रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजै डारि।<जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥
वैसे देखा जाए तो सुई का इतिहास बहुत अधिक पुराना है। सुई का आविष्कार मानव के राज पाठ से बहुत पहले ही किया जा चुका था। वैज्ञानिकों के अनुसार मानवों ने आज से 40,000 साल पहले ही सुई की खोज कर ली थी, और क्योंकि सुई की खोज पहले ही कर ली थी तो सुंदर लिबास उसके बाद ही सिले गए होंगे। सिलाई मशीन की सुइयां माइक्रोन-विशिष्ट (Micron-Specific) होती हैं और इसके निर्माण के लिए विशेष मशीनों की आवश्यकता होती है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक सुई के निर्माण में 150 से अधिक चरण होते हैं।एक अच्छी गुणवत्ता वाली सुई सौंदर्यात्मक फिनिशिंग (Finishing) और कपड़ों के लिये बहुत जरूरी है। वैसे सुई का प्रयोग आजकल हर काम के अंदर किया जाता है। दर्जी तो सुई को मशीन के अंदर डालकर कपड़े की सिलाई करते हैं और हम भी सुई की मदद से कपड़ों मे टांका आदि लगाने का काम करते हैं। बड़े-बड़े कारखानों में भी इनका उपयोग होता है, कुछ कढ़ाई मशीनों में तो एक बार में 1,000 से अधिक सुइयों को फिट करके उनका उपयोग कढ़ाई करने में किया जाता है। यहां तक कि चमड़े की सिलाई के लिए भी एक विस्तृत श्रृंखला में सुइयों का उपयोग होता है। आज कल जो सुई आप देख रहे हैं पहले सुई वैसी नहीं थी। कहा जाता है कि सुई का आविष्कार अपर पुरापाषाण काल (Upper Paleolithic) के दौरान हुआ था, जो लगभग 40,000 साल पहले शुरू हुआ था।
इस समय में
सरल उपकरणों का आविष्कार किया जाने लगा था, जिनमें से एक गॉजिंग छेनी (Gouging Chisel) थी, जिसे
बुरिन (Burin) कहा जाता था।इसका उपयोग हड्डी, सींग और हाथी दांत से अन्य उपकरण बनाने और आकार देने
के लिए किया जाता था। इसलिये सबसे अधिक संभावना है कि इसका उपयोग पहली सुइयों को बनाने के लिए
किया गया था। इस समय लकड़ी और पत्थर की तुलना में हड्डी और सींग अधिक लोक प्रिय उपकरण सामग्री थे
क्योंकि वे लकड़ी की तुलना में अधिक टिकाऊ और पत्थर की तुलना में अधिक लचीले होते हैं। इसलिये यह कह
सकते है कि प्रारंभिक सुइयां हड्डी या सींग से बनाई जाती थी। इस सुइयों का सिर विभाजित होता था जो धागे को
जकड़ लेता था।लेकिन सिलाई के लिये सुई ही एकमात्र चीज नहीं है जो काफी हो। इसके लिये वस्त्रों के अलावा,
धागे या तार की भी आवश्यकता होती है। कपड़ा पुरातत्वविद् (Textile Archaeologist) एलिजाबेथ वेलैंड बार्बर
(Elizabeth Wayland Barber) धागे के आविष्कार के आसपास की समय अवधि को "स्ट्रिंग क्रांति" (String
Revolution) कहते हैं। धागे के बिना दुनिया की कल्पना करना कठिन है। इसके निर्माण ने एक क्रांति को जन्म
दिया। मनुष्य ने ठंडी जलवायु से बचने के लिये जानवरों की खालों का इस्तेमाल करना शुरू किया जिसके लिये
उन्होंने धागे और सुई दोनों के आविष्कार किया। संपूर्ण हिमयुग लगभग 100,000 वर्षों तक चला, लेकिन आखिरी
प्रमुख लम्बी ठंड लगभग 22,000 साल पहले पड़ी थी, ठीक उसी समय लोगों ने सिलाई करना शुरू किया होगा।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जानवरों की खाल को कांटों और नुकीले चट्टानों से बनी सुई के इस्तेमाल से
सिया जाता था। जानवरों के बालों या पौधे की सामग्री को धागे के रूप में उपयोग किया जाता था। कांटो से बनी
सुई अधिक उपयोगी नहीं थी तो बाद मे हड्डी से बनी सुई का विकास किया गया क्योंकि यह चमड़े को कोई
नुकसान नहीं पहुंचाता था।पक्षी की हड्डी से बनी एक सुई का साक्ष्य जोकि 50,000 वर्ष पुराना है जिसे डेनिसोवा
गुफा (Denisova Cave) में पाया गया था। लिओनिंग प्रांत (Liaoning province) में शियाओगुशन प्रागैतिहासिक
स्थल (Xiaogushan prehistoric site) में मिली हड्डी और हाथीदांत की सुई 30,000 से 23,000 साल पुरानी है।
मूल अमेरिकी अगेव (Agave) पत्ती से भी सुई का निर्माण करते थे। इसको एक लंबे समय तक भीगोते थे और
उसके बाद इसकी तेज नोक की मदद से सिलाई की जाती थी।कांस्य युग के अंदर कई सोने की भी बनाई गई
थी। इसके अलावा तांबे की सुई का भी प्रयोग होने लगा था।इसके बाद ही धातु से बनी सुईयों का निर्माण
