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जंगल और इंसानों के कानून में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि जंगल में राज करने का अधिकार केवल शेर के पास केवल इसलिए होता है, क्यों कि उसकी बनावट बेहद आक्रामक एवं मांसपेशियां बेहद मजबूत होती हैं। जिनकी सहायता से वह किसी भी जानवर को खौफ में रखकर राज कर सकता है। लेकिन इसके विपरीत इंसानी सभ्यता में यह ताकत और अधिकार, सरकार, संविधान या अदालतों के रूप में समान रूप से बंटे हुए रहते हैं। इसका फायदा यह होता है कि कोई एक व्यक्ति, व्यवस्था या सरकार, सत्ता एवं पद के मद में चूर होकर अपनी मनमानी नहीं कर सकती। लेकिन तब क्या होता है, जब कोई पार्टी अकेले ही सारे अधिकारों और व्यवस्थाओं पर नियंत्रण करने की कोशिश करती है?
कानूनी विद्वानों का हमेशा से यह मानना रहा है कि मजबूत संवैधानिक अदालतें, लोकतंत्र की रक्षा करने का सबसे अच्छा तरीका होती हैं, क्योंकि वे सरकार के गलत फैसलों और अनियंत्रित शक्ति के खिलाफ एक शक्तिशाली कवच प्रदान करती हैं। कई उभरते लोकतंत्रों में, अदालतों ने संक्रमण काल (Transition Period) के दौरान संवैधानिक लोकतंत्र के निर्माण में एक प्रमुख भूमिका निभाई है और कानून के शासन एवं शक्ति के प्रतीक के रूप में कार्य किया है।
हालाँकि इसका एक दूसरा पहलू भी है। हंगरी (Hungary) और पोलैंड (Poland) जैसे देशों में हाल में घटित कई घटनाओं से पता चला है कि निरंकुश नेताओं की मनमानी को रोकने में संवैधानिक अदालतें हमेशा प्रभावी नहीं होती हैं। इन देशों में, नई लोकलुभावन सरकारें अपने कानून, संस्थानों और अदालतों की स्वतंत्रता तथा प्रभाव को कम करने में कामयाब रही हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जब एक मजबूत किन्तु निरंकुश नेता सत्ता पर काबिज होता है, तो कानून या अदालतें भी उस नेता की निरंकुशता को रोकने में प्रभावी साबित नहीं हो सकती हैं।
हालांकि यह प्रवृति नई नहीं है। वास्तव में यदि आप पूर्व-द्वितीय विश्व युद्ध के जर्मन इतिहास को खंगालें तो आपको पता चलेगा कि उस दौर के तथाकथित न्यायाधीशों ने हिटलर (Hitler) के वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश भी नहीं की और उनका यह बर्ताव नाज़ी शासन (Nazi) को वैध बनाने में सहायक साबित हुआ था। यह प्रदर्शित करता है कि समय आने पर निरंकुश नेताओं को रोकने में न्याय प्रणाली भी विफल नजर आती है।
कई अध्ययनों से पता चलता है कि केवल स्वतंत्र अदालतों की उपस्थिति ही बहुमत के साथ चुनी गई किंतु निरंकुश सरकार को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है। अधिकारों का प्रवर्तन अंततः स्वयं नागरिकों पर पड़ता है। हालांकि जब आम नागरिक संगठित होते हैं, तो वे विभिन्न रूपों के माध्यम से अधिकारों के उल्लंघन का विरोध कर सकते हैं। लेकिन जहां पर नागरिकों के संगठन की शक्ति क्षीण होती है, वहां अधिकारों की सुरक्षा करना भी मुश्किल हो जाता है।
यद्यपि संवैधानिक अदालतें तथा अन्य नियम-कानून संस्थाएं लोकतंत्र की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण उपकरण हैं, किंतु वे अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। अंततः, लोकतंत्र की रक्षा स्वयं नागरिकों पर निर्भर करती है, जिन्हें निरंकुश नेताओं का विरोध करने और अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए सतर्क और संगठित होना चाहिए।
किसी भी संस्कृति या समाज का ठीक से काम करने के लिए वहां के कानून के पास आवश्यक शक्ति और स्वतंत्रता होना बेहद बहुत जरूरी है। स्वतंत्र न्यायपालिका इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। एक स्वतंत्र न्यायपालिका का अर्थ ही होता है कि वहां के न्यायाधीश सरकार से प्रभावित हुए बिना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हों। इससे कानून को निष्पक्ष रूप से लागू करने में मदद मिलती है और सभी के अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। लोकतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति की आजादी (लोगों को यह कहने का अधिकार कि वे क्या सोचते हैं और अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार!) भी जरूरी है।
