औपनिवेशिक भारत में दर्जियों की स्थिति, लखनऊ जिले में घर से परिधान तैयार करने वाले

उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
05-03-2022 08:56 AM
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औपनिवेशिक भारत में दर्जियों की स्थिति, लखनऊ जिले में घर से परिधान तैयार करने वाले

दर्जी हमारे जीवन का अभिन्‍न अंग हैं। किंतु फिर भी वे अक्सर सामाजिक-आर्थिक हाशिये पर रहते हैं लेकिन कुलीन और लोकप्रिय फैशन दोनों में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान देते हैं।यद्यपि औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानियों ने केवल इनके सामाजिक पहलू पर प्रकाश डाला, जबकि इनके व्यापार से जुड़ी अवमानना ​​का एक आर्थिक आधार भी था। लखनऊ के लाइसेंस(License) कर अधिकारी विलियम होय (William Hoey) ने 1880 में उल्लेख किया कि साधारण दर्जी को एक दर्जी की दुकान में एक दिन के काम के लिए 1½ आने (16 आने = 1 रुपये) के रूप में कम भुगतान किया जाता था, जबकि एक कुशल बढ़ई प्रति दिन 8 आने तक का भुगतान प्राप्‍त कर सकता था।
मास्टर-दर्जी ने अधिकांश लाभ को विनियोजित किया जो उसके सभी प्रशिक्षुओं, तंख़्वाहदार मजदूर और साधारण दर्जी को भुगतान की गई कुल मजदूरी के बराबर था। एक दर्जी एक दिन में 4 आने के लिए 2 जोड़ी पुरुष पजामा बनाता था जबकि उसकी मजदूरी सिर्फ 1 1/2 आने थी। दूसरी ओर, मास्टर-दर्जी ने श्रमिकों के लिए सुई, धागा, कार्यक्षेत्र और महिलाओं, नृत्य करने वाली लड़कियों, अभिजात वर्ग के जटिल डिजाइन/सिले कपड़े तैयार किए। कारखानों में कपड़ों के निर्माण के बाद से अमीर पश्चिमी देशों से स्वतंत्र दर्जी बड़े पैमाने पर गायब हो गए। बड़े कपड़ों के ब्रांडों ने अपनी कार्यशालाओं और कारखानों को बांग्लादेश, वियतनाम (Vietnam), भारत और चीन (China)जैसे देशों में स्थानांतरित कर दिया, जहां उन्‍हें कम मजदूरी पर अच्‍छे मजदूर मिल जाते थे जिससे वे अपने उत्‍पादों की कीमत को कम रख सकते थे, खासकर पश्चिमी उपभोक्ताओं के लिए। इन 'विकासशील' एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में, दर्जी को फैक्ट्री वर्कशॉप (factory workshop) में धकेल दिया गया, जहाँ वे पहले से तय डिज़ाइन (Design) और पैटर्न (Pattern)पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर बन गए। दर्जी अपनी सरलता और स्वतंत्रता के लिए ऐतिहासिक रूप से चिह्नित हैं।
18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने प्रेसीडेंसी (Presidency) और बंदरगाह शहरों में खुद को स्थापित करना प्रारंभ किया, उस दौरान भारतीय दर्जी ही जलवायु-उपयुक्त कपड़े डिजाइन कर सकते थे, इसलिए यह भारतीय दर्जियों पर ही निर्भर थे, जबकि औपनिवेशिक फैशन के अनुसार चलने हेतु ब्रिटिश दर्जी को भी बुलाया जा सकता था। 19वीं शताब्दी के अंत तक, औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानियों और शिक्षाविदों ने दर्शाया कि भारतीय दर्जी तत्‍काल होने वाले परिवर्तनों को स्‍वीकार करने में असमर्थ हैं। 19वीं शताब्दी के मध्य में हाथ से पकड़ी जाने वाली सिलाई मशीन लोकप्रिय थी, 1889 में इलेक्ट्रिक सिलाई मशीन का अविष्‍कार हुआ जो हाथ से चलने वाली मशीन की अ‍पेक्षा अधिक शक्तिशाली थी। हालाँकि, जैसा कि डेविड अर्नोल्ड (David Arnold) ने दिखाया है, इसकी जड़ें भारतीय दर्जी की पुरानी औपनिवेशिक कल्पनाओं में थीं, जो बदलते यूरोपीय फैशन के सामने अपरिवर्तनीय थीं। इस विश्वास ने औपनिवेशिक प्रशासकों को नए शैक्षिक संदर्भों में सिलाई शुरू करने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उन्होंने कल्पना की थी कि वे तकनीकी रूप से लचीले दर्जी के वैकल्पिक वर्ग बना सकते हैं।