हुआ।फ्लिंडर्स पेट्री (Flinders Petrie ) ने 4400 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व तक की तांबे की सिलाई सुई मिस्र
(Egypt) के नाकाडा (Naqada) में पाई। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की लोहे की सिलाई की सुइयां मंचिंग
(Manching) के ओपिडम (Oppidum) में पाई गईं। सुई बनाने में अगला प्रमुख चरण चीन (China) के अंदर 10
वीं शताब्दी मे उच्च गुणवकता वाला स्टील बनाने का विकास किया गया। बाद मे यह तकनीक जर्मनी और फ्रांस
(Germany and France) तक पहुंच गई। उसके बादइंग्लैंड (England) ने रेडडिच (Redditch) में 1639 में सुइयों
का निर्माण शुरू किया। आज कल जो आप सुई देख रहे हैं, वह इसी समय के अंदर उत्पादित हो चुकी थी, लेकिन
समय के साथ इसमें कई बदलाव होते रहे। आंखों के साथ सबसे पुरानी ज्ञात सुइयां लगभग 25,000 साल पहले
ग्रेवेटियन (Gravettian) काल की हैं।
सोलहवीं शताब्दी आते आते सुई निर्माताओं ने बड़े पैमाने पर इनका निर्माण शुरू कर दिया। घड़ी बनाने वाले से
लेकर सुनार तक कई व्यापारों में सुइयों की आपूर्ति की जाने लगी। अठारहवीं शताब्दी के सुई निर्माताओं ने उत्पादन
की एक प्रणाली विकसित की जो आज भी स्वचालित कारखानों का आधार है।अठारहवीं शताब्दी के दौरान ही
कार्यशालाओं का विकास हुआ। इस प्रकार बेहतरीन कढ़ाई और अन्य विलासिता के काम के लिए सुई की आपूर्ति
अपने चरम पर पहुंच गयी। सुई उद्योग में उन्नीसवीं सदी में कई विविधता देखी गई, इस समय कई प्रकार की
सुईयों का निर्माण हुआ। आज इन सुईसुईयों का उपयोग विभिन्न कार्यों में हो रहा है। अब आधुनिक सुइयों को
उच्च कार्बन स्टील (carbon steel) के तार से निर्मित किया जाता है। गुणवत्ता वाली कढ़ाई सुइयों को दो तिहाई
प्लैटिनम (Platinum) और एक तिहाई टाइटेनियम (Titanium) मिश्र धातु के साथ चढ़ाया जाता है।
सिलाई मशीन की सुइयों की कहानी 1850 के दशक में शुरू हुई जब महान आइजैक सिंगर (Isaac Singer) और
एलियास होवे (Elias Howe) ने सिलाई मशीन की खोज की। सिंगर ने होवे से पेटेंट अधिकार खरीदे और मशीन में
सुधार किया। देखते ही देखते इन मशीनों की बिक्री आसमान छू गई।
1860 में लियो लैमर्ट्ज़ (Leo Lammertz)
और स्टीफ़न बेसेल (Stephan Beisse) ने सिलाई मशीन की सुई का आविष्कार किया। इन दोनों के आविष्कार से
डाई प्रेसिंग (Die Pressing), पॉइंटिंग (Pointing) और ग्रूविंग (Grooving) के लिए उपयोग की जाने वाली विशेष
मशीनों की गुणवत्ता और उच्च उत्पादकता में नाटकीय तकनीकी सुधार हुये। श्मेट्ज़ (Schmetz) और सिंगर
(Singer) जैसे नामों ने 1922 में जर्मनी में सिलाई मशीन सुई कारखाने शुरू किए। द्वितीय विश्व युद्ध ने सुई
कारखानों को काफी नुकसान पहुंचाया, परंतु युद्ध के बाद, कारखानों को फिर से बनाया गया। लेकिन, जल्द ही ये
कंपनियां जर्मनी की सफलता का शिकार हो गईं। युद्ध के बाद उत्पादन की लागत में वृद्धि हुई। यूरोपीय परिधान
कारखाने एशिया में चले गए और उन्होंने कम कीमतों की मांग की। इस सब के कारण जर्मन सुई कंपनियों को
1990 से घाटा हुआ। उन्होंने कम लागत वाले स्थानों के लिए एशिया को खंगालना शुरू कर दिया और अंततः1996
में अल्टेक (Altek) भारत में सिलाई मशीन सुई तकनीक लेकर आया तथा धीरे-धीरे भारत सुई बनाने की दुनिया का
केंद्र बन गया।
यह सुई सिलाई ही नहीं बल्कि कपड़े पर कढ़ाई करने के लिए प्रयोग में भी लाई जाती है और भारत में की जाने
वाली कढ़ाई हमेशा से ही सुंदरता और विलासिताका प्रतीक रही हैं। वर्तमान में ये कढ़ाईयां अपनी विरासत के बल
पर दुनिया को दीवाना बना रही है। आज भारतीय कंपनियां गुच्ची (Gucci) और मार्गिएला(Margiela) के लिए
अलंकृत वस्त्र बना रही है। ये भारतीय कढ़ाई परंपरायें वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच चुकी है। फैशन जगत
ने इन परंपराओं को एक नया जन्म दिया है। गारा, काशीदा, शीशे का काम, फुलकारी, जरदोजी, चिकनकारी आदि
कढ़ाईयों से अलंकृत वस्त्र फैशन में अपना एक अलग स्थान बनाने में कामयाब रहे हैं और लोगों के बीच लोकप्रिय
बनते जा रहे हैं। वर्तमान में भारत की ये कढ़ाईयां दुनिया में एक स्टाइल स्टेटमेंट (Style Statement) बनती जा
रही हैं।
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