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औद्योगीकरण की बदलती परिस्थितियों को लेकर हुआ, श्रम संगठन का उदय

मेरठ

 05-10-2024 09:20 AM
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
हम सभी जानते ही हैं, कि औद्योगिक क्रांति – गहन आर्थिक तकनीकी और सामाजिक परिवर्तन का काल था। यह क्रांति, 18वीं शताब्दी के अंत में, मुख्य रूप से ब्रिटेन(Britain) में शुरू हुई थी। बाद में, यह दुनिया भर में फैल गई। औद्योगिक क्रांति ने, कृषि अर्थव्यवस्थाओं से, औद्योगिक और शहरीकृत समाजों में बदलाव को चिह्नित किया है। यह बदलाव, भाप इंजन, मशीनीकृत कारखानों और परिवहन प्रगति जैसे नवाचारों से प्रेरित था। इस कारण आज, हम विश्व में औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त अवलोकन करेंगे। फिर, हम औद्योगिक क्रांति के युग में, कामकाज़ी परिस्थितियों के बारे में चर्चा करेंगे। हम, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन(International Labour Organisation) पर भी एक नज़र डालेंगे। यह संगठन, श्रमिक वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए स्थापित किया गया था। साथ ही, अंत में, हम ‘9-5 कार्य दिवस’ और ‘5 दिन के कार्य सप्ताह’ के विकास के बारे में चर्चा करेंगे।
औद्योगिक क्रांति, 18वीं शताब्दी में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का दौर था। इसने, बड़े पैमाने पर, ग्रामीण व कृषि प्रधान समाजों को औद्योगिकीकृत व शहरी समाजों में बदल दिया। विशेष रूप से, यह क्रांति, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में व्यापक थी। कपड़ा, लौह निर्माण और अन्य उद्योगों में, नई मशीनों, और तकनीकों की शुरूआत के कारण, जो उत्पाद, कभी हाथ से बड़ी मेहनत से तैयार किया जाता था, उसे कारखानों में, मशीनों द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जाने लगा।
हालांकि, कुछ नवप्रवर्तन, 1700 के दशक की शुरुआत में ही, विकसित हो गए थे। परंतु, औद्योगिक क्रांति, ब्रिटेन में, 1830 और 1840 के दशक में, गंभीरता से शुरू हुई। और, जल्द ही, यह संयुक्त राज्य अमेरिका सहित, दुनिया के बाकी हिस्सों में फैल गई।
औद्योगिक क्रांति की, मुख्य विशेषताओं में से एक, भयावह कामकाज़ी परिस्थितियां थीं, जिनका लोगों को सामना करना पड़ा। उस समय, किसानों और उनके परिवारों के प्रवास के कारण औद्योगिक शहरों और कस्बों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई। ये लोग, नए विकसित कारखानों और खदानों में काम की तलाश में थे। ये कारखाने और खदानें, काम करने के लिए खतरनाक और अक्षम्य स्थान थें। कामकाज़ी वर्ग के लोगों को, जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था और हैं है, उनमें – काम के लंबे घंटे (12-16 घंटे), कम वेतन, खतरनाक और गंदी स्थितियां एवं श्रमिक अधिकारों को नज़रंदाज़ करने वाले कार्यस्थल – शामिल हैं।
सरकार ने, अर्थव्यवस्था में यथासंभव कम भूमिका निभाई है। परिणामस्वरूप, औद्योगिक क्रांति में, श्रमिकों के लिए, बहुत कम या कोई नियम नहीं थे। इस कारण, धनी मालिक, अपनी इच्छानुसार, कर्मचारियों से किसी भी तरीके से कार्य करवा सकते थे। उदाहरण के लिए, तब, कारखाने और खदानें, बहुत कम सुरक्षा उपायों के साथ अविश्वसनीय रूप से खतरनाक स्थान थे।
तब, श्रमिकों से भीषण परिस्थितियों में प्रति दिन 16 घंटे की पारी में काम करने की अपेक्षा करना, कोई असामान्य बात नहीं थी। उन दिनों, काम श्रम गहन था और श्रमिकों को, दोहराने और थका देने वाले कार्यों को पूरा करना पड़ता था।
एक तरफ़, औद्योगिक श्रमिकों को, बहुत कम राशि का भुगतान किया जाता था और उन्हें जीवित रहने के लिए, संघर्ष करना पड़ता था। साथ ही, देर से आने या पारी के दौरान, छुट्टी लेने के कारण, अक्सर ही, श्रमिकों का वेतन काट लिया जाता था। और तो और, वेतन का स्तर, इतना ख़राब था कि, कई कामकाज़ी वर्ग को अपने परिवार की लागत को प्रबंधित करने लिए, बच्चों को भी काम पर रखना पड़ता था।
