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"गा़लिब" बुरा
न मान जो
वाइज़
बुरा
कहे
ऐसा भी
कोई
है
कि
सब
अच्छा
कहें
जिसे"
इन शायरियों को लिखते-लिखते, रामपुर की सुनसान गलियों में गालिब ने एक अरसा गुजारा है। उर्दू भाषा के इस बेताज शायर की रचनाओं में यूँ तो आपको प्रेम और बिछड़न का जिक्र दिखाई देगा, लेकिन इन सब से परे ग़ालिब के दिल के किसी कोने से ब्रिटिश गुलामी की घुटन का दर्द भी छलका है। 1857 की क्रांति के दौरान ग़ालिब, दिल्ली में थे। अंग्रेजों द्वारा दिल्ली पर कब्जा करने के बाद ग़ालिब और उनकी पत्नी, भूखे-प्यासे अपने घर में फंस गए थे। शुक्र है कि पटियाला के महाराजा द्वारा भेजे गए सैनिकों ने उन्हें बचा लिया, लेकिन उनके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने उनका सारा कीमती सामान चुरा लिया। लेकिन ग़ालिब ने शहर में हिंसा और अराजकता की चीखों के बीच भी उर्दू की "क़द ओ गेसू" नामक एक कालजयी ग़ज़ल लिख डाली। ऊपर दिए गए विडियो में आप देख सकते हैं कि ग़ालिब की इस गजल में एक शहर की खोई हुई भव्यता का प्रतिनिधित्व करने के लिए ज़ुल्फ़ों के रूपकों का कितनी चतुरता से प्रयोग किया गया है।
विद्रोह के बाद की पीड़ा ने भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, बहादुर शाह जफर के ह्रदय को भी झकझोर कर रख दिया था और ग़ालिब की तर्ज पर उन्होंने भी अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से व्यक्त किया। इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने अपने साम्राज्य के पतन और राष्ट्र के विभाजन पर शोक व्यक्त किया था। उनकी गजलों में ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों, दिल्ली के विनाश और वहां के लोगों की पीड़ा को दर्शाया गया था। उनके जाने के बाद भी ज़फर की शायरी आम लोगों के बीच गूंजती रही, तथा एकता और भारतीय संस्कृति के संरक्षण का आह्वान करती रही। ज़फ़र की एक ग़ज़ल, गई "यक-ब-यक" अंग्रेजों के सत्ता में आने के बाद दबे-कुचले लोगों की प्रेरणा बन गई। ब्रिटिश हुकूमत में इस गजल का खौफ इतना था कि सन 1862 में, भोपाल के ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट ने इस गीत पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध भी कर दिया था।
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