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भाषा से वास्तुकला तक, देखे जा सकते हैं, भारत और फ़ारस के बीच ऐतिहासिक संबंध

जौनपुर

 01-11-2024 09:11 AM
धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
प्रारंभिक शताब्दियों से ही, भारत और फ़ारस के बीच ऐतिहासिक संबंध रहे हैं, जो महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान द्वारा चिह्नित हैं। विशाल फ़ारसी साम्राज्य ने उन व्यापार मार्गों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनसे भारत भूमध्यसागरीय दुनिया के साथ जुड़ा था, इससे मसालों, वस्त्रों और कीमती पत्थरों जैसे सामानों का व्यापार संभव हुआ। इस आदान-प्रदान ने दोनों सभ्यताओं को समृद्ध बनाया, जिससे विचारों, कला और परंपराओं का मिश्रण हुआ। फ़ारसी संस्कृति का प्रभाव, अभी भी भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं में देखा जा सकता है, भाषा से लेकर वास्तुकला तक, जो इन ऐतिहासिक संबंधों की स्थायी विरासत को प्रदर्शित करता है। तो आइए, आज हम फ़ारस और भारत के बीच शुरुआती संबंधों के बारे में जानेंगे और उन महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आदान-प्रदानों पर चर्चा करेंगे, जिन्होंने दोनों देशों के रिश्ते को आकार दिया और दोनों सभ्यताओं को समृद्ध किया। अंत में, हम भारत के साथ प्राचीन काल से चले आ रहे फ़ारसी व्यापार पर चर्चा करेंगे।
फ़ारस और भारत के बीच प्रारंभिक संबंध-
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में, जब भारत में मगध एक व्यापक साम्राज्य बनाने का प्रयास कर रहा था, उस समय उत्तर-पश्चिमी सीमा पर विदेशियों के आक्रमण शुरू हो चुके थे। भारत में घुसने की कोशिश करने वाले पहले लोग फ़ारस के ही थे। प्राचीन काल में भारत के फ़ारस से संबंध थे। भारत में बसने वाले आर्य उसी नस्ल के थे, जो सबसे पहले फ़ारस में दाखिल हुए थे। ऋग्वैदिक भारतीय आर्यों की भाषा और ईष्ट देवों की फ़ारस के आर्यों के साथ समानता यह सिद्ध करती है कि उन दिनों भारत और फ़ारस ने परस्पर संपर्क था।
हालाँकि, उत्तर वैदिक युग के दौरान भारतीयों और फ़ारसियों के बीच आपसी संपर्क के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। यद्यपि, जातक कहानियों में, भारत और फ़ारस के बीच व्यापार संबंधों का उल्लेख मिलता है, लेकिन छठी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले का।
इन दोनों देशों के संबंधों के बारे में जानकारी हेरोडोटस, स्ट्रैबो और एरियन जैसे यूनानी विद्वानों के लेखन से प्राप्त होती है, हालांकि इनके विवरणों में एकमतता नहीं है। हालाँकि, यह सर्वमान्य है कि फ़ारसियों के साथ भारत का पहला राजनीतिक संपर्क, 600-530 ईसा पूर्व फ़ारसी सम्राट साइरस (Cyrus) के शासनकाल के दौरान शुरू हुआ था।
उसने भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से पर हमला किया और सिंधु नदी के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया, जिसमें काबुल की घाटी और गांधार सहित हिंदूकुश के पहाड़ी क्षेत्र शामिल थे। हालाँकि, साइरस के पुत्र एवं उत्तराधिकारी कैम्बिसेस (Cambyses) ने भारत की ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन उसके उत्तराधिकारी डेरियस-प्रथम (Darius-I) ने उत्तरी पंजाब पर विजय प्राप्त की। पर्सेपोलिस और नक्श-ए-रुस्तम के शिलालेखों में उत्तरी पंजाब को डेरियस साम्राज्य के एक हिस्से के रूप में वर्णित किया गया है। हेरोडोटस ने यह भी वर्णन किया कि डेरियस ने सिंधु का पता लगाने के लिए स्काईलैक्स (Scylax) के तहत एक नौसैनिक अभियान भेजा था और पंजाब डेरियस के साम्राज्य का बीसवां क्षत्रप (प्रांत) था।
अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि उत्तरी पंजाब सहित उत्तर-पश्चिमी भारत उस समय फ़ारसी साम्राज्य का हिस्सा था और फ़ारसी लोग 330 ईसा पूर्व तक वहाँ रहे थे। डेरियस-तृतीय के शासनकाल के दौरान, सिकंदर के फ़ारसी साम्राज्य पर हमला करने के बाद, भारत में फ़ारसी साम्राज्य समाप्त हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से पर फ़ारसियों के आक्रमण और कब्ज़े ने भारतीय राजनीति को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं किया। फ़ारसियों की विजय अल्पकालिक साबित हुई और इसका कोई महत्व नहीं था, लेकिन इसने सिकंदर की विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने के लिए वही रास्ता चुना, जो फ़ारसियों ने चुना था। हालाँकि, सिकंदर के हमले के बाद भी भारतीयों और फ़ारसियों के बीच संपर्क बने रहे, जिनके कुछ अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय परिणाम आए। ये संपर्क मुख्य रूप से दोनों देशों के बीच व्यापार संबंधों के कारण थे, जिनका भारत पर कुछ सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा। फ़ारसियों ने भारतीय और यूनानी संस्कृतियों के बीच संपर्क की सुविधा प्रदान की। सिकंदर के आक्रमण से बहुत पहले से ही, यूनानी दार्शनिक भारतीय दर्शन के संपर्क में थे। इसके अलावा, फ़ारसियों ने भारत में लेखन का अरबी रूप शुरू किया, जो बाद में खरोष्ठी लिपि के रूप में विकसित हुआ।
उत्तर-पश्चिम में सम्राट अशोक के शिलालेख इसी लिपि में लिखे गए थे। भारत में फ़ारसी चांदी के सिक्कों का उपयोग किया जाता था और इसने भारतीय सिक्कों पर प्रभाव डाला। चंद्र गुप्त के दरबार के बारे में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने लिखा है कि मौर्य शासकों ने कुछ फ़ारसी समारोहों और प्रथाओं को अपनाया। सिर के बाल धोने की रस्म, महिला अंगरक्षकों को रखना और खुद को अलग-थलग रखना कुछ ऐसी प्रथाएँ थीं जिन्हें फ़ारसी प्रथाओं के प्रभाव के कारण चंद्र गुप्त मौर्य ने शुरू किया था।
कई विद्वानों द्वारा यह भी दावा किया गया है कि फ़ारसी वास्तुकला ने भारतीय वास्तुकला को प्रभावित किया। फारसियों के शिलालेखों ने अशोक के शिलालेखों के लिए मॉडल के रूप में काम किया।
डी.बी. स्पूनर के अनुसार, मौर्य सम्राटों के महल फ़ारसी सम्राटों के महलों के मॉडल पर बनाए गए थे। अशोक के काल की वास्तुकला पूरी तरह से फ़ारसी वास्तुकला से प्रभावित थी और अशोक के स्तंभों पर अंकित घंटियाँ फ़ारसी कला के नमूने हैं। लेकिन, ऐसे कुछ विद्वान भी हैं जो ऊपर व्यक्त राय से असहमत हैं। ई.बी. हैवेल का कहना है कि अशोक के स्तंभों पर अंकित घंटियाँ वास्तव में घंटियाँ नहीं, बल्कि उल्टे कमल के फूल हैं जो आत्मा की प्रगति का प्रतिनिधित्व करते हैं और इस प्रकार यह विशुद्ध रूप से भारतीय प्रतिनिधित्व हैं। हालाँकि, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यद्यपि भारतीयों ने अपनी स्वयं की वास्तुकला विकसित की, लेकिन वे निश्चित रूप से फ़ारसी वास्तुकला से प्रभावित थे, या जैसा कि डॉ. कुमारस्वामी कहते हैं, भारतीय वास्तुकला उस सार्वभौमिक संस्कृति का एक हिस्सा थी, जो कभी 'प्राचीन पूर्व' की संस्कृति थी।
