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1947बटवारे से प्रभावित लोगों के लिए वह घरेलु वस्तुएं बेशकीमती है जो वह तब साथ ला पाए

रामपुर

 26-08-2022 12:13 PM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
वर्ष 1947 में भारत और पाकिस्तान के बटवारे के साथ ही विश्व ने अपने इतिहास के सबसे बड़े और दर्दनाक बटवारे को देखा। आपको जानकर आश्चर्य होगा की मानव इतिहास के सबसे बड़े प्रवासों में से एक के रूप में वर्णित, इस बटवारे के बाद घृणा और हिंसा के माहौल ‌‍तथा जीवन की अनिश्चितता के बीच लोगों को रातों-रात अपने घरों से भागना पड़ा। इस भागादौड़ी में लोग अपने घरों और दैनिक वस्तुओं को पीछे छोड़कर नए देश में विस्थापित हो गए। लेकिन जिन आम वस्तुओं को वह विस्तापित लोग पीछे छोड़ गए थे, वही मामूली चीजें आज उन विस्थापितों के लिए बेशकीमती यादें बन चुकी हैं।
अध्ययनों से पता चला है कि अधिकांश लोग अपने घरों में आग लगने की स्थिति में महंगे लैपटॉप या टेलीविजन के बजाय एक विशेष विरासत या वस्तु को बचाना पसंद करते हैं। दरअसल यादों को वस्तुओं से जोड़ने से हमें दैनिक कार्यों और महत्वपूर्ण तिथियों को याद रखने में मदद मिलती है। सबसे हालिया मनोवैज्ञानिक शोध के अनुसार, रेट्रोस्प्लेनियल कॉर्टेक्स (retrosplenial cortex) मस्तिष्क का वह हिस्सा है, जो यादों को संग्रहीत और याद रखता है। जब वस्तुएँ हमारे जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में शामिल होती हैं तो उनसे हमारा भावनात्मक रिश्ता जुड़ जाता है। हमारा दिमाग घटना की स्मृति, इसमें शामिल लोगों को या घटना में केंद्रित किसी भी वस्तु से जोड़ देता है।
मान लीजिए कि आपकी दादी ने आपको 8 साल की उम्र में एक टेडी बियर (Teddy Bear) दिया था। जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, टेडी बियर को घर के किसी स्टोर रूम में फेंक दिया जाता हैं। लेकिन सालों बाद यदि आप उस टेडी बियर को छुए तो, उसके फर (Fur) की अनुभूति और वर्षों पहले की वही गंध आपकी दादी की उन पुराने दिनों की यादें ताजा कर देती है। इस प्रकार वस्तुएं हमारे लिए इस तरह के भावुक मूल्य को हमेशा बरकरार रखती हैं। भारत और पाकिस्तान के बटवारे से प्रभावित लोगों के लिए भी यही यादें बेहद मूल्यवान साबित हो रही हैं। विभाजन के मामले में, भौतिक स्मृति अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण होती है। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं।
आजादी से पूर्व जालंधर में एक संपन्न मुस्लिम रब्बानी परिवार ने घर के सामने उर्दू में 'शम्स मंजिल' नाम की एक राजस्थानी पत्थर की पट्टिका लगाई गई थी। 1947 में दंगों के दौरान उन्हें लायलपुर (अब फैसलाबाद) भागने के लिए मजबूर कर दिया गया था। मियां फैज रब्बानी, विभाजन के समय सोलह वर्ष का एक लड़का था। कई साल बाद, जब उनकी भतीजी और उनके पति पैतृक घर गए, तो उन्होंने देखा कि उनके घर को तोड़ा जा रहा है और पट्टिका को छोड़ दिया गया है। घर के निवासियों की अनुमति लेकर, उन्होंने पत्थर की पटिया को अपने चाचा की यादों के साथ वाघा सीमा (Wagah Border) के पार घर ले जाने का फैसला किया।