कुरु साम्राज्य को भारतीय उपमहाद्वीप में पहली दर्ज राज्य-स्तरीय सभ्यता माना जाता है। हमारा मेरठ क्षेत्र कभी कुरु साम्राज्य के अंतर्गत आता था, जो 16 महाजनपदों में से एक था। कुरु साम्राज्य, मध्य वैदिक काल (लगभग 1200 - लगभग 500 ईसा पूर्व) में मौजूद था, जिसमें आधुनिक हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ उत्तरी हिस्से शामिल थे। तो आइए, आज इस साम्राज्य में विद्यमान कृषि व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, उत्तराधिकार और धर्म जैसे विषयों के माध्यम से कुरु राज्य की संस्कृति और समाज के विषय में विस्तार से जानते हैं और साथ ही इस राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था को भी समझने का प्रयास करते हैं। इसके बाद, हम कुरु महाजनपद और महाभारत के बीच संबंध को समझने का प्रयास भी करेंगे। फिर, हम इस राज्य में कला और संस्कृति के विकास और इस साम्राज्य के कुछ सिक्कों की भी खोज करेंगे।
कुरु साम्राज्य के कौरव, वर्तमान उत्तर-पूर्वी भारत की सबसे प्रमुख जनजातियों में से एक थे। ऐसा माना जाता है कि यह जनजाति, 10वीं ईसा पूर्व से इस क्षेत्र में निवास करती थी, और वैदिक काल के बाद भारत में इंडो-आर्यन प्रवास की दूसरी लहर का हिस्सा थी। यह ऋग्वेद में एक प्रमुख जनजाति के रूप में दिखाई देती है। यहाँ कौरवों को दो शाखाओं में विभाजित किया गया था; पहला है "इमुकुरस" और दूसरा है "उत्तराम्बरस"। कौरवों ने भारत के प्रारंभिक इतिहास में एक प्रमुख भूमिका निभाई। कुरु साम्राज्य को हिमालय के उत्तरी भाग में "उत्तर कुरु" और दक्षिणी भाग में "दक्षिण कुरु" के नाम से जाना जाता था। यह वर्तमान में भारत के दिल्ली-मेरठ क्षेत्र में स्थित है। कौरवों के महाजनपद में, मोटे तौर पर हरियाणा के कैथल, थानेसर, करनाल, पानीपत और सोनीपत ज़िलों का क्षेत्र और उत्तर प्रदेश की गंगा तक का निकटवर्ती क्षेत्र शामिल था, जहां हस्तिनापुर स्थित है। यह मध्य वैदिक काल का प्रमुख राजनीतिक एवं सांस्कृतिक केंद था।
इसकी पहली राजधानी संदीवत में थी और बाद में इसकी राजधानी इन्दपट्टा थी। कुरु महाजनपद को वेदों के माध्यम से समझा जा सकता है। मुख्य रूप से महाभारत में कुरुजांगल, कुरु, और कुरूक्षेत्र के रूप में बार-बार उल्लेखित होने के कारण यह महाजनपद अत्यंत प्रसिद्ध है। यह भी पढ़ा और पाया गया है कि इस महाजनपद के उल्लिखित ये तीन क्षेत्र, वहां मौजूद प्रमुख तीन ज़िले थे। कुरुजंगल को मुख्य रूप से उस वन क्षेत्र के रूप में संदर्भित किया जाता था, जो सरस्वती नदी के तट पर स्थित काम्यक वन से लेकर खांडव वन तक फैला हुआ था। दूसरी ओर, कुरूक्षेत्र एक मैदानी भाग था जो ,दक्षिण दिशा में खांडव वन, उत्तर दिशा में तुर्घना और पश्चिम दिशा में परिनाह तक फैला हुआ है।
कुरु वंश: भारतीय साहित्यिक परंपरा में, कुरु राजवंश की स्थापना, राजा पुरु ने की थी। पुराणों में कई अवतारों के माध्यम से कुरु वंश की वंशावली का वर्णन मिलता है। उपादान वामसी के अनुसार, ब्रह्मा ने पृथ्वी पर सात अलग-अलग जातियाँ बनाईं और उन्हें अलग-अलग देशों में भेजा। उनमें से पाँच जातियों को दस्यु या अपवित्र लोग कहा जाता था। अन्य दो जातियों को आर्य, कुरु और पांचाल कहा जाता था, जिनके बारे में माना जाता है कि उनकी रचना स्वयं ब्रह्मा ने की थी। भागवत पुराण में कौरवों की उत्पत्ति को दक्षिण भारत के कुश नामक राजा से जोड़ा गया है। उनके तीन पुत्र थे, निमि, पुरु और यदु। ब्रह्मा ने युद्ध में निमि को मार डाला। पुरु और यदु अलग हो गए और अलग-अलग स्थानों पर चले गए। इसके बाद, पुरु ने पृथा नामक राजकुमारी से विवाह किया, जो यदु वंश के एक प्राचीन परिवार से थीं ।
कौरवों ने, मथुरा के यादवों, पांचालों, भोजों और सूतों के साथ वैवाहिक संबंध और गठबंधन स्थापित किए। उन्होंने काशी, अवंती और कोसल प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी, जिससे उनके क्षेत्रों के साथ उनके साम्राज्य का विस्तार हुआ। आधुनिक कुशीनगर जिले को कुरूक्षेत्र के नाम से जाना जाता था, ऐसा माना जाता है कि इसका नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया था। अपने चरम पर, कौरवों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा, पश्चिमी मध्य प्रदेश और महाभारत के समय, राजस्थान के एक बड़े हिस्से सहित विशाल क्षेत्रों पर शासन किया। उनके साम्राज्य की राजधानी कुरूक्षेत्र थी। इस काल के अन्य उल्लेखनीय शहर, थानेसर, वैशाली, अयोध्या और काम्पिल्य हैं। महाभारत काल तक, उन्होंने पश्चिम में कश्मीर और गुजरात को छोड़कर, वर्तमान उत्तर-पश्चिम भारत के अधिकांश हिस्सों पर नियंत्रण कर लिया था।
