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हरित क्रांति ने कैसे भारत में कृषि परिदृश्य को बदल दिया, और क्या रहे इसके परिणाम?

लखनऊ

 05-08-2024 09:33 AM
डीएनए

भारत में हरित क्रांति, कृषि में एक महत्वपूर्ण अवधि को चिह्नित करती है, जिसके तहत उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए आधुनिक उपकरणों और तकनीकों को अपनाया गया। हरित क्रांति द्वारा उच्च उपज वाले किस्म के बीज, ट्रैक्टर, सिंचाई प्रणाली, कीटनाशक और उर्वरक जैसे तरीकों की शुरुआत के माध्यम से खेती को एक औद्योगिक प्रणाली में बदल दिया गया। 1967 से पहले, खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकार और किसानों का ध्यान मुख्य रूप से कृषि भूमि के विस्तार पर था। लेकिन, खाद्य उत्पादन की तुलना में तेज़ी से जनसंख्या बढ़ने के कारण, पैदावार बढ़ाने के लिए तत्काल उपायों की आवश्यकता महसूस होने लगी, जिससे हरित क्रांति का उदय हुआ।
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति का नेतृत्व नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug), जिन्हें दुनिया भर में 'हरित क्रांति के जनक' के रूप में जाना जाता है, द्वारा किया गया। उन्हें 1970 में गेहूं की उच्च उपज वाली किस्मों (HYV) को विकसित करने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार भी प्रदान किया गया। भारत में, एम एस स्वामीनाथन को 'हरित क्रांति के जनक' के रूप में जाना जाता है। उन्होंने विशेष रूप से गरीब किसानों के बीच गेहूं और चावल की उच्च उपज वाली किस्मों को अपनाने का नेतृत्व किया। इस क्रांति ने नए, अधिक उपज देने वाले बीज पेश करके खाद्य उत्पादन, विशेषकर गेहूं और चावल की कृषि को बढ़ावा दिया। इससे मेक्सिको और भारत जैसे देशों में बड़ा बदलाव आया।
हरित क्रांति, जिसे तीसरी कृषि क्रांति भी कहा जाता है, एक ऐसा समय था जब खेती के लिए नए तरीके अपना कर फसलों को बेहतर बनाया जाने लगा। हरित क्रांति की शुरुआत 1900 के प्रारंभ में अमीर देशों में हुई और फिर 1980 के दशक के अंत तक यह पूरी दुनिया में फैल गई। हरित क्रांति से किसानों को अपने खेतों से अधिक फसल उगाने में मदद मिली। भारत में हरित क्रांति से खाद्यान्न उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, विशेषकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में।
भारत में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति के दौरान कृषि में निम्नलिखित तकनीकों की शुरुआत हुई, जिनका उपयोग करके भारतीय कृषि को एक आधुनिक औद्योगिक प्रणाली में बदल दिया गया:
⚘ अधिक उपज देने वाली किस्म (HYV) के बीज।
⚘ यंत्रीकृत कृषि उपकरण
⚘ सिंचाई सुविधाओं में सुधार।
⚘ कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग।

