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भारतीय सैन्य युद्ध में तोपों का महत्व और इनकी विभिन्न युद्धों में भूमिका

जौनपुर

 16-07-2022 08:58 AM
हथियार व खिलौने

युद्ध के मैदान पर मानव जाति द्वारा सीखे गए सबसे शुरुआती सामरिक सबक में से एक यह था कि जितनी अधिक दूरी से कोई अपने दुश्मन पर हमला कर सकता है, उतना ही अधिक लचीलापन एक क्षेत्र युद्धाभ्यास में प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार, जब रोमन (Roman) सेना और ग्रीक (Greek) सेना युद्ध के मैदान में आमने सामने हुए थे, तब सेनाओं ने एक दूसरे का सामना समानांतर क्रम में एकल पंक्तियों में किया और गहराई में भिन्न और निकट-तिमाही युद्ध में लगे हुए जन समूह द्वारा हमेशा सहायक सेना (धनुर्धारियों, गोफन और बानकर) की प्रारंभिक प्रतिबद्धता द्वारा प्रारंभिक सामरिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया गया था, हालांकि, यह उन दिनों की जन रणनीति पर एक उल्लेखनीय प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त निर्णय नहीं था। वहीं यांत्रिक प्रक्षेप्य का आविष्कार और युद्ध में इस्तेमाल होने के बाद भी बलिस्टा (Balista), गुलेल, पत्थर फैकने का ईंजन, अधिक संख्या में सेना से टकराव में उपयोग होने वाली आड़ी कमान की रणनीति आने वाले लंबे समय तक सेनापति की मुख्य खोज बनी रही।इन सभी में सबसे प्रसिद्ध था घेराबंदी के संचालन में युद्ध में मशीनों का बढ़ता उपयोग। हालाँकि तोप ने चौदहवीं शताब्दी में यूरोप (Europe) के युद्ध क्षेत्रों में अपनी पहली उपस्थिति दर्ज की, तोपखाने का आधिपत्य लंबा था और इसका विकास धीमा था। बंदूक ने धीरे-धीरे युद्ध के पारंपरिकयंत्रों को बदलना शुरू कर दिया। वहीं युद्ध में तोपखाने की उचित भूमिका की सराहना करने वाले पहले व्यक्ति स्वीडिश (Swedish) राजा गुस्तावस एडॉल्फस (Gustavus Adolphus) थे।उन्होंने गतिशील तोपखाने के महत्व को देखा और 650 पाउंड वजन वाले पहले हल्के रणभूमि बंदूक का आविष्कार किया और वो इतना हल्का था कि उसे संभालने के लिए केवल दो आदमी की आवश्यकता होती थी।यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, क्योंकि इसने वर्तमान में मौजूद तोपखाने की रणनीति को जन्म दिया और हल्की रणभूमि तोप का उपयोग धीरे-धीरे युद्ध के मैदानों में किया जाना शुरू हुआ, लेकिन युद्ध के मैदान में तोपखाने का पूर्ण सामरिक रूप से उपयोग करने में लगभग दो और शताब्दियां लग गईं।
उन शुरुआती दिनों में "बंदूक" में धातु के पाइप या ढाई हाथ लंबाई की नालिका हुआ करती थी, जिसके पीछे के भाग में एक छेद होता था, उसके माध्यम से बारूद को प्रज्वलित किया जाता था।उस समय तोप से फेंकने के लिए पहले आमतौर पर पत्थर और बाद में धातु की गेंदें का उपयोग किया जाता था।हालांकि युद्ध के लिए बारूद के उपयोग के इस ज्ञान को भविष्य की शताब्दियों के दौरान भुला दिया गया और साथ ही चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक तोपखाने के उपयोग का कोई भी विवरण मौजूद नहीं है। यद्यपि मुगल सम्राट बाबर को भारत में भूमि युद्ध में तोपखाने की शुरुआत के लिए लोकप्रिय रूप से श्रेय दिया जाता है, हालांकि वर्तमान में उपलब्ध सबूतों से पता चलता है कि यह बहमनी राजा थे जिन्होंने विजयनगर साम्राज्य के खिलाफ अपने युद्धों में पहली बार तोपखाने का इस्तेमाल किया था।