कुरु साम्राज्य के तहत संस्कृति और समाज: कृषि और शिल्प कौशल: कुरु साम्राज्य में संगठित कबीले, बड़े पैमाने पर अर्ध-घुमंतू, देहाती कबीले थे। हालाँकि समय के साथ जल्द ही यह परिदृश्य बदल गया, जब जनजातियाँ गंगा के मैदानी इलाकों की ओर बढ़ने लगीं, तो मिट्टी की उर्वरता और समृद्धि के कारण, वे जल्द ही यहीं बस गए और खेती और चावल उगाने लगे | इससे जल्द ही अन्य कृषि उत्पादों का विकास हुआ। वैदिक काल के अनुसार, कुशल कारीगरों का भी उदय हुआ था, इसी समय के दौरान पहली बार लोहे की खोज की गई थी। अथर्ववेद में इस युग से संबंधित एक पाठ में लोहे का उल्लेख सबसे पहले 'श्यामा अयस' के रूप में किया गया था।
वर्ण-पदानुक्रम: कुरु साम्राज्य में चार प्रकार की वर्ण प्रणाली थी, जिसने ऋग्वैदिक काल से आर्य और दास की दोहरी प्रणाली को प्रतिस्थापित कर दिया। चार वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों को पुरोहित वर्ग, क्षत्रियों को अभिजात वर्ग, आर्यों को वैश्य वर्ग और शूद्रों को दास वर्ग के रूप में नामित किया गया था।
धर्म: कुरु साम्राज्य ने प्रारंभिक वैदिक काल की धार्मिक विरासत को निर्णायक रूप से बदल दिया। उन्होनें वैदिक धर्म को ब्राह्मणवाद में बदल दिया, जो अंततः उपमहाद्वीप में फैल गया, जिसका स्थानीय परंपराओं के साथ संश्लेषण हुआ और साथ में हिंदू धर्म का निर्माण हुआ।
प्रशासन: कुरु साम्राज्य में अल्पविकसित प्रशासन प्रणाली थी, जिसमें पुरोहित, ग्राम प्रधान, सेना प्रमुख, भोजन वितरक, दूत, और जासूस शामिल थे। कुरु राजाओं ने अपनी जनता के साथ-साथ, कमज़ोर पड़ोसी जनजातियों से भी अनिवार्य शुल्क (बाली) वसूला। उन्होंने अपने पड़ोसियों के विरुद्ध, विशेषकर पूर्व और दक्षिण में, लगातार विजय प्राप्त की। शासन करने में सहायता के लिए, राजाओं और उनके ब्राह्मण पुजारियों ने वैदिक भजनों को संग्रह में व्यवस्थित किया और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने और वर्ग पदानुक्रम को मज़बूत करने के लिए अनुष्ठानों का एक नया सेट विकसित किया । अश्वमेध या घोड़े की बलि एक शक्तिशाली राजा के लिए आर्यावर्त में अपना वर्चस्व स्थापित करने का एक तरीका था।
कुरु साम्राज्य के सिक्के:
कुरु साम्राज्य में छह प्रकार के सिक्के प्रचलित थे जो निम्न प्रकार हैं:
1. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.73 ग्राम, व्यास: 12-13 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार और बिंदुओं के साथ त्रिस्केल (एक आकृति जिसमें एक केंद्र से निकलने वाली तीन शैलीबद्ध मानव भुजाएँ या पैर ((या तीन मुड़ी हुई रेखाएँ) शामिल हैं)
2. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.53 ग्राम, व्यास: 12 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार और बिंदुओं के साथ त्रिस्केल
3. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.77 ग्राम, 14 x 14 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार और बिंदुओं के साथ त्रिस्केल
4. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.56 ग्राम, 13 x 13 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार और बिंदुओं के साथ त्रिस्केल
5. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.53 ग्राम, व्यास: 15 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार और बिंदुओं के साथ त्रिस्केल/ 6 भुजा चिन्ह
6. चाँदी 1/2 कार्षापण
काल: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व
वज़न: 1.42 ग्राम, व्यास: 16-17 मिलीमीटर
आकृति: अर्धचंद्राकार त्रिस्केल
संदर्भ
https://tinyurl.com/mr3nam6z
https://tinyurl.com/3cx98wat
https://tinyurl.com/mtu795em
https://tinyurl.com/52xfw9tp
चित्र संदर्भ
1. कुरु साम्राज्य के सिक्के और पाण्डवों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia, flickr)
2. कुरु काल के एक विस्तृत श्रौत अनुष्ठान अग्नियान के लिए प्रयुक्त बर्तनों और बाज़ के आकार की वेदी की आधुनिक प्रतिकृति को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. कुरु काल के एक विस्तृत श्रौत अनुष्ठान अग्नियान के आधुनिक प्रदर्शन को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. कुरु जनपद के चांदी के सिक्कों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)