फ़ारस और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान-
मध्ययुगीन काल के दौरान, भारत में जो संस्कृति विकसित हुई, वह फ़ारसी संस्कृति से प्रेरित थी, हालाँकि, फ़ारसी संस्कृति स्वयं भी मध्य एशिया में विकसित हुई तुर्क-फ़ारसी संस्कृति की वंशज थी। जैसे ही खानाबदोश तुर्क योद्धाओं ने इस्लाम अपनाया और मुख्य रूप से फ़ारसी भाषी क्षेत्रों में बस गए, फ़ारसियों ने धीरे-धीरे अपने वस्त्रों, कलात्मक शैलियों और भाषा सहित उनकी संस्कृति के विभिन्न तत्वों को अपना लिया। तुर्क और फ़ारसी दुनिया के इस मिलन से बनी समन्वित संस्कृति ने बाद के मुस्लिम आक्रमणों के साथ दक्षिण में अपना रास्ता खोज लिया। 11वीं शताब्दी के तुर्क योद्धा और गजनवी वंश के संस्थापक महमूद गजनी द्वारा उत्तरी भारत की सफल विजय, दक्षिण एशिया में फ़ारसी सांस्कृतिक प्रभाव के लिए एक प्रारंभिक उत्प्रेरक थी। फ़ारसी संस्कृति को ग़ज़नी के साथ-साथ मामलुक जैसे सफल साम्राज्यों के तहत संरक्षण दिया गया। खिलजी, तुगलक, सैय्यद और लोधी राजवंशों के तहत, फ़ारसी आधिकारिक भाषा होने के साथ-साथ, मुस्लिम भारत की कलात्मक संस्कृति का मुख्य माध्यम थी।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार: "1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद, इसके शासकों की उदारता ने फ़ारस और मध्य एशिया के कई कवियों और विद्वानों को आकर्षित किया। इस प्रकार फ़ारसी साहित्यिक प्रवृत्तियों को भारत के जटिल बहुस्तरीय सांस्कृतिक परिवेश में आत्मसात किया गया और नया स्वरूप दिया गया।"
जब फ़ारसी और तुर्क भाषी बाबर ने 16वीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की, तो उसे एक ऐसी संस्कृति का सामना करना पड़ा, जो पहले से ही गहराई से फ़ारसीकृत थी, जिसने पहले से ही अमीर ख़ुसरो जैसे प्रसिद्ध फ़ारसी भाषा के कवियों को जन्म दे दिया था। बाबर के मुगल वंशजों के तहत इंडो-फ़ारसी संस्कृति अपने चरम पर पहुंच गई, जिससे उपमहाद्वीप में अन्य महान वास्तुशिल्प उपलब्धियों के अलावा, आगरा में ताज महल और नई दिल्ली की जामा मस्जिद जैसी वास्तुकला उत्कृष्ट कृतियों का निर्माण हुआ। उर्दू भाषा भी पुरानी संस्कृत-वंशज हिंदी बोलियों और मुगल दरबार में बोली जाने वाली फ़ारसी के मिलन से विकसित हुई। मुगल काल के दौरान निर्मित लघु चित्रों की प्रचुरता दक्षिण एशिया के भीतर फ़ारसी प्रभाव का एक और प्रमाण है।
भारत और फ़ारस के बीच व्यापारिक संबंध-
प्राचीन काल से ही, भारत के साथ, फ़ारस के व्यापार ने एक महत्वपूर्ण आर्थिक पुल के रूप में कार्य किया, जिससे न केवल वस्तुओं, बल्कि विचारों और संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी हुआ। इन दो प्राचीन सभ्यताओं के बीच स्थापित समृद्ध व्यापार संबंधों ने पारस्परिक लाभ को बढ़ावा दिया, जिससे दोनों पक्षों की समृद्धि बढ़ी। इन दोनों देशों के बीच व्यापार का महत्व, वाणिज्य से आगे बढ़कर, विविध सांस्कृतिक और आर्थिक प्रथाओं के एकीकरण का प्रतीक है।
फ़ारसी व्यापार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-
