कला के क्षेत्र में भारत को एक मुख्य एवं महत्वपूर्ण केंद्र कहना ग़लत नहीं होगा। परन्तु आखिर कला के बारे में हम आम जनता जानते क्या हैं। तो आइये आज बात करते हैं कला व उससे जुड़े कुछ सिद्धांतों की।
एक समय ऐसा था जब कला और कलाकार को उद्योग की नज़र से नहीं देखा जाता था एवं उससे बिलकुल दूर रखा जाता था। इस कारण कलाकार अपने समाज से कट सा जाता था। परन्तु इसके विपरीत, कुछ महत्वपूर्ण युगों में कलाकार एक समाज की सभी कलाओं एवं शिल्प में महारत हासिल करता था क्योंकि इसका उसके व्यावसायिक जीवन से भी एक सम्बन्ध था। इस प्रकार वह गहराई से शुरुआत करके अपनी कला की एक नीव बनाकर उसे पूर्ण रूप से सीखता था तथा उसमें महारत हासिल करता था। परन्तु हाल ही में कलाकार को गुमराह किया जा रहा है कि कला एक व्यवसाय है जिसे अध्ययन से सीखा जा सकता है। केवल शिक्षा से कोई व्यक्ति कलाकार नहीं बन सकता। बेशक कई चीज़ें शिक्षा से ही प्राप्त की जा सकती हैं परन्तु एक कलाकार की खुद की प्रतिभा का भी एक मुख्य किरदार होता है जो किसी विद्यालय द्वारा सिखाई नहीं जा सकती। अतः शिक्षा और प्रतिभा के सही मिश्रण से ही एक बेहतरीन कलाकार का जन्म होता है।
वक्त के साथ ऐसी कला की मांग होने लगी जो खूबसूरत होने के साथ-साथ तकनीकी और आर्थिक रूप से भी स्वीकार्य हो। इस कारण एक नयी कठिनाई का जन्म हुआ क्योंकि कलाकार को बड़े पैमाने के उत्पादन की कम समझ थी तथा उद्योगपतियों को कला की कम समझ थी। इस कारण भविष्य के कलाकारों की शिक्षा के लिए नयी नीतियां सोची गयी जहाँ कला से जुड़ी शिक्षा के साथ उत्पादन का भी गहरा अध्ययन पाठ्यक्रम में जोड़ा जाये।
जर्मनी के वाइमार स्थित बाउहाउस स्कूल में पहली बार इन सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम बनाने का प्रयास किया गया। बाउहाउस स्कूल के सिद्धांत कई तरह की कलाओं को साथ जोड़ने पर आधारित थे। भारत के राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान में इसी पाठ्यक्रम का पालन किया जाता है।
पाठ्यक्रम में शिल्प को 7 अंशों में विभाजित किया गया – पत्थर, लकड़ी, धातु, मिट्टी, कांच, रंग और कपड़ा। इन सात अंशों से ही हर प्रकार के शिल्प का जन्म होता है। अन्य पाठ थे – सामग्री और उपकरणों की समझ, आकलन के तत्व, प्रकृति का अध्ययन, रेखागणित, साभी प्रकार के निर्माण के लिए योजनाओं का चित्रण, निर्माण की तकनीक, रचना आदि। बाउहाउस स्कूल के पाठ्यक्रम को दूसरे चित्र में प्रस्तुत किया गया है।
प्रथम चित्र में दर्शाया गया वायलिन एवं कुर्सी मशहूर डच चित्रकार पिएत मोंड्रियन की कला से प्रेरित हैं। मोंड्रियन ने अपनी 1920 के प्रसिद्ध चित्रों में सीधी रेखाओं और चोकोर आकृतियों का प्रयोग किया तथा रंगों में केवल काले, सफ़ेद और धूसर (अध्यात्मिक तत्वों को दर्शाने के लिए) और लाल, नीले और पीले (सांसारिक तत्वों को दर्शाने के लिए) रंगों का इस्तेमाल किया। रंगों और रेखाओं के आपसी मेल को यदि गहराई से देखा जाये तो पता पड़ता है कि मोंड्रियन ने अपनी कला में निर्माण की बहुलता और अनेकता में एकता को दर्शाया है। चित्र में प्रस्तुत कलाकारी रामपुर के विभिन्न शैलियों में माहिर कारीगरों द्वारा ही की गयी है। इस निर्माण से कारीगरों को बनावट में माप और कार्यात्मकता के महत्त्व को समझाने की सीख मिली तथा हाथ से बने इन उत्पादों की शहरी उपयोगिता पर ध्यान केन्द्रित किया गया क्योंकि कारीगर द्वारा बनाया गया उत्पाद चाहे कितना ही सुन्दर क्यों ना हो, यदि वो उपयोगी ना हुआ तो उसकी मांग नहीं होगी। अतः आज के दौर में एक कलाकार को अपना वर्चस्व बनाने के लिए कला के अलावा भी कई हुनर आने चाहिए।
1. बाउहाउस 1919-1928, हर्बर्ट बेयर
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