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‘चिकनकारी’ कढ़ाई की कला, मुख्य रूप से हमारे देश भारत के उत्तरी क्षेत्र, और विशेष रूप से हमारे राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में केंद्रित है।और अतः, इसे ‘लखनवी कढ़ाई’ के रूप में भी, जाना जाता है। यह पारंपरिक भारतीय कढ़ाई अपना शाही समर्थन खोने, व्यावसायीकरण के हाथों कष्ट झेलने और कभी-कभी औसत दर्जे की राह खोने के बावजूद भी, कायम रही है। यह उन कारीगरों की प्रतिभा और दृढ़ संकल्प का प्रमाण है, जिन्होंने इस पद्धति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया है।
चिकनकारी की शुरुआत तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी, जहां इसका दो अलग-अलग कहानियों में उल्लेख मिलता है।पहली मिथक एक यात्री के बारे में है, जिसने पानी के बदले में एक किसान को चिकन सुई कार्य की कला प्रदान की थी। जबकि, दूसरी मिथक मेगास्थेनियन सिलाई(Megasthenian stitching) तकनीक के बारे में है, जो चिकनकारी के समान है।
हालांकि, भारत में नूरजहां की कहानी चिकन काम की उत्पत्ति का सबसे सटीक और गहन विचार-विमर्श है। माना जाता है कि, चिकनकारी की बेहतरीन कढ़ाई कला 17वीं शताब्दी में प्रसिद्ध मुगल सम्राट जहांगीर की महारानी नूरजहां द्वारा भारत में लाई गई थी, और इसलिए यह मुगल कढ़ाई के नाम से भी प्रसिद्ध थी। पारंपरिक सफेद पुष्प कढ़ाई शैली के रूप में प्रसिद्ध, चिकनकारी सुई और असंसाधित धागे का उपयोग करके बड़ी मेहनत से बनाई जाती थी। पारदर्शी सफेद कपड़े पर इस उत्कृष्ट सफेद कढ़ाई ने सदियों से राजाओं और आम लोगों के दिलों को मंत्रमुग्ध कर दिया है।
चिकनकारी कारीगर, इन वस्त्रों पर पहले मुगल वास्तुकला से प्रेरित, रूपांकनों का उपयोग करते थे। और, माना जाता है कि, 18वीं शताब्दी में, जिसे नवाबों का स्वर्ण युग भी कहा जाता है, चिकनकारी काफी लोकप्रिय हो गई।
पेस्टल(Pastel) रंग के सूती और हल्के मलमल के कपड़ों पर, चिकनकारी बनाने के लिए, सूती धागों का कलात्मक तरीके से उपयोग किया जाता है। हालांकि, फैशन के साथ बने रहने और चिकनकारी को प्रासंगिक बनाने के लिए, आजकल रंगीन और रेशमी धागों से भी कढ़ाई की जाती है।हाल के वर्षों में, चिकन कढ़ाई को अन्य अलंकरणों के साथ भी मिश्रित किया गया है, जैसे कि,मुकाइश का काम।जबकि, चिकनकारी वस्त्रों के निर्माण के प्रमुख चरणों में,डिजाइनिंग(Designing), उत्कीर्णन, ब्लॉक प्रिंटिंग(Block printing), सिलाई और धुलाई शामिल हैं।
क्या आप जानते हैं कि, चिकनकारी हाथ की कढ़ाई के खूबसूरत शिल्प में, कुल 32 प्रकार के टांके होते हैं। यहां नीचे कुछ प्रसिद्ध टांके सूचीबद्ध किए गए हैं।
1. टेपची: यह रनिंग स्टिच (Running stich) या रफ़ू सिलाई होती है, जिसे चार धागों में, छह धागों को पार करके, कपड़े के दाहिनी ओर लगाया जाता है। और, फिर इनमें से एक धागा उठाया जाता है। नतीजतन, एक कतार बन जाती है। इसका मुख्य उपयोग आगे की सिलाई के लिए, आधार के रूप में होता है।
2. चिकनकारी डिज़ाइन को कभी–कभी कपड़े के पीछे बखिया, डबलबैक(Double back) या छाया सिलाई का उपयोग करके हेरिंगबोनपैटर्न(Herringbone pattern) में दर्शाया जाता है। इसमें, धागे की छाया कपड़े के दाहिनी ओर दिखाई देती है।
3. खटाऊ: यह बखिया का एक बेहतर संस्करण है, जो एक प्रकार का अधिरोपण होता है। खटाऊ में डिज़ाइन बनाने के लिए, केलिको सामग्री(Calico material) का उपयोग किया जाता है।