हालांकि बहमनी राजाओं द्वारा तोपखाने के प्रयोग का यह प्रमाण सभी इतिहासकारों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि पंद्रहवीं शताब्दी के अंत तक, गुजरात के राजा मोहम्मद शाह द्वारा तोपखाने का उपयोग नौसैनिक तोपों के रूप में और भूमि संचालन में घेराबंदी शिल्प के लिए किया जा रहा था। फिर पुर्तगाली (Portuguese) आए, जिन्होंने पहली बार तोप से लैस युद्ध का परिचय दिया और हिंद महासागर की रणनीति के लिए "समुद्र की कमान" की अवधारणा को पेश किया।यह सूरत में यूरोपीय लोगों के साथ या अरब सागर में फारसी (Persian) और अरब (Arab) भूमि के साथ प्रारंभिक संपर्क था जो मध्य और दक्षिण भारत में बंदूक की पहली उपस्थिति का मुख्य कारण बना। वहीं 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में मुगल सम्राट बाबर ने पहली बार उत्तर भारत में तोपखानों का उपयोग किया और दिल्ली के अफगान (Afghan)राजा इब्राहिम लोदी को निर्णायक रूप से हराया। इस पराजय का मुख्य कारण तोपों का प्रभावी उपयोग था, युद्ध में लगभग 300 बंदूकें थीं, जो रूमी (Rumi) और फारसी (Persian) बंदूकधारियों द्वारा उस्माली (Osmali) बंदूकधारियों से बंदूक बनाने की कला सीखने के बाद बनाई गई थीं। बाबर द्वारा लोदी की सेना का अनुमान लगभग 100,000 था जिसमें पैदल सेना, घुड़सवार सेना और लगभग एक हजार बख्तरबंद हाथी शामिल थे, लेकिन कोई तोपखाना नहीं था।
मुगल शासनकाल के दौरान मुगल सेना के लिए रक्षा और युद्धों में तोपखाने ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि, अत्यधिक भारी तोपों का परिवहन समस्याग्रस्त बना रहा,परंतु अकबर के शासनकाल के दौरान भी हथियारों में काफी प्रौद्योगिकी सुधार हुआ।बाद के सम्राटों ने तोपखाने के तकनीकी पहलुओं पर कम ध्यान दिया, जिससे मुगल साम्राज्य धीरे-धीरे हथियार प्रौद्योगिकी में पिछड़ गया, तथा इस गिरावट ने सैन्य अभियानों को किस हद तक प्रभावित किया, इस पर कई प्रकार की बहस की गई हैं। हालांकि औरंगजेब के तहत, मुगल तकनीक पृथक हुए मराठा से बेहतर थी, लेकिन पारंपरिक मुगल तोपखाने की रणनीति पारंपरिक शस्त्रों में महारत हासिल किए मराठों के विरुद्ध लड़ने में सक्षम नहीं थी।1652 और 1653 में, मुगल-सफविद युद्ध के दौरान, राजकुमार दारा शिकोह कंधार की घेराबंदी में हल्के हथियारों को बोलन पासको पार करके ले जाने में सक्षम थे।परंतु हथियारों की सटीकता और दृढ़ता की कमी के कारण वे युद्ध में हार गए। वहीं18वीं शताब्दी तक,साम्राज्य की कांस्य बंदूकें यूरोपीय कच्चे लोहे की बंदूकों के सामने विफल हो गई और औपनिवेशिक ताकतों के विरुद्ध लड़ने में असफल रहे थे।