इन समस्याओं को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना की गई। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन स्थापना, 1919 में, प्रथम विश्व युद्ध को समाप्त करने वाली, वर्साय शांति संधि(Versailles Peace Treaty) के भाग XIII द्वारा हुई थी। यह संगठन, उन्नीसवीं सदी के, श्रम और सामाजिक आंदोलनों से विकसित हुआ, जो, दुनिया के कामकाज़ी लोगों के लिए, सामाजिक न्याय और उच्च जीवन स्तर की, व्यापक मांगों में परिणत हुआ। 1946 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी, पहली विशेष संस्था बन गया।
संरचना में, श्रम संगठन, अन्य विश्व संगठनों के बीच अद्वितीय है। क्योंकि, इसकी नीतियों को तैयार करने में श्रमिकों और नियोक्ताओं के प्रतिनिधियों को सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ समान आवाज़ मिलती है। वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन, इस संगठन का सर्वोच्च विचार-विमर्श निकाय है, जो की प्रत्येक सदस्य देश के चार प्रतिनिधियों से बना है। इसमें, दो सरकारी प्रतिनिधि, एक कार्यकर्ता और एक नियोक्ता प्रतिनिधि होते हैं। सम्मेलनों के बीच श्रम संगठन का कार्य, एक शासक निकाय द्वारा निर्देशित होता है। इसमें, चौबीस सरकारी प्रतिनिधि, बारह कार्यकर्ता, बारह नियोक्ता सदस्य, व इन प्रत्येक तीन समूहों से बारह उप सदस्य शामिल होते हैं। जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड (Geneva, Switzerland) में स्थित इस संगठन का कार्यालय – सचिवालय, परिचालन मुख्यालय, अनुसंधान केंद्र और प्रकाशन गृह के रूप में कार्य करता है। इसके संचालन में मुख्यालय और दुनिया भर में लगभग 100 राष्ट्रीयताओं के, 3,000 से अधिक लोग कार्यरत हैं। जबकि, संगठन की गतिविधियां, 40 से अधिक देशों में, क्षेत्रीय और शाखा कार्यालयों में विकेंद्रीकृत हैं।
दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के तीन प्रमुख कार्य हैं। इनमें से पहला कार्य – सदस्य राज्यों द्वारा, कार्यान्वयन के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों क, अपनाना है। इन्हें, कन्वेंशन(Convention) और सिफ़ारिशें(Recommendations) कहा जाता है। कन्वेंशन और सिफ़ारिशों में बाल श्रम, महिला श्रमिकों की सुरक्षा, काम के घंटे, आराम और वेतन के साथ छुट्टियां, श्रम निरीक्षण, व्यावसायिक मार्गदर्शन और प्रशिक्षण, सामाजिक सुरक्षा, श्रमिकों के आवास, व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा, प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा, एवं समुद्र में काम की स्थिति पर दिशानिर्देश शामिल हैं। वे, संघ की स्वतंत्रता, सामूहिक सौदेबाज़ी, जबरन श्रम का उन्मूलन, रोज़गार में भेदभाव का उन्मूलन, और पूर्ण रोज़गार को बढ़ावा देना, आदि बुनियादी मानवाधिकारों के सवालों को भीशामिल करते हैं।
इस संगठन का दूसरा प्रमुख कार्य विकासशील देशों की सहायता के लिए,तकनीकी सहयोग करना है।
दूसरी ओर, क्या आप जानते हैं कि, औद्योगीकरण की शुरुआत से पहले कार्य, अक्सर ही दिन के उजाले कीप्राकृतिक लय और कृषि जीवन की मांगों से तय होता था। ग्रामीण समाजों में लोग सुबह से शाम तक, खेतों में काम करते थे, जो श्रम की अधिक तरल और मौसमी समझ को दर्शाता है। 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ, औद्योगिक क्रांति में बदलाव आया। इसके कारण, कृषि अर्थव्यवस्था से शहरी औद्योगिक केंद्रों कीओर बदलाव आया।
कृषि अर्थव्यवस्था से औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था मेंप रिवर्तन ने, कार्य स्वरूप मेंमहत्वपूर्ण बदलाव को प्रेरित किया। फैक्ट्री मालिकों और नियोक्ताओं ने उत्पादकता और दक्षता कोअनुकूलित करने की मांग की, जिससे मानकीकृत कार्य घंटों की स्थापना हुई। सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक चलने वाला, “9 से 5” कार्यकाल, विभिन्न क्षेत्रों में काम को समक्रमिक करने; दिन के उजाले को अधिकतम करने और आसान प्रबंधन को सक्षम करने के लिए, एक व्यावहारिक समाधान के रूप में उभरा।

