इस वर्ष कोविड -19 से न केवल एक देश बल्कि पूरा विश्व बहुत गम्भीर रूप से प्रभावित हुआ है। इस दौरान लोगों ने शरिरिक, मानसिक, आर्थिक तथा मानसिक अस्थिरता का सामना किया। हालाँकि कई देश कोरोना के संक्रमण से काफी हद तक उभरे हैं किंतु वर्तमान समय में भी यह स्थिति पूर्ण रूप से सामान्य नहीं हुई है। कोरोना वायरस के चलते कई देशों की सरकारों ने पूरे देश में सम्पूर्ण लॉक-डाउन घोषित किया। जिसके अंतर्गत लोग घरों से बाहर नहीं निकल सकते और साथ ही किसी भी वस्तु को छूने से पूर्व विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता थी। इस लॉक-डाउन से जहाँ एक ओर लोगों की दिनचर्या पूर्ण रूप से परिवर्तित हुई, वहीं दूसरी ओर हमारे वातावरण पर इसके कुछ सकारात्मक प्रभाव देखे गए। वायु और ध्वनि प्रदूषण में कमी, स्वच्छ नदियां व अन्य जल-स्त्रोत इत्यादि। मार्च 2020 में देश में कोविड–19 के बढते मामलों को देखते हुए भारत सरकार ने भी सम्पूर्ण लॉक-डाउन की घोषणा की। इस दौरान बिजली की खपत में सकारात्मक रूप से कमी हुई है। हालाँकि भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में ऊर्जा की खपत में कमी अधिक नहीं थी, जो देश के सबसे गरीब क्षेत्रों में से एक हैं। नकारात्मक प्रभावों की बात करें तो लोगों की आवाजाही घटने से बाज़ार, दुकाने, होटल एवम् रेस्तरां, फक्ट्रियों, गाड़ियाँ इत्यादि के बंद होने से कारीगरों और कर्मचारियों की आमदनी पर गहरा झटका लगा है। व्यापार और व्यवसाय न चलने की वजह से बिजली के उपभोग में लगभग 20% से 40% की गिरावट आँकी गई है। यह गिरावट मई से पूर्व तक ही देखी गई। मार्च और अप्रैल 2020 में भारत की बिजली खपत क्रमश: 9.24% और 22.75% रही, जो मई में घटकर 14.16% तक रह गई थी, साथ ही अप्रैल की तुलना में मई में ऊर्जा की औद्योगिक मांग से ज्यादा आवासीय मांग में वृद्धि हुई। लॉकडाउन के शुरू होने के ठीक बाद दो सप्ताह में कोयला आधारित बिजली उत्पादन में 26% की कमी आई है किंतु धीरे-धीरे लॉकडाउन में ढील होने के साथ ऊर्जा की खपत में कमी में सुधार हुआ।
ऊर्जा की खपत को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है जनसंख्या। वर्तमान समय में प्रत्येक 8 घंटे में लगभग 60,000 शिशु जन्म लेते हैं। यदि स्थिति ऐसी ही रही तो वर्ष 2050 तक ऊर्जा के 50 प्रतिशत से अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ी आबादि वाला देश है फिर भी बहुत कम ऊर्जा का उपभोग करता है। आँकड़ों की बात करें तो भारत विश्व की कुल ऊर्जा का केवल 5 प्रतिशत ही उपयोग करता है, संयुक्त राज्य अमेरिका 20 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करता है और दुनिया की 19 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। चीन विश्व का 33 प्रतिशत ऊर्जा उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार जनसंख़्या और ऊर्जा की खपत परस्पर संबंधित हैं। मानव ऊर्जा कि आपूर्ति के लिए जीवाश्म ईंधनों क अंधाधुन उपभोग करता है और साथ ही वनों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming), जल-स्त्रोतों के प्रदूषण व अम्लीय वर्षा आदि को बढावा देता है।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संस्था (International Energy Agency (IEA)) के अनुसार 2018 में भारत की ऊर्जा मांग वैश्विक विकास दर से आगे निकल गई है। वैश्विक अर्थव्यवस्था द्वारा उच्च ऊर्जा की मांग को 2018 में 3.7 प्रतिशत तक बढ़ाया गया था, जो 2010 के बाद 3.5 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि की तुलना में अधिक थी। जिसमें चीन, अमेरिका और भारत ने मिलकर लगभग 70 प्रतिशत का योगदान दिया। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संस्था की वैश्विक ऊर्जा और CO2 स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, भारत की प्राथमिक ऊर्जा की मांग में 4 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है। जो कि वैश्विक मांग में वृद्धि का 11 प्रतिशत थी। तुलनात्मक रूप से, 2018 में दुनिया भर में ऊर्जा की खपत में 2.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह 2010 के बाद से विकास की औसत दर का लगभग दोगुना है। वैश्विक ऊर्जा मांग में वृद्धि एक मजबूत अर्थव्यवस्था के साथ-साथ दुनिया के कुछ हिस्सों में उच्च ताप और शीतलन का कारण भी है। भारतीय तेल की मांग 2017 की तुलना में 2018 में 5 प्रतिशत बढ़ी, 2018 में तेल की कीमतों में तेज वृद्धि, मुद्रा में गिरावट से बढ़ी। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संस्था ने कहा, तेजी से औद्योगिकीकरण और वाहनों में वृद्धि की गति के कारण वायु प्रदुषण एक गंभीर समस्या बन गया है और इस समस्या से निपटने के लिए नीतियां बनाई जा रही हैं। लेकिन जीवाश्म ईंधन की मांग में वृद्धि के बावजूद, भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत के 40 प्रतिशत से कम है। भारत में उत्सर्जन में 4.8 प्रतिशत, या 105 मिलियन टन की वृद्धि देखी गई है, जो कि विकास और परिवहन और उद्योग जैसे अन्य क्षेत्रों के बीच समान रूप से विभाजित है। अधिक ऊर्जा खपत के कारण, वैश्विक ऊर्जा से संबंधित CO2 उत्सर्जन बढ़कर 2018 में CO2 का 33.1 गीगाटन (Gt) हो गया है। यह 2017 में उत्सर्जन की तुलना में 1.7 प्रतिशत अधिक है। कोयले से होने वाला बिजली उत्पादन इसमें सबसे बड़ा कारण है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या प्रभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व कि कुल आबादी 9 अरब तक होने की संभावना है। जनसंख्या में इतनी तीव्र गति से वृद्धि के मुख्य कारणों में सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार, चिकित्सा प्रगति, स्वच्छता, खाद्य उपलब्धता, खेती का विस्तार और व्यापार और परिवहन का विकास और कृषि उत्पादकता में वृद्धि आदि हैं। साथ ही उच्च गुणवत्ता वाले ऊर्जा स्त्रोतों की उपलब्धता जनसंख्या वृद्धि को और गति प्रदान करती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ऊर्जा की खपत और जनसंख्या एक दूसरे को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। जनसंख्या वृद्धि एक गंभीर समस्या है जिसका निवारण पूरे विश्व को खोजने की आवश्यकता है। विशेषज्ञों की मानें तो परिवार नियोजन के प्रति जनता को जागरूक करके और गर्भ निरोधकों को शुरुआती बिंदुओं के रूप में उपलब्ध कराकर इस समस्या से निपटा जा सकता है और भविष्य के लिए संसाधनों को संरक्षित किया जा सकता है। मात्र जनसंख्या वृद्धि की दर को कम करने से हमारी ऊर्जा खपत की समस्या का समाधान नहीं होगा। विशेषज्ञों के अनुसार हमें ऊर्जा के अधिक कुशल स्रोतों को भी ढूंढने की आवश्यकता है। देश की सरकारों को ऊर्जा संसाधनों के अत्यधिक उपभोग को रोकने के लिए कड़े नियमों को लागू करना चहिए ताकि वर्तमान उपभोग पर कटौती की जा सके। घरों और व्यावसायिक स्थलों में कम ऊर्जा खपत करने वाले उपकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए। फ्लोरोसेंट लाइट बल्ब (Fluorescent Bulb) या प्रोग्रामयोग्य थर्मोस्टैट्स (Programmable Thermostats) आदि का उपयोग ऐसे कदम हैं, जो ऊर्जा संरक्षण के छोटे क़दम के रूप में अपनाए जा सकते हैं।
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