विस्थापन के थपेड़ों से प्रताड़ित लोग जिन छोटी-बड़ी भौतिक वस्तुओं को अपने साथ लेकर आये थे, वह सभी आम वस्तुएं हर गुजरते दिन के साथ बेहद खास हो गई। विभाजन के मामले में, भौतिक स्मृति अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण होती है। यह विशेष तौर पर दूसरी और तीसरी पीढ़ी को आत्मनिरीक्षण के माध्यम से दो देशों के व्यक्तिगत और सामूहिक इतिहास को समझने का एक शानदार तरीका प्रदान करती है। विभाजन के बाद अपने साथ लाई गई वस्तुएं एक परिवार की कई पीढ़ियों को एक साथ बांध कर रख रही हैं, जिसे बेरी परिवार की महिलाओं के उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। दरसल बेरी परिवार के मुखिया नारियन दास बेरी ने 1933 में एक अंग्रेज से हस्तनिर्मित आभूषण खरीदे थे, उस दौरान बेरी परिवार लाहौर में शल्मी दरवाजा के पास रहता था। लेकिन 1947 में जब वे सीमा पार दिल्ली आ गए, तब वे उन हस्तनिर्मित आभूषणों को भी सामान के भीतर छुपाकर लाए थे। सामान में दो सुन्दर और सामान मोर कंगन भी थे, जो शुद्ध सोने और नाजुक मोतियों से निर्मित थे। इनमें से एक उन्होंने अपनी बेटी अमृत को और दूसरा अपनी बहू शैल को दिया। तीसरा टुकड़ा नारियन दास बेरी ने अपनी पत्नी को दिया। जिन्होंने बाद में इसे अपनी बेटी जीवन को भेंट किया, जिन्होंने इन अतुलनीय उपहारों को अपनी मां का एक हिस्सा माना और सदैव इसकी रक्षा की। हालांकि उन्होंने शायद ही कभी इसे पहना हो। अमृत ​​की मृत्यु के बाद, उनका कंगन अंततः उसकी छोटी बेटी, रजनी के पास चला गया। नारियन दास बेरी द्वारा उन्हें खरीदे जाने के अस्सी से अधिक वर्षों के बाद भी आभूषण के ये टुकड़े उन तीन महिलाओं को एक साथ बांध रहे हैं, जो सभी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहती हैं। एक अन्य उदाहरण में, ओम प्रकाश खन्ना, जो विभाजन के समय सोलह वर्ष के थे, बताते हैं कि ट्रेन क्लर्क के रूप में कार्यरत उनके पिता मलिक टिकया राम खन्ना, अपने साथ एक फटा हुआ सेवा प्रमाण पत्र लाये थे।
वहीँ बलराज बहरी के अनुसार उनकी माँ ने गुजरात जिले के शरणार्थी शिविर में जाने से पहले मलकवाल में अपनी रसोई से सभी पीतल के बर्तनों को पैक कर दिया था। इसी तरह, राज कपूर सुनेजा के पास बंटवारे से पूर्व की एक छोटी सी हाथ-चक्की है, जो की एक गोलाकार पत्थर का मोर्टार है जिसका व्यास 10 इंच से बड़ा नहीं है। हमें और आपको यह सभी दैनिक वस्तुएं बेहद आम प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन यकीनन यह साधारण भौतिक वस्तुएं भी बंटवारे की पीड़ा से गुजरे लोगों के लिए बेशकीमती हैं।