दूसरी ओर, 5-दिवसीय कार्य सप्ताह की अवधारणा को 20वीं सदी की शुरुआत में प्रमुखता मिली। इससे पहले, कई उद्योगों में छह दिन का कार्य सप्ताह का होना आम था। श्रमिक संघों और आंदोलनों ने काम के घंटे को कम करने व कामकाज़ी परिस्थितियों में सुधार और ख़ाली समय को बढ़ाने , कि वकालत की। यूनाइटेड किंगडम(United Kingdom) में, 19वीं सदी के फ़ैक्टरी अधिनियमों ने महिलाओं और बच्चों के लिए, कार्य दिवस की लंबाई पर प्रतिबंध लगाकर, एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। इसने, बाद के श्रम सुधारों की नींव रखी। इसकी परिणति, 20वीं शताब्दी में पांच-दिवसीय कार्य-सप्ताह की शुरुआत और 40-घंटे के कार्य-सप्ताह के मानकीकरण के रूप में हुई।
हालांकि, हाल के दिनों में, पारंपरिक कार्य सप्ताह की कठोर संरचना को विभिन्न कारकों द्वारा चुनौती दी गई है। इससे, वैकल्पिक कार्य स्वरूप की खोज हुई है। 4-दिवसीय कार्यसप्ताह का उदय और कार्य प्रथाओं पर, कोविड-19 महामारी का परिवर्तनकारी प्रभाव, कार्य व्यवस्थाओं की गतिशील प्रकृति को और उजागर करता है।

संदर्भ

https://tinyurl.com/4pvafhd8
https://tinyurl.com/nhhz6bn9
https://tinyurl.com/4r64pcnn
https://tinyurl.com/56mdw8t3

चित्र संदर्भ
1. 2014 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (International Labour Conference) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के लोगो को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. बाल श्रम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. मानचित्र में जिन सदस्य देशों ने जबरन श्रम संधि की पुष्टि की है, उन्हें हरे रंग में दर्शाया गया है, जबकि जिन ILO (International Organization) सदस्यों ने संधि की पुष्टि नहीं की है, उन्हें लाल रंग में चिह्नित किया गया है। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. एक महिला श्रमिक को संदर्भित करता एक चित्रण (pxhere)
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