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पिछले 70 या उससे भी अधिक वर्षों में मृत्यु की घोषणा करना काफी उलझन भरा हो गया है। ‘वेंटिलेटर’ (Ventilator) और ‘जीवन समर्थन प्रणाली’ (Life support System) जैसी वैज्ञानिक प्रगति के कारण यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि कोई व्यक्ति जीवित है या नहीं। आमतौर पर जब कोई व्यक्ति सांस लेना बंद कर देता है या उसका दिल कुछ मिनटों बाद भी नहीं धड़कता है, तो यह मान लिया जाता है कि व्यक्ति मर चुका है। किंतु हाल ही में सूअरों के ऊपर हुए एक आश्चर्यजनक प्रयोग द्वारा ऑर्गन एक्स(OrganEx) नामक एक ऐसी उन्नत प्रणाली (जो जीवन को बनाए रखने में सहायक है) का विकास हुआ है, जो हमारी मृत्यु के बारे में दशकों पुरानी धारणा को बदल रहा है और एक नई बहस को पुनर्जीवित कर रहा हैं। तो आइए आज मृत्यु की विभिन्न परिभाषाओं को समझें तथा जानें कि कैसे आधुनिक विज्ञान में प्रगति, नैदानिक मृत्यु की परिभाषा तक को बदल रही है?
1950 से पहले यही माना जाता था कि जब किसी व्यक्ति की सांसें रूक जाती हैं, तो वह व्यक्ति मृत माना जाता है। किंतु 1950 के दशक में आधुनिक वेंटिलेटरों के अस्पतालों में आगमन से यह धारणा बदल गई। जब रोगी अपने आप सांस नहीं ले पाता है, तो वेंटिलेटर के द्वारा उसके फेफड़ों में हवा भरकर उसकी जान बचाई जाती है। हालांकि, वेंटिलेटर के आविष्कार ने इस नैतिक चिंता को भी बढ़ावा दिया है, कि यदि व्यक्ति का शरीर ठीक हुए बिना अनिश्चित काल तक सांस ले सकता है, तो डॉक्टरों को कानूनी रूप से व्यक्ति को "मृतक" घोषित करने की अनुमति कब दी गई ? किसी व्यक्ति को कब मृत मान लिया जाए, इस विषय पर चर्चा करने के लिए 1968 में ‘हार्वर्ड मेडिकल स्कूल’ (Harvard Medical School) में विशेषज्ञों की एक समिति द्वारा विस्तृत अध्ययन किया गया । उस समय मौत का निर्धारण करने के लिए मौजूदा मानदंड इस बात पर आधारित था, कि सदियों से लोगों की मौत कैसे हो रही है। उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति की सांसें चलना बंद हो गई या व्यक्ति की नाड़ी में कोई गतिविधि नहीं हुई, तो उसे मृत मान लिया जाता था और आमतौर पर आज भी ऐसा ही होता है । लेकिन इस समूह ने मौत का निर्धारण करने के लिए एक अन्य मानदंड प्रस्तावित किया, जिसके अनुसार व्यक्ति के मस्तिष्क में कोई गतिविधि ना होने पर ही उसे मृत घोषित किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि मस्तिष्क का अन्य अंगों पर नियंत्रण होता है, तथा यह हमारी श्वसन प्रणाली को भी नियंत्रित करता है। एक गैर-कार्यात्मक मस्तिष्क को किसी भी तरीके से ठीक नहीं किया जा सकता था।अतः मस्तिष्क के पूरी तरह से निष्क्रिय होने पर ही व्यक्ति को मृत घोषित किया जा सकता है। ‘यूनिफ़ॉर्म लॉ कमीशन’ (Uniform Law Commission) नामक एक कानूनी इकाई द्वारा 1980 में मस्तिष्क-मृत्यु (Brain-death) मानदंड को औपचारिक रूप दिया गया तथा अधिकांश अमेरिकी (American) राज्यों ने इसे अपनाया। इस कानून के अनुसार, एक व्यक्ति तभी मरा हुआ माना जा सकता है, यदि उसमें संचार और श्वसन कार्य रूक गया है और पूरे मस्तिष्क के सभी कार्य रूक गए हैं। समय के साथ, मस्तिष्क मृत्यु, जैविक मृत्यु की अधिक लोकप्रिय परिभाषा बन गई और ‘अमेरिकन एकेडमी ऑफ न्यूरोलॉजी’ (American Academy of Neurology) के चिकित्सकों द्वारा 2019 में इस स्थिति के विषय में एक सर्वेक्षण किया गया। संगठन के सर्वेक्षण में शामिल सदस्यों में से 93 प्रतिशत सदस्यों ने इस बात पर सहमति जताई, कि मस्तिष्क की मृत्यु, परिसंचरण मृत्यु के बराबर है। किंतु अब आधुनिक विज्ञान की प्रगति ने मृत्यु की इस परिभाषा को बदल दिया है। यदि व्यक्ति का मस्तिष्क काम करना बंद कर भी दे, तो भी चिकित्सीय हस्तक्षेपों के जरिए उसे कई वर्षों तक सफलतापूर्वक जीवित बनाए रखा जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि कुछ अंतःस्रावी कार्य मस्तिष्क गतिविधि के बिना भी जारी रह सकते हैं,जो बताते हैं कि मृत्यु को परिभाषित करने के वर्तमान मानदंड अभी भी अधूरे हैं। ऑर्गन एक्स प्रणाली के आविष्कार से मृत्यु की परिभाषा और भी जटिल हो गई है।येल यूनिवर्सिटी (Yale University) में शोधकर्ताओं की एक टीम ने अंग प्रत्यारोपण के लिए ऑर्गन एक्स तकनीक को विकसित किया है। यह तकनीक कोशिकाओं को मरने से रोकती है और कोशिकाओं की मरम्मत करती है। शोधकर्ताओं ने कुछ सुअरों पर प्रयोग करके देखा कि यदि मृत्यु के एक घंटे बाद उनमें ऑर्गन एक्स तकनीक का प्रयोग किया जाता है, तो उनमें ऐसी गतिविधियां होती हुई दिखाई देती हैं, जो कि जीवित जीव में होती हैं। जैसे उनके दिल ने फिर से धड़कना शुरू कर दिया तथा कुछ अन्य गतिविधियां भी होने लगीं। मनुष्यों में अभी तक ऑर्गेन एक्स तकनीक का प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन यह प्रश्न उभरकर सामने आ गया है, कि क्या मनुष्यों में भी ऐसा संभव है? भारतीय कानून में मृत्यु की एक सख्त परिभाषा की आवश्यकता है। अभी तक मृत्यु को परिभाषित करने के लिए अन्योन्याश्रित संचार-श्वसन मानदंड और ब्रेनस्टेम मानदंड का उपयोग किया जाता है। चूंकि चिकित्सीय हस्तक्षेपों के जरिए मस्तिष्क को जीवित रखा जा सकता है, इसलिए यह बड़े पैमाने पर समाज के लिए एक नैतिक और कानूनी चिंता का विषय बन गया है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3IyIoYq
https://bit.ly/416PsCP
https://bit.ly/33f2QpS
चित्र संदर्भ
1. जीवन समर्थन प्रणाली को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. एक बीमार महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. मरीज का इलाज करते चिकित्सकों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. मृत और जीवित दिमाग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. मृत्यु से पहले मेथिलीन ब्लू के साथ इलाज किए गए रोगी के सामान्य मस्तिष्क और मस्तिष्क की सकल विकृति को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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