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15 अगस्त 1947 में भारत की आजादी के बाद सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि विभिन्न रियासतों में बंटे इतने
विशाल देश को एकजुट कैसे किया जाए। इसके लिए सरकार ने प्रत्येक रियासत के राजाओं से वार्तालाप की। राजाओं के सामने
यह प्रस्ताव रखा गया कि वे अपने राज्य को भारत में या तो पाकिस्तान राष्ट्र में विलय कर दें अथवा एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर
दें। तत्कालीन परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थी कि सभी रियासतें स्वतंत्र राज्य घोषित कर सकें। भारत में विलय करने के लिए एक
समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। जिसके बदले सरकार रियासत के शासक और उनके परिवारों को एक निश्चित राशि भुगतान
स्वरूप देगी। जिसे प्रिवी पर्स (Privy Purse) नाम दिया गया। इसके बाद शासक के सत्तारूढ़ अधिकार समाप्त हो जाएंगे। वर्ष
1971 में संविधान में हुए 26वें संशोधन तक सभी रियासतों के शासक परिवारों को प्रिवी पर्स का भुगतान जारी रहा। कुछ
विशेष मामलों में 1971 के बाद भी उन शासक परिवारों का प्रिवी पर्स भुगतान जारी रहा जिनके पास वर्ष 1947 से पहले
विशेष सत्ताधारी अधिकार थे।
इतिहास की बात करें तो स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले 560 ऐसी रियासतें थी जिन पर ब्रिटिश सरकार का आधिपत्य तो था लेकिन
संप्रभुता नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद भारत के 48% भाग में 555 रियासतें फैली थी। अधिकांश रियासतें ऐसी स्थिति में थी कि
उनके पास भारत संघ में विलय होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या तक, अधिकांश राज्यों ने
भारतीय संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल जिन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा
नए भारत के निर्माता के रूप में सम्मानित किया गया था, ने वीके मेनन की सहयता से अपनी कूटनीति के परिणामस्वरूप
भोपाल, त्रावणकोर और जोधपुर भी 15 अगस्त 1947 से पूर्व ही भारत में विलय के लिए तैयार हो गए। तीन अतिरिक्त राज्य
जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक भी भारत में एकीकृत होने के लिए तैयार हो गए। 1949 तक, जनमत संग्रह की
स्थिति के कारण जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्य, भारतीय राष्ट्र को संपूर्ण नियंत्रण सौंपते हुए भारतीय गणराज्य में शामिल
हो गए।
स्वतंत्रता के बाद, सभी रियासतों द्वारा भारत सरकार के साथ दो समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। यह दो समझाते, परिग्रहण
और विलय से संबंधित थे। परिग्रहण के अंतर्गत भारत सरकार राज्यों की रक्षा, विदेशी मामलों और संचार के मामलों के लिए
जिम्मेदार थी। जबकि विलय के समझौते के साथ राज्यों के सभी अधिकार भारत सरकार को सौंप दिए गए। भारतीय संविधान के
अनुच्छेद 291 के तहत सभी शासकों को प्रिवी पर्स की गारंटी दी गई। प्रिवी पर्स के अंतर्गत दी जाने वाली राशि कई तत्वों पर
निर्भर करती थी जैसे राज्य के राजस्व और ब्रिटिश शासन के दौरान राज्य की स्थिति इत्यादि। जहां एक और पूर्ववर्ती रियासतों
के छोटे-छोटे सामंतों को रियासतों द्वारा छोटे-छोटे भत्ते दिए जाते थे, वहीं दूसरी ओर 565 रियासतों के शासक परिवारों को
प्रिवी पर्स में दी जाने वाली धनराशि 5000 से लेकर लाखों रुपये प्रतिवर्ष थी। 11 राज्यों को छोड़कर सभी के लिए यह राशि 2
लाख तक रखी गई थी। 6 सबसे महत्वपूर्ण राज्यों को 10 लाख तक की धनराशि प्रिवी पर्स के अंतर्गत प्रदान की जाती थी। मैसूर
के शासक को सर्वाधिक 26 लाख रुपए प्रतिवर्ष जबकि कोटदिया के शासक को सबसे कम 192 रुपए प्रतिवर्ष दिए जाते थे।
1970 में प्रिवी पर्स में दी जाने वाली कुल धनराशि लगभग 58 करोड रुपये थीl
हालाँकि शासकों के पास कोई विशेष शक्तियाँ नहीं थी परंतु कुछ अधिकारी उपाधियाँ अवश्य थी। कुल मिलाकर शासकों के पास
34 विशेषाधिकार थे। जिनके अंतर्गत कुछ भारतीय कानूनों के संचालन में छूट, कुछ जागीरों का आनंद लेना, शासकों के भाई-
बहनों के विवाह के खर्च का राज्यों द्वारा भुगतान और कुछ अदालती प्रक्रिया में छूट शामिल थी।
वर्ष 1970 में संसद के सामने प्रिवी पर्स को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा गया। हालाँकि यह प्रस्ताव बहुमत के अभाव में लागू
नहीं किया गया। इसके उपरांत 6 सितंबर 1970 को भारत के राष्ट्रपति के आदेशानुसार संविधान के अनुच्छेद 366(22) के तहत
अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति ने निर्देश दिए कि अब से सभी शासकों को शासकों के रूप में मान्यता नहीं दी
जाएगी। जिसके बाद प्रिवी पर्स धनराशि सहित सभी विशेषाधिकारों को तत्काल समाप्त कर दिया गयाl
प्रिवी पर्स को संविधान के अनुच्छेद 291 और 362 में वर्णित किया गया है। इसके उन्मूलन का कई लोगों द्वारा विरोध किया
गया। संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए के निरस्तीकरण के समान ही प्रिवी पर्स के उन्मूलन को संवैधानिक हनन माना गया।
कई शासक परिवार इसे अपनी प्रतिष्ठा पर ठेस मानते हैं। सरकार का मानना है कि अब परिस्थितियाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत
बाद के समय से काफी भिन्न हो चुकी हैं। देश अब भी शासक परिवारों का सम्मान करता है। परंतु प्रिवी पर्स की उपस्थिति
आवश्यक नहीं है। सरकार के इस फैसले से कई लोगों ने संवैधानिक गारंटी, नैतिकता और सबसे बढ़कर, संप्रभु वादे के सम्मान पर
प्रश्न उठाया है। उनका मानना है कि सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिक भारतीय इतिहास
का एक रोचक हिस्सा प्रिवी पर्स स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम था परंतु जहाँ एक और सरकार इस
फैसले को सही मानती है वहीं दूसरी ओर कई लोग इसे संवैधानिक वादे का हनन मानते हैं और इसका विरोध करते हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3dm1aoW
https://bit.ly/3JRcTYB
https://bit.ly/3SMOKXi
चित्र संदर्भ
1. जवाहर लाल नेहरू, महात्मां गाँधी जी एवं सरदार पटेल को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. भारत के विभाजन का नक्शा (1947)। नोट: छोटी रियासतें जो स्वतंत्रता के बाद किसी भी देश में शामिल नहीं हुई थी, उन्हें भारत और पाकिस्तान के अभिन्न अंग के रूप में दिखाया गया है। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. संसद को संबोधित करते हुए जवाहर लाल नेहरू जी को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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