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अपने प्रवास के दौरान पक्षी देश की ही नहीं वरन्, विश्व के महाद्वीपों की सीमाओं को भी पार करते हैं, इनकी इस रोमांचक यात्रा को देखना और समझना अपने आप में एक अद्वीतीय अनुभव है। भारत में प्रवासी पक्षियों का आगमन एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक घटना है, जिसका अध्ययन और मानव-पक्षियों के बीच जीवविज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रूप से कार्यक्षेत्र है। यह विशेष रूप से जीवविज्ञानियों, पक्षिज्ञों और बागबानों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह पक्षियों के बारे में जानकारी जुटाने और उनके संरक्षण के लिए मदद करता है। पूरे गर्मियों के महीनों में, भारत असंख्य प्रवासी पक्षियों की प्रजातियों का स्वर्ग बन जाता है, लेकिन ये पक्षी कहा से आये हैं, कहा जायेगें और इनका मार्ग क्या होगा? ये पता लगना भी ज़रूरी है, टैगिंग (Tagging) के माध्यम से इन पक्षियों के मार्गों और आदतों का पता लगाया जाता है। रामपुर का तराई क्षेत्र भी इन प्रवासी पक्षियों की एक विविध श्रृंखला की मेजबानी करता है। तराई और उसके आसपास के इलाकों में प्रवासी पक्षियों की लगभग 20 प्रजातियां आती हैं। लेकिन, इन सब में दो मुख्य प्रजातियां हैं, बार-हेडेड गीज़ (Bar-headed Geese) और ब्राह्मणी बत्तख (रूडी शेल्डक (ruddy shelduck))। इनके अलावा जलकाग जैसे पक्षियों की स्थानीय प्रजातियां भी यहां आती हैं। इनकी टैगिंग से इनकी संपूर्ण यात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है।
बर्ड-टैगिंग (Bird-tagging ) से तात्पर्य किेसी पक्षी विशेष की पहचान को सुनिश्चित करने के लिए एक जंगली पक्षी के पैर या पंख पर एक छोटा, धातु का उपकरण लगाया जाता है। इससे पक्षी की गतिविधियों और उसके जीवन इतिहास पर नज़र रखने में मदद मिलती है। पक्षियों के प्रवास को ट्रैक करने के लिए एक सरल और पुरानी विधि पक्षियों के पैरों में एल्यूमीनियम के छल्ले लगाना था, छल्ले लगाने के बाद उन्हें अपनी दैनिक गतिविधियों के लिए छोड़ दिया जाता था। जब इन पक्षियों को दोबारा पकड़ा जाता था तो इसके साथ ही उनके स्थान को रिकॉर्ड किया जाता था, जिससे लोगों को उनके प्रवास पथ के बारे में कुछ सुराग मिला। इसकी शुरूआत 1900 के दशक में हुयी।
प्रवासन का पहला वास्तविक प्रमाण तब मिला जब हंगरी (Hungary) का एक सफेद सारस बैंड (stork band) दक्षिण अफ्रीका (South Africa) में मृत पाया गया। पक्षियों पर छल्ले बांधने की यह तकनीक काफी प्राथमिक है, क्योंकि शोध के अनुसार यह केवल उन स्थानों के बारे में बताता है, जहां पक्षी गया था। न कि उस पूरे रास्ते के बारे में, जहां से वह गुजरा था। बर्ड-टैगिंग का प्राथमिक उद्देश्य प्रवासी पक्षियों का संरक्षण करना और उनकी उत्पत्ति, आवास, प्रजनन अवधि, आश्रय स्थान, उनकी संख्या और उड़ान मार्ग और उनके वजन के साथ-साथ लिंग का अध्ययन करना था।
1984 में संयुक्त राज्य अमेरिका (United States America) में शोधकर्ताओं ने एक बाल्ड ईगल (Bald Eagle) को पकड़ा और उसमें एक ट्रांसमीटर (Transmitter) लगाया।, जो पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले उपग्रहों को ईगल का स्थान बताता था, अमेरिकियों ने बाल्ड ईगल का उपयोग इसलिए किया क्योंकि इनका आकार बड़ा था और यह ट्रांसमीटर के साथ भी उड़ सकते थे, इससे निश्चित रूप से मदद मिली। ट्रांसमीटर की बैटरी बहुत कम चलती थी और उसका वजन काफी अधिक था, इस प्रकार छोटे पक्षियों पर उनका उपयोग अयोग्य हो गया।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक शरीर के अंदर लगाने वाली घड़ी और एक मेमोरी चिप इजात की, जो सूर्य के प्रकाश की तीव्रता रिकॉर्ड कर सकती थी। इस 'माइग्रेशन ट्रैकिंग सिस्टम' (Migration Tracking System) का वजन अंततः एक ग्राम से भी कम हो गया, जिसका मतलब था कि छोटे पक्षी भी इसके साथ आसानी से उड़ सकते थे। प्रवासन को समझने के लिए इन रिकॉर्डरों का उपयोग प्राचीन नेविगेशनल (Navigational) तकनीकों के समान है।
