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लोक संगीत और साहित्य हमेशा से ही, किसी भी सभ्यता का महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं। उनके माध्यम से, साझा इतिहास और मिथक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रसारित होते हैं। इससे लोगों में अपनेपन की भावना पैदा होती हैं, और लोग एक साथ रहते हैं। हमारे शहर लखनऊ में, कजरी, बारहमासा और झूला कुछ ऐसे लोक संगीत हैं, जो व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। तो आइए, आज जानते हैं कि, यह संगीत हमारे शहर की पहचान कैसे बना और इसकी उत्पत्ति एवं इतिहास क्या है? साथ ही, यह भी समझते हैं कि, आज लोक संगीत क्यों लुप्त होता जा रहा है?
भव्यता, ठाट-बाट और रोमांचक ‘शाम-ए-अवध(अवध की शाम)’ के साथ, अनोखे लखनऊ का इतिहास वास्तव में, 1775 ईसवी का है। तब, अवध के चौथे नवाब – आसफ-उद-दौला ने फैजाबाद से लखनऊ में राज्य की राजधानी स्थानांतरित की थी। यह नवाबों के शासनकाल के दौरान ही था कि, लखनऊ वास्तव में पारंपरिक नृत्य, संगीत, भाषा, कविता और नाटक का सबसे शानदार केंद्र बन गया।
बाद में, नवाब वाजिद अली शाह ने नृत्य, गायन, संगीत और कविता के पारंपरिक रूपों को प्रोत्साहित किया। नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल के दौरान ठुमरी, कथक, राग और ग़ज़ल के पारंपरिक रूपों को बढ़ावा दिया गया। माना जाता है कि, कुछ नवाबों ने जफर खान, प्यार खान और बासित खान जैसे प्रसिद्ध उस्तादों से शास्त्रीय गायन का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था। अवध के नवाबों के संरक्षण में कथक नृत्य को नई महिमा और प्रतिष्ठा मिली। उत्कृष्ट कथक प्रदर्शनों, ग़ज़लों, रागों और जोगिया जश्न के भव्य नज़ारे के साथ, लखनऊ वास्तव में देश का सांस्कृतिक केंद्र बन गया। इसके साथ ही, अवध के नवाबों के शासनकाल के दौरान यहां सबसे प्रतिष्ठित नर्तक, कवि, गायक और थिएटर कलाकार भी फले-फूले।
अतः, आइए अब लखनऊ के कुछ प्रसिद्ध लोक संगीत के बारे में जानते हैं। ।
कजरी: ‘कजरी’ शब्द का अर्थ ‘बरसात वाले काले बादल’ होता है। इस प्रकार, कजरी मुख्य रूप से, बरसात के मौसम में बिछड़े हुए प्रेमी की व्यथा बयां करती है। लेकिन, ‘मिर्ज़ापुरी कजरी’ बारिश के आनंद को भी बयां करती है। जैसे कि, शोभा गुर्टू द्वारा गाया गया– तरसत जियरा हमार नैहार में।
झूला: यह उत्तर भारत में, बारिश के मौसम में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गाया जाने वाला गीत है। इसमें भगवान कृष्ण और राधा के रोमानी भाव का चित्रण किया जाता है। जैसे कि, शोभा गुर्टू द्वारा गाया गया– झूला धीरे से झुलाओ।
बारहमासा: इसमें भारतीय परिदृश्य में, बारह महीनों में मौजूद तीनों ऋतुओं का वर्णन पाया जाता है।
दूसरी ओर, 15 वीं शताब्दी तक, ‘ठुमरी’ का कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता है। इसका उल्लेख हालांकि, 19 वीं शताब्दी से मिलता है, जो हमारे राज्य उत्तर प्रदेश के एक नृत्य कथक से संबंधित था। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह को ठुमरी का जन्मदाता माना जाता है, तथा इनके शासनकाल के दौरान ही लखनऊ में ठुमरी प्रसिद्ध हुई। वाजिद अली लखनवी ठुमरी के करीब थे। उस समय यह तवायफों या दरबारियों द्वारा गाया जाने वाला गीत था। अंग्रेजों के आगमन के बाद, वाजिद अली खान को लखनऊ छोड़़ना पड़ा तथा तब वह कलकत्ता जाकर बस गये। इसी कारण, ठुमरी को कलकत्ता ले जाया गया। नवाब के मटियाबुर्ज दरबार (कलकत्ता) में लखनवी ठुमरी को संरक्षण दिया गया था।
ठुमरी यह शब्द हिंदी के ‘ठुमकना’ शब्द से लिया गया है। इस गायन शैली के गीत में, एक केंद्रीय भूमिका होती है, जो अक्सर लोक कथाओं पर आधारित होती है। और आमतौर पर, यह प्रेमियों, या भगवान कृष्ण के मिथकों के अलगाव को दर्शाती है।
इसके अलावा कुछ अन्य स्थानों पर भी ठुमरी का उल्लेख मिलता है, जिसमें इसको ‘अरगा’ नाम से बोला गया है। परंतु, इस संगीत को अपनी पहचान लखनऊ में ही मिली। ठुमरी में गीत के शब्द कम होते हैं। शब्दों के भावों को विभिन्न प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही, ठुमरी में विभिन्न स्वर-समूहों- कण, खटका, मींड, मुर्की आदि का प्रयोग होता है। गायन की इस शैली में श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। चंचल प्रकृति की गायन शैली राग भैरवी, ख्माज, देस, तिलंग, काफी, पीलू आदि रागों में गायी जाती है।
इन सुंदर लोक संगीत के बावजूद, आज पारिवारिक कार्यक्रमों में डीजे(DJ अर्थात Disc Jockey) के प्रदर्शन और मंचीय प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में पहले से रिकॉर्ड किए गए ट्रैक बजने के कारण, लोक गायक और वादक अपनी कला शैलियों को खरीदारों के अभाव में धीरे-धीरे विलुप्त होते हुए देख रहे हैं। जहां एक समय उन्हें कई जगहों से निमंत्रण आते थे, आज ये पारंपरिक कलाकार अब खुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पहले कोई भी अवसर शहनाई की धुन के बिना पूरा नहीं होता था। और अब, संगीतकारों को किसी महीने में केवल तीन से चार निमंत्रण मिलते हैं। पारंपरिक शास्त्रीय वाद्ययंत्र तेजी से लोकप्रियता खो रहे हैं, और इसका असर उनकी आजीविका पर पड़ रहा है। सभी जगहों पर डीजे और संगीत निर्माताओं ने कब्ज़ा कर लिया है। इसके अलावा, उन्हें सरकार से भी कोई सहायता नहीं मिलती, जब तक कि, राज्य के पारंपरिक कला रूपों को प्रदर्शित करने का कोई कारण न हो। अतः इनका संरक्षण आज अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संदर्भ
http://tinyurl.com/3e7vwpn6
http://tinyurl.com/28b8njmj
http://tinyurl.com/4fe2d9js
http://tinyurl.com/8hexe63y
चित्र संदर्भ
1. शहनाई से कजरी वादन करते उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
2. संगीत की महफ़िल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. ठुमरी, कथक, राग और ग़ज़ल को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
4. विष्णु के अवतार राम पर रचनाओं के साथ वैष्णववाद के एक प्रसिद्ध कवि-संत। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. शोभा गुर्टू जी के द्वारा ठुमरी गायकी को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
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