लेकिन दर्जी के विषय में औपनिवेशिक आख्यान केवल एक नस्लीय विचार पर आधारित नहीं थे कि भारतीय कारीगर तकनीकी परिवर्तन के प्रतिरोधी थे, वे औपनिवेशिक नृवंशविज्ञान परियोजनाओं पर भी आधारित थे, जो दर्जी को आंतरिक रूप से सीमांत जाति और सामाजिक समूहों के सदस्यों के रूप में वर्गीकृत करते थे। औपनिवेशिक अधिकारी और नृवंशविज्ञानी विलियम क्रुक (William Crooke), जिन्होंने उत्तर भारतीय जातियों और जनजातियों के बारे में औपनिवेशिक राज्य की समझ को सूचित किया, ने दर्जी के बारे में उत्तर भारत में प्रचलित कुछ कहावतों का उल्लेख किया। लोक कहावतों में से एक चला: दर्जी का पुत जब तक जीता ता तक सीता।क्रुक ने व्‍यसाय के आधार पर जातियों को समझा, और उन्होंने दर्ज़ियों को एक समग्र जाति समूह के रूप में वर्णित किया जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल थे।
स्थानीय भाषा के लेखन के माध्यम से, पता चलता है कि दर्जियों ने सामाजिक और आर्थिक हाशिए के रूपों का विरोध करना शुरू करा, औपनिवेशिक राज्य और उनके पड़ोसियों की नजर में, अपने समुदाय की सामाजिक स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। कुछ प्रकाशित व्यापार पुस्तिकाएं सिलाई मशीनों और तकनीकी आधुनिकता के अन्य मार्करों के साथ उनके जुड़ाव को उजागर करती हैं, या उभरती हुई शैलियों के साथ उनकी निपुणता का विज्ञापन करती हैं।उदाहरण के लिए, 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, लखनऊ और इलाहाबाद दोनों में मुस्लिम दार्ज़ियों ने सामुदायिक इतिहास प्रकाशित किए, जिन्होंने मुस्लिम इतिहास में उनके योगदान का प्रशंसनीय विवरण दिया, और समुदाय को धार्मिक रूप से समझदार व्यक्तियों के रूप में चित्रित किया।
दर्जी जिन आर्थिक चुनौतियों का सामना करते हैं, वे तेजी से फैशन और बड़े पैमाने पर उत्पादन के युग में ही गहरी हुई हैं। कई दर्जियों को एक अनुबंधित बाजार का सामना करना पड़ता है, जिसमें कुछ को कारखाना श्रम में स्थानांतरित होने के लिए मजबूर किया जाता है। छोटे शहरों के दर्जी फिर भी प्रतिस्पर्धा के नए रूपों के सामने उल्लेखनीय लचीलापन और रचनात्मकता दिखाते हैं। उनके इतिहास, अनुभव और कौशल विशेष रूप से इस अवधि में अधिक ध्यान देने योग्य हैं, जब उनके कई आर्थिक भविष्य अनिश्चित या असुरक्षित रहते हैं। भारत के परिधान उद्योग पर मौजूदा विद्वानों के साहित्य के एक सर्वेक्षण से निम्नलिखित प्रमुख निष्कर्षों का पता चलता है: कुल मिलाकर, भारत के परिधान क्षेत्र में महिलाओं (40%) की तुलना में अधिक पुरुष (60%) हैं, हालांकि, भारत में घरेलु परिधान का काम महिलाओं के अनुपात में नहीं है। इसके अलावा, पिछले दस वर्षों में महिला श्रमिकों का अनुपात लगातार बढ़ रहा है। 2002 के यूनिसेफ (UNICEF) द्वारा प्रायोजित वर्किंग पेपर (working paper) ने पांच निम्न-आय और मध्यम आय वाले एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया (Indonesia) , फिलीपींस (Philippines) और थाईलैंड (Thailand)) में परिधान सहित विभिन्न क्षेत्रों में घरेलु बाल श्रम की व्यापकता की जांच की। लखनऊ जिले में घरेलु परिधान तैयार करने वाले 603 घरों का अध्‍ययन किया गया। निष्कर्ष में पाया गया कि पांच से दस वर्ष की आयु के 21% बच्चे घरेलु परिधान तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल थे, और 11 से 14 वर्ष की आयु के 71% बच्चे इसमें शामिल थे। काम करने वाले सभी बच्चों में से आधे से अधिक या तो स्कूल में नहीं थे या अंशकालिक स्कूल में थे। बच्‍चों की उम्र और लिंग के आधार पर हर दिन काम के घंटे चार से सात तक थे। लगभग 18% बच्चे स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों का शिकार थे, जो सीधे तौर पर उनके द्वारा किए जाने वाले घरेलु कार्य के कारण होते हैं।

संदर्भ:

https://bit।ly/36ClkHM
https://bit।ly/3hpDwXu

चित्र संदर्भ   

1. भारतीय दर्जियों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. भारतीय दरजी और उसकी पत्नी को दर्शाता चित्रण (lookandlearn)
3. महिला दर्जियों को दर्शाता चित्रण (pixabay)
4. महिला दरजी को दर्शाता एक चित्रण (piqsels)

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