tibetan), जावानीज़ (Javanese) आदि।
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