भारत के साथ फ़ारसी व्यापार प्राचीन सभ्यताओं से चला आ रहा है, विशेषकर अचमेनिद साम्राज्य (लगभग 550-330 ईसा पूर्व) के दौरान। इस व्यापारिक संबंध ने दो ऐतिहासिक रूप से समृद्ध क्षेत्रों के बीच महत्वपूर्ण संबंध स्थापित किए, और वस्तुओं, संस्कृति और विचारों का आदान प्रदान सुनिश्चित किया। फ़ारसी व्यापारियों द्वारा तय किए गए व्यापार मार्गों में भूमि और समुद्री मार्ग दोनों शामिल थे। ये मार्ग फ़ारस को लोथल और भरूच जैसे प्रमुख भारतीय बंदरगाहों से जोड़ते थे, जिससे वस्तुओं की एक विस्तृत श्रृंखला में प्रत्यक्ष व्यापार संभव होता था। फ़ारसी व्यापार की विशेषता, एक सुविकसित नेटवर्क और वाणिज्य की स्थापित प्रणालियाँ थीं। अक्सर कपड़ा, मसाले और कीमती पत्थर, व्यापार की जाने वाली वस्तुओं में शामिल होते थे । भारतीय व्यापारी, फ़ारसी बाज़ारों की समृद्धि से आकर्षित हुए, जिन्होंने सांस्कृतिक संबंधों की विविधता और समृद्धि में योगदान दिया। इस परस्पर क्रिया ने भारतीय और फ़ारसी दोनों समाजों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया, नवाचारों का प्रसार किया और पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा दिया।
व्यापार के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान-
फ़ारस और भारत के बीच व्यापार ने महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आदान-प्रदान को सुविधाजनक बनाया, जिससे दोनों सभ्यताएँ समृद्ध हुईं। जैसे ही व्यापारी फ़ारसी व्यापार मार्गों को पार करते थे, वे न केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे, बल्कि विचारों, विश्वासों और परंपराओं का भी आदान-प्रदान करते थे, जिन्होंने उनके समाज को आकार दिया।
फ़ारसियों ने भारत में विभिन्न कला रूपों, स्थापत्य शैलियों और साहित्यिक परंपराओं को प्रस्तुत किया, जिन्होंने स्थानीय प्रथाओं को प्रभावित किया। फ़ारसी और भारतीय सौंदर्यशास्त्र का यह मिश्रण, मुगल वास्तुकला और लघु चित्रों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जो संस्कृतियों के मिश्रण को प्रदर्शित करता है। इन व्यापार मार्गों के माध्यम से धार्मिक आस्था और विचारों ने भी यात्रा की। पारसी धर्म और बाद में इस्लाम धर्म ने, आध्यात्मिक प्रथाओं और सामुदायिक संरचनाओं को प्रभावित करते हुए भारत में प्रवेश किया। इन आदान-प्रदानों ने भारतीय उपमहाद्वीप में मान्यताओं की विविधता में योगदान दिया।
भारत और फ़ारसी व्यापार में प्रयुक्त प्रमुख वस्तुएँ-
भारत और फ़ारसी व्यापार की विशेषता, विविध वस्तुओं का जीवंत आदान-प्रदान था, जो दोनों क्षेत्रों के समृद्ध और विविध संसाधनों को दर्शाता था। फ़ारस से मुख्य रूप से रेशम और ब्रोकेड जैसे शानदार वस्त्रों को निर्यात होता था, जिनकी भारतीय बाज़ारों में अत्यधिक मांग थी। वस्त्रों के अलावा, फ़ारस ने सोना, चांदी और रत्नों जैसी कीमती सामग्रियों का भी निर्यात किया।

संदर्भ
https://tinyurl.com/4zxzxb87
https://tinyurl.com/3h97mada
https://tinyurl.com/mu39nfru

चित्र संदर्भ
1. 1891 में, फ़ारस और बलूचिस्तान से होते हुए भारत की यात्रा के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. फ़ारसी सम्राट साइरस (600-530 ईसा पूर्व ) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. 1891 में, फ़ारस के व्यापारियों की भारत पहुंचने की यात्रा के दृश्य को संदर्भित करता एक अन्य चित्रण (wikimedia)


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