वहीं शुरुआती सम्राटों के अधीन अत्यधिक भारी तोपखाने मुगल सेना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बने हुए थे। बाबर द्वारा 1527 की घेराबंदी के विरुद्ध 225 से 315 पाउंड वजन के तोप के गोले दागने में सक्षम तोपों को तैनात किया, और पहले 540 पाउंड की पत्थर की गेंद को फायर करने में सक्षम तोप का इस्तेमाल किया था। हालांकि हुमायूँ द्वारा 1540 में कन्नौज के युद्ध में इतने बड़े तोपखाने नहीं उतारे गए थे, लेकिन फिर भी उनके पास भारी तोपें मौजूद थीं, जो एक फरसाखी (Farsakh) की दूरी पर 46 पाउंड की सीसे की गेंदों को दागने में सक्षम थीं।इन बड़े हथियारों को अक्सर वीर नाम दिया जाता था, जैसे टाइगर माउथ (शेर दहन), लॉर्ड चैंपियन (गाजी खान), या सेना के विजेता (फत- ए-लश्कर), और शिलालेख आदि।वे न केवल हथियार थे, बल्कि "कला के वास्तविक कृति" थे। ऐसे ही एक तोप के बारे में सुनते ही दुश्मनों की रूह कांपने लग जाती थी। इस तोप के लिए 1720 में जयपुर स्थित आमेर के पास जयगढ़ किले में विशेष कारखाना स्थापित किया गया था, हालांकि परीक्षण के लिए जब इससे गोला दागा गया, तो वह 30 किलोमीटर दूर जाकर गिरा। जहां ये गोला गिरा वहां एक तालाब बन गया। अब तक उसमें पानी भरा है और लोगों के काम आ रहा है। बस ये बात दूर-दूर तक फैल गई और दुश्मन इस तोप से डरने लगे। किले के नाम के आधार पर ही इस तोप का नामकरण किया गया।इस तोप को मुख्य रूप से भयंकर सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए और आमेर किले को एक ही विनाशकारी प्रहार से बचाने के लिए बनाया गया, तोप में 20.2 फीट की बंदूक की नली है और इसका वजन 50 टन है।तोप लगभग पाँच फीट व्यास के दो बड़े पहियों के साथ गाड़ी पर टिकी हुई है।
बैरल की नोक पर 7.2 फीट की परिधि के साथ, 50 किलो की शॉट बॉल (Shot ball) को गोली मारने के लिए तोप में 100 किलोग्राम बारूद को डाला जा सकता था।इसका उपयोग केवल एक बार इसके परीक्षण के लिए किया गया था, जिसके दौरान इस्तेमाल की गई शॉट बॉल चाकसू गांव में जा गिरी, जहां इसके प्रभाव ने एक गड्ढा उत्पन्न कर दिया जो अंततः एक तालाब बन गया जो अभी भी ग्रामीणों द्वारा उपयोग किया जाता है।हालांकि तोप के गोले की सीमा वर्तमान समय में सटीक रूप से निर्धारित नहीं की जा सकती है, लेकिन मोर और हाथी के रूपांकनों से सजाए गई बंदूक की नली के साथ शानदार तोप वास्तव में काफी विशाल है और इसे सिर्फ चार हाथियों के बल से घुमाया जा सकना संभव है।परीक्षण के बाद तोप को फिर कभी दुबारा चालू नहीं किया गया। तथा इसे पर्यटकों द्वारा देखने के लिए रखा गया तथा इसकी उपस्थिति 18वीं शताब्दी में देश में मौजूद धातुकर्म और वैज्ञानिक ज्ञान का प्रमाण देती है।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3ObFSXV
https://bit.ly/3AQxFVW
https://bit.ly/3PdR4V2

चित्र संदर्भ
1. कारगिल चौक, बरेली छावनी में तोपों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. तोपखाने में रखी तोप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. दुर्ग में राखी तोप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. जैसलमेर शहर में रखी तोप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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