सूर्य के प्रकाश की तीव्रता दिन के समय के साथ-साथ स्थान के आधार पर बदलती रहती है। प्रत्येक दिन की लंबाई अक्षांश का सूचक है, जबकि सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच यानी दोपहर का समय देशांतर का सूचक है। रिकॉर्डर में लगी घड़ी एक दिन की अवधि को मापती है। जबकि, प्रकाश की तीव्रता रिकॉर्डर एक विशेष स्थान पर दोपहर के 'समय' की गणना करता है। इस डेटा का उपयोग अनुमानित देशांतर और अक्षांश का पता लगाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग करके, हम एक प्रवासी पक्षी की यात्रा के दौरान संपूर्ण पथ को ट्रैक कर सकते हैं।
इन रिकॉर्डर ने शोधकर्ताओं को, पक्षी प्रजातियों को पहले से कहीं बेहतर ढंग से समझने में मदद की है। उदाहरण के लिए, आर्कटिक टर्न (Arctic tern) को पृथ्वी पर सबसे लंबी यात्रा का श्रेय दिया जाता है। ऐसा माना जाता था कि यह हर साल आर्कटिक और अंटार्कटिक के बीच 40,000 किलोमीटर की यात्रा पूरी करता था। हालांकि, जियो-लोकेटर (Geo-locator) का उपयोग करके हाल ही में किए गए निष्कर्षों से पता चला है कि, ये पक्षी वास्तव में सालाना इस दूरी से दोगुनी से अधिक दूरी तय करते हैं! वैज्ञानिकों का मानना है कि वे प्रचलित हवाओं का लाभ उठाने और अपनी लंबी यात्राओं के दौरान तनाव को कम करने के लिए ऐसा करते हैं। इस लंबे मार्ग का मतलब है कि आर्कटिक टर्न अपने जीवनकाल में लगभग 2.5 मिलियन किलोमीटर की उड़ान भरता है, जो चंद्रमा के तीन चक्कर लगाने के बराबर है!
प्रवासन की सटीक प्रकृति जानवरों के व्यवहार को समझने में काफी मदद करती है। शोधकर्ता न केवल जानवरों के प्रवास पैटर्न को देखते हैं, बल्कि बिंदु ए और बिंदु बी के बीच यह प्रजाती क्यों जा रही है जैसे विषयों का भी अध्ययन करते हैं, इसके अलावा वे ये भी देखते हैं कि क्या कोई प्रजाति भोजन घनत्व, पानी के तापमान में परिवर्तन या जानवरों की इन परिवर्तनों के अनुकूल होने की क्षमता के आधार पर नए स्थानों पर जा रही है।
पक्षियों की ट्रेकिंग का इतिहास बढ़ती जागरूकता, तकनीकी विकास और विज्ञानिक अनुसंधान के साथ संघटित हुआ है, जिससे हम पक्षियों के संरक्षण और प्रबंधन में बेहतरीन नीतियों का विकसन कर सकते हैं। इन प्रवासी पक्षियों का आगमन आमतौर पर सीजन के आधार पर होता है और इसका अध्ययन और मॉनिटरिंग पक्षियों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। इन पक्षियों के आगमन को अच्छी तरह से समझने से हम पक्षियों के लिए उनके वातावरण में सुधार करने के उपाय बना सकते हैं और उनके संरक्षण का सही तरीके से प्रबंधन कर सकते हैं।
संदर्भ:
https://shorturl.at/abW05
http://surl.li/kspvx
http://surl.li/kspvz
चित्र संदर्भ
1. पक्षियों की टैगिंग को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. एक पक्षी के पैर में एक बैंड जोड़ने की प्रक्रिया को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. बार-हेडेड गीज़ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. बाल्ड ईगल को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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