यहीं पर मीडिया (Media) की भूमिका भी अहम् हो जाती है। वास्तव में मीडिया लोगों को सूचित रखने के साथ-साथ सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
हालाँकि, हाल के वर्षों में, लोकलुभावन नेताओं द्वारा मीडिया के अधिकारों को सीमित करने और उनकी स्वतंत्रता को कम करने की चिंताजनक प्रवृत्ति में वृद्धि देखी गई है। पत्रकारों पर "फर्जी समाचार" फैलाने तथा कुछ देशों में उत्पीड़न और यहां तक कि हिंसा का आरोप भी लगा दिया जाता है। वास्तव में यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो लोकतंत्र की नींव के लिए एक गंभीर खतरा है।
न्यायपालिका और मीडिया, मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई में महत्वपूर्ण सहयोगी साबित होती हैं। वे सार्वजनिक हित के मामलों पर प्रकाश डालने और लोगों को सूचित रखने के लिए मिलकर काम करते हैं।
मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी एक ऐसी स्वतंत्र न्यायपालिका का होना जरूरी है जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो और जिसे उचित भुगतान किया जाता हो। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि न्यायाधीश सत्ता में बैठे नेताओं से प्रभावित हुए बिना कानून के आधार पर निर्णय लेने में सक्षम हों। मीडिया की स्वतंत्रता का समर्थन करने का दावा करने वाली सरकारों को अपनी न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा के लिए भी काम करना चाहिए। उन्हें उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए और अन्य देशों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने भी 2012 में एक घोषणा को अपनाया जिसने मानवाधिकारों, लोकतंत्र और कानून के शासन के महत्व पर जोर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इन मूल्यों को संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांतों के लिए सार्वभौमिक और आवश्यक माना जाता है। लोकतंत्र और कानून के शासन, दोनों को परिणामों पर ध्यान देने की जरूरत है, न कि केवल प्रभावी होने के लिए प्रक्रियाओं पर। "कानून द्वारा शासन" और "कानून का शासन" के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है, जहां सरकार सहित हर कोई कानून से बंधा है। “कानून का शासन”, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों और नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करने में मदद करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाए। संयुक्त राष्ट्र ने मानदंडों और मानकों के एक अंतरराष्ट्रीय ढांचे के समेकन और विकास के माध्यम से कानून के शासन को बढ़ावा देने के लिए काम किया है। उन्होंने शासन, सुरक्षा, मानवाधिकार और नागरिक समाज को मजबूत करने के क्षेत्रों में भी सहायता प्रदान की है। कुल मिलाकर कानून का शासन अधिकांश आधुनिक लोकतंत्रों में अपनाया गया एक मूलभूत सिद्धांत है और नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए बेहद आवश्यक है। कानून के शासन का पालन लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है।
संदर्भ
https://bit.ly/40krtib
https://bit.ly/3opZujC
https://bit.ly/3GUSdPj
चित्र संदर्भ
1. न्यायपालिका पर सरकार के नियंत्रण को दर्शाता एक चित्रण (Prarang)
2. न्यापालिका और सरकार के बीच मतभेद को दर्शाता एक चित्रण (Openclipart)
3. एडोल्फ हिटलर को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. न्याय पालिका को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
5. संयुक्त राष्ट्र को संदर्भित करता एक चित्रण (wikipedia)
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