कभी-कभी, शादी की साड़ी, एक रेडियो या यहां तक ​​कि रसोई के बर्तन जैसी सामान्य चीजें भी बटवारे के दौरान रहने वाले और मरने वाले लाखों लोगों के व्यक्तिगत आख्यानों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होती हैं। अमृतसर में विभाजन संग्रहालय में विभाजन से बचे लोगों और उनके परिवारों द्वारा दान की गई वस्तुओं का एक व्यापक संग्रह मौजूद है। बटवारे के समय कई लोगों के पास अपना सामान पैक करने का भी समय नहीं था। संग्रहालय में रखा ये वो सामान हैं जो बचे लोग 70 साल पहले सीमा के दूसरी तरफ छोड़े गए घरों से लाए थे। संग्रहालय में प्रत्येक वस्तु की एक कहानी है और विभाजित लोगों की भौतिक संस्कृति को भी दर्शाती है। वे इस युगांतरकारी घटना में महत्वपूर्ण मील के पत्थर, लेकिन नुकसान, दर्द और दुःख के प्रतीक भी हैं, जिसे उनके मालिकों ने सहन किया। भारत के विभाजन को कई लेखकों द्वारा विषयगत किया गया था। लेकिन मंटो (Manto) ने विभाजन के बारे में जो लिखा वह उर्दू कथा साहित्य में एक उदाहरण बन गया। सआदत हसन मंटो की ''द गारलैंड' ("The Garland") पाकिस्तान में विभाजन के उन्मादी दिनों पर आधारित है। इसमें वर्णित है की लाहौर में एक मुस्लिम भीड़ ने एक प्रसिद्ध हिंदू वास्तुकार और परोपकारी, सर गंगा राम की प्रतिमा पर हमला किया तथा लाठी, ईंटों और पत्थरों से 'उन पर' पथराव किया। इस दौरान एक व्यक्ति को पुलिस द्वारा गोली मार दी जाती है क्योंकि वह स्मारक के गले में जूतों की एक माला पहनाने की कोशिश करता है। घायल व्यक्ति को "सर गंगा राम अस्पताल में ही पट्टी बांधने के लिए भर्ती कराया गया"। इस अस्पताल को उसी गंगा राम द्वारा स्थापित किया गया था, जिसकी प्रतिमा को वह तोड़ रहा थ। इस रचना के माध्यम से मंटो पाठक को एक विडंबनापूर्ण सत्य की त्वरित समझ प्रदान करते हैं। भारत और पाकिस्तान में केवल चुनिंदा ही व्यक्तित्व हैं जिन्होंने प्रतिष्ठित इंजीनियर और परोपकारी, सर गंगा राम की भांति सीमा के दोनों किनारों पर स्थायी विरासत छोड़ी है। दिल्ली और लाहौर में उनके ट्रस्ट और उनके नाम पर परिवार द्वारा बनाए गए अस्पताल आज भी उनकी विरासत को कायम रखते हैं। हालांकि पाकिस्तान का लाहौर शहर उनका घर था, लेकिन 1947 के भारत विभाजन के दौरान, उनका परिवार भारत, दिल्ली में चला आया। 1927 में गंगा राम की मृत्यु हो गई, लेकिन लेखक सआदत हसन मंटो की लघु कहानी, द गारलैंड, ने संक्षेप में बताया कि, वह व्यक्ति और उसकी विरासत, लाहौर शहर के साथ कितनी निकटता से जुड़ी हुई है।

संदर्भ
https://bit.ly/3AmVCCf
https://bit.ly/3QZODWY
https://bit.ly/3AGoarY
https://bit.ly/3CvUqiY
https://bbc.in/3CKl1ZN

चित्र संदर्भ
1. राहत शिविरों में शरणार्थियों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. रेट्रोस्प्लेनियल कॉर्टेक्स (retrosplenial cortex) मस्तिष्क का वह हिस्सा है, जो यादों को संग्रहीत और याद रखता है। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. सोने के कंगनों को दर्शाता एक चित्रण (Free Vectors)
4. एक जलपात्र को दर्शाता एक चित्रण (Free Vectors) 
5. अमृतसर में विभाजन संग्रहालय को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. अमृतसर में विभाजन संग्रहालय में पहले हॉल के एक सामान्य दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
* उक्त पोस्ट में प्रासंगिकता हेतु काल्पनिक चित्रों का भी प्रयोग किया गया है।


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