4. हूल: इस विधि में, कपड़े में छेद करना और धागों को अलग करना शामिल है। फिर, इसे छोटे तथा सीधे टांके का उपयोग करके, सुरक्षित किया जाता है।
5. पारंपरिक भारतीय कढ़ाई में, फूलों के केंद्र को फंदा और मुरी टांके का उपयोग करके, कढ़ाई किया जाता है। फंदा का आकार बाजरे की तरह होता है, लेकिन मुरी चावल की तरह होती है। अक्सर ही,वे फ्रेंच गांठें(French knots) होती हैं।
6. जाली: यह सिलाई इस मायने में अनूठी होती है कि, धागे को कभी भी कपड़े में नहीं खींचा जाता है। सावधानीपूर्वक विभाजित ताने और बाने(warp and weft) के धागों को, छोटे बटनहोल टांके(buttonhole stitches) के साथ कपड़े में सिल दिया जाता है।
7. चिकन तकनीक काफी हद तक तुरपाई और दारज़दारी टांके पर भी निर्भर करती है । तुरपाई एक महीन धागे के समान होती है।जबकि, दारज़दारी की कई विविधताएं मौजूद हैं।
8. जंज़ीरा: यह एक छोटी चेन सिलाई(chain stitch) है, जो कपड़े के दाहिनी ओर एक धागे से बुनी जाती है। अत्यधिक बारीक होने के कारण, इसका उपयोग एक या अधिक रूपरेखाओं पर काम करने के बाद अंततः पत्ती या पंखुड़ी की आकृतियों को रेखांकित करने के लिए किया जाता है।
9. रहेट: यह एक स्टेम सिलाई(stem stitch) होती है, जो कपड़े के अंदरूनी तरफ छह धागों से बनाई जाती है। यह कपड़े के दाहिनी ओर, पिछली सिलाई की एक ठोस रेखा बनाता है और इसका उपयोग शायद ही कभी अपने सरल रूप में किया जाता है।
10. बनारसी सिलाई कपड़े के दाहिनी ओर, छह धागों से बनी एक मुड़ी हुई सिलाई होती है। लगभग पांच धागों पर दाहिनी ओर से काम करते हुए, लगभग दो धागों पर एक छोटी सी सिलाई लंबवत रूप से ली जाती है। फिर सुई को क्षैतिज सिलाई के साथ और नीचे आधी सिलाई में, फिर से डाला जाता है और पिछली सिलाई के ऊपर, दाईं ओर लंबवत रूप से लगभग दो धागे निकाले जाते हैं।
इनके अलावा, अन्य प्रसिद्ध चिकनकारी टांके में ताज महल, कंगन, धनिया-पट्टी, रोज़न, मेहरकी, चनापट्टी, बालदा, जोरा, कील कंगन, बुलबुल, सिधौल, हथकड़ी, बंजकली, साज़ी, करण, कपकापी, मदराज़ी और बुलबुल-चैसपर देखे गए टांके शामिल हैं।
चिकनकारी सफेद कढ़ाई ने, अब मौजूदा फैशन रुझानों में अपना स्थान पा लिया है, जिसका श्रेय काफी हद तक समकालीन डिजाइनरों को जाता है।वर्तमान समय में, मुगल चिकनकारी का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है, जिसमें शर्ट(Shirt), गाउन(Gown) शामिल हैं। ये वस्त्र आज इस कला को प्रासंगिक बनाए रखने में मदद करते है।
चिकनकारी के शौकीन जानते ही हैं कि, इसे बनाने में काफ़ी समय की आवश्यकता होती है। इस सफ़ेद कढ़ाई में, नाजुक और सुंदर छाया टुकड़ा बनाने में अविश्वसनीय रूप से लंबा समय और बहुत प्रयास लगता है।
इस प्रकार बने, चिकनकारी डिज़ाइन और पोशाकें कितनी आकर्षक और सुरुचिपूर्ण लगती हैं, यह तो आप अंततः जान ही गए होंगे। साथ ही, ऐसे संयोजन बनाना भी काफी कठिन होता है, जो तकनीकी रूप से सुंदर होते हुए भी भिन्न होते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/mt3s94fe
https://tinyurl.com/yp73k9zy
https://tinyurl.com/4r9spdyf
चित्र संदर्भ
1. कढ़ाई करते हुए मुस्लिम कारीगर को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
2. ‘चिकनकारी’ साड़ी पहने महिला को दर्शाता एक चित्रण (Needpix)
3. मुग़ल परिधानों को दर्शाता एक चित्रण (GetArchive)
4. लखनऊ चिकनकारी को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. कड़ाई करते युवक को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
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