भारत में हरित क्रांति के उद्देश्य:
1. प्रारंभ में, इसका उद्देश्य, खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देकर दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत की भूख की समस्याओं से निपटना था।
2. इसका दीर्घकालिक उद्देश्य, ग्रामीण क्षेत्रों में खेती के तरीकों को उन्नत करना था, जिससे ग्रामीण और औद्योगिक विकास, बुनियादी ढांचे और कच्चे माल जैसे क्षेत्रों में समग्र आधुनिकीकरण हो सके।
3. इसका उद्देश्य कृषि और औद्योगिक श्रमिकों दोनों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करना भी था।
4. एक अन्य लक्ष्य पौधों की प्रबल किस्मों को विकसित करना था जो कठोर जलवायु में पनपने और बीमारियों का प्रतिरोध करने में सक्षम हों।
भारत में हरित क्रांति के घटक:
1. अधिक उपज देने वाले बीज (High-Yielding Variety Seeds( HYV)): ये बीज पारंपरिक बीजों की तुलना में तेज़ी से बढ़ते हैं, जिससे किसानों को अधिक बार फ़सल उगाने की अनुमति मिलती है। उन्हें अधिक श्रमिकों की भी आवश्यकता होती है, जिससे रोज़गार के अधिक अवसर उत्पन्न होते हैं।
2. सिंचाई: इसके लिए फ़सलों की नियमित रूप से सिंचाई महत्वपूर्ण है। इन बीजों के साथ किसान केवल बारिश पर निर्भर नहीं रह सकते, इसलिए अपनी फ़सलों को पर्याप्त पानी मिलना सुनिश्चित करने के लिए किसान सिंचाई का उपयोग करते हैं। उचित सिंचाई से फ़सल की पैदावार 80% तक बढ़ सकती है।
3. रासायनिक उर्वरक: समय के साथ मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है, और उच्च उपज वाले बीजों को अच्छी तरह से विकसित होने के लिए बहुत सारे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। किसान अपनी फ़सलों को आवश्यक पोषक तत्व देने के लिए रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करते हैं।
4. भूमि समेकन: हरित क्रांति से पहले, भूमि स्वामित्व किसानों के लिए एक बड़ी समस्या थी। हरित क्रांति के बाद से ये मामला सुलझ गया।
5. भूमि सुधार: अतीत में, ज़मींदारों द्वारा किसानों के साथ अक्सर दुर्व्यवहार किया जाता था। हरित क्रांति द्वारा ऐसे कानून पेश किए गए जिन्होंने किसानों को शोषण से बचाने में मदद की।
भारत में हरित क्रांति की विशेषताएं:
⚘ उच्च उपज देने वाले बीजों (HYV) की शुरूआत ने भारतीय कृषि में क्रांति ला दी। इसके लिए शुरुआत में विशेषकर गेहूं की खेती के लिए तमिलनाडु और पंजाब जैसे अच्छी सिंचाई वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
⚘ बाद में इसका विस्तार अन्य राज्यों तक किया गया और दूसरे चरण के दौरान इसमें गेहूं के अलावा अन्य फसलें भी शामिल की गईं।
⚘ हालाँकि उच्च जल आवश्यकताओं के कारण HYV बीजों की सफलता के लिए उचित सिंचाई महत्वपूर्ण थी।
⚘ हरित क्रांति के दौरान मुख्य रूप से नकदी फ़सलों के बजाय गेहूं और चावल जैसे खाद्यान्न उगाने पर ज़ोर दिया गया।
⚘ फ़सल उत्पादकता बढ़ाने और नुकसान कम करने के लिए उर्वरकों, खरपतवारनाशकों और कीटनाशकों का उपयोग किया जाने लगा।
⚘ ट्रैक्टर और हार्वेस्टर जैसी मशीनरी और प्रौद्योगिकी की शुरूआत के माध्यम से व्यावसायिक खेती को बढ़ावा मिला।
भारत में हरित क्रांति के सकारात्मक प्रभाव :
⚘ हरित क्रांति ने कृषि उत्पादन में वृद्धि की, विशेषकर गेहूं जैसे खाद्यान्नों में।
⚘ योजना की शुरुआत में, गेहूं का उत्पादन बढ़कर 55 मिलियन टन हो गया।
⚘ गेहूं की प्रति हेक्टेयर उपज 850 किलोग्राम से बढ़कर 2281 किलोग्राम हो गई।
⚘ भारत खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बना, आयात पर निर्भरता कम हुई।
⚘ देश ने कृषि उपज का निर्यात भी शुरू कर दिया।
⚘ आशंकाओं के विपरीत, हरित क्रांति से ग्रामीण रोज़गार में वृद्धि हुई।
⚘ परिवहन, खाद्य प्रसंस्करण आदि जैसे तृतीयक उद्योगों में भी रोज़गार के अवसर उत्पन्न हुए।
⚘ किसानों की आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
भारत में हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभाव:
⚘ अपर्याप्त सिंचाई, खेतों के सिकुड़ते आकार और नई प्रौद्योगिकियों को अपर्याप्त रूप से एवं ठीक प्रकार से न अपनाने जैसे मुद्दों के कारण कृषि विकास धीमा हो गया।
⚘ हरित क्रांति के लाभ उन क्षेत्रों में केंद्रित होने से क्षेत्रीय असमानताएं उभरीं जहां नई तकनीक का उपयोग किया गया, जिससे मुख्य रूप से गेहूं उगाने वाले क्षेत्रों को लाभ हुआ।
⚘ बड़े और छोटे पैमाने के किसानों के बीच असमानताएँ बढ़ गईं।
⚘ नई प्रौद्योगिकियों के लिए आवश्यक उच्च निवेश के कारण बड़े किसानों को लाभ पहुंचा, जिससे उनकी आय बढ़ गई लेकिन छोटे किसानों से ⚘ भूमि अधिग्रहण के मामले सामने आने लगे।
हरित क्रांति की सफलता:
⚘ भारत में हरित क्रांति दो चरणों में सामने आई:
1. चरण 1 (1960 के दशक के मध्य से 1970 के के दशक मध्य तक): प्रारंभ में, अधिक उपज देने वाले बीजों का उपयोग मुख्य रूप से पंजाब, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे धनी राज्यों में किया गया। मुख्य रूप से, HYV बीजों का लाभ गेहूं की खेती पर केंद्रित क्षेत्रों में देखा गया।
2. चरण 2 (1970 के दशक के मध्य से 1980 के दशक के मध्य तक): इस चरण में, HYV तकनीक अधिक व्यापक हो गई, कई राज्यों तक इसकी पहुंच हो गई और इससे व्यापक श्रेणी की फ़सलों को लाभ हुआ।
भारत में 'भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान' (The Indian Agricultural Research Institute (IARI)), जिसे पूसा संस्थान के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख कृषि अनुसंधान संस्थान है। इसकी स्थापना 1905 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न (Lord Curzon) द्वारा 'इंपीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च' (Imperial Institute of Agricultural Research) के रूप में की गई थी, और बाद में भारतीय वैज्ञानिक डॉ. बिराजा शर्मा पूसा के सम्मान में, 1969 में, इसका नाम बदलकर पूसा इंस्टीट्यूट कर दिया गया। इस संस्थान की स्थापना भारत में कृषि की उत्पादकता और स्थिरता में सुधार पर ध्यान देने के साथ कृषि, वानिकी और पशुपालन में अनुसंधान को बढ़ावा देने और संचालित करने के उद्देश्य से की गई थी। इस संस्थान ने देश में आधुनिक कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह संस्थान पादप प्रजनन, आनुवंशिकी, पादप शरीर क्रिया विज्ञान, कीट विज्ञान और कृषि इंजीनियरिंग सहित कृषि के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान में अपने योगदान के लिए जाना जाता है। संस्थान द्वारा कृषि और संबंधित क्षेत्रों में स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं।
पूसा के कार्य:
अनुसंधान का संचालन: IARI का प्रमुख कार्य कृषि के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान करना है, जिसमें पादप प्रजनन, आनुवंशिकी, पादप शरीर क्रिया विज्ञान, कीट विज्ञान और कृषि इंजीनियरिंग शामिल है । संस्थान के शोध का उद्देश्य भारत में कृषि की उत्पादकता और स्थिरता में सुधार करना है।
शिक्षा प्रदान करना: IARI द्वारा कृषि और संबंधित क्षेत्रों में स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट कार्यक्रम चलाए जाते हैं। ये कार्यक्रम छात्रों को कृषि उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल प्रदान करते हैं।
विस्तार सेवाएँ: IARI, कृषि क्षेत्र में, किसानों और अन्य हितधारकों को विस्तार सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें कृषि में सर्वोत्तम प्रथाओं पर सलाह और मार्गदर्शन प्रदान करना और कृषि उत्पादकता और स्थिरता में सुधार के लिए समुदायों के साथ काम करना शामिल है।
अन्य संस्थानों के साथ सहयोग: IARI, ज्ञान और विशेषज्ञता का आदान-प्रदान करने और कृषि में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य संस्थानों और संगठनों के साथ सहयोग करता है।
आइए अब बात करते हैं आनुवंशिक रूप से संशोधित फ़सलों की, जिनकी एक प्रमुख समस्या यह है कि उनके बीजों को दोबारा नहीं लगाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार उत्पन्न बीजों में मूल बीज के समान आनुवंशिक स्थिरता नहीं होती। आनुवंशिक रूप से संशोधित गेहूं, वह गेहूं है जिसे जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके इसके जीनोम में प्रत्यक्ष हेरफ़ेर द्वारा आनुवंशिक रूप से तैयार किया जाता है। हालाँकि, 2020 तक, व्यावसायिक रूप से आनुवंशिक रूप से संशोधित गेहूं नहीं उगाया जाता था। लेकिन 2020 में अर्जेंटीना में स्थित कंपनी बायोसेरेस (Bioceres) द्वारा सूखे के तनाव के तहत अधिक उपज देने वाली विश्व की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित गेहूं की किस्म बायोसेरेस HB4(Bioceres HB4) विकसित की गई है। इस किस्म का नाम सूरजमुखी के प्रतिलेखन कारक, HaHB4 की अभिव्यक्ति के लिए रखा गया है और इसे 'लाइन IND-00412-7' (line IND-00412-7) के रूप में भी जाना जाता है। इसे अक्टूबर 2020 में अर्जेंटीना सरकार द्वारा अनुमोदित किया गया था।

संदर्भ
https://tinyurl.com/3dyakty6
https://shorturl.at/zLpu1
https://tinyurl.com/y4z6ra73

चित्र संदर्भ
1. एक प्रसन्न भारतीय किसान को दर्शाता चित्रण (pexels)
2. नॉर्मन बोरलॉग को दर्शाता चित्रण (GetArchive)
3. हरित क्रांति में सिंचाई उपकरणों के बढ़ते उपयोग की प्रमुख भूमिका को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. अपने खेत में दवाई छिडकते किसान को संदर्भित करता एक चित्रण (pexels)
5. टमाटर को संसाधित करते शोधकर्ता को दर्शाता चित